सम्पादकीय

Pension: पेंशन गलत चुनावी मुद्दा है, आने वाली पीढ़ी की भविष्य पर असर

Neha Dani
3 Dec 2022 3:27 AM GMT
Pension: पेंशन गलत चुनावी मुद्दा है, आने वाली पीढ़ी की भविष्य पर असर
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उसी प्रकार पेंशन मामले के लिए भी उच्चतम न्यायालय के स्पष्ट रुख की आवश्यकता रहेगी।
इन दिनों राजनीतिक एजेंडे के माध्यम से देश के कुछ चुनावी राज्यों में पुरानी पेंशन स्कीम को वापस शुरू करने की बातें जोर-शोर से हो रही हैं और कुछ राज्यों में तो यह शुरू भी हो गई है। यकीनन यह सब व्यक्ति को आर्थिक विकास का ऐसा सपना दिखाने जैसा है, जिसका उद्देश्य भले उसका वर्तमान मजबूत बनाना हो, परंतु इससे आने वाली पीढ़ी का आर्थिक भविष्य सुरक्षित नहीं रहेगा। इस पक्ष पर आम राय क्यों नहीं है कि भारत जैसी विशाल जनसंख्या वाले मुल्क में सरकारी कर्मचारियों की पेंशन योजना सामाजिक कल्याण का मुद्दा नहीं है?
वर्ष 2003-04 में जब तत्कालीन भाजपा सरकार ने पुरानी पेंशन योजना को खत्म करके नई पेंशन योजना (जिसके अंतर्गत कर्मचारी का अपना आर्थिक अंशदान सम्मिलित है) शुरू की थी, तो 27 राज्यों ने स्वीकृति देकर उसे अपने यहां लागू किया था। हालांकि, प. बंगाल व तमिलनाडु ने मंजूरी नहीं दी थी। अब आज तकरीबन दो दशकों के बाद फिर उसी योजना पर वापस लौटना आर्थिक विकास के संदर्भ में भविष्य के लिए विकट परिस्थिति पैदा करने वाला है। ज्ञात रहे कि नई पेंशन योजना के अंतर्गत सरकार 14 प्रतिशत का अंशदान कर रही है, जबकि पुरानी पेंशन योजना के अंतर्गत सारी जिम्मेदारी सरकारों के कंधे पर थी। अब अगर पुरानी पेंशन योजना को फिर से लागू किया जाता है तो इसका बेहद नकारात्मक असर होगा, जिसके अंतर्गत वर्ष 2003-04 से सरकारी कर्मचारियों को तकरीबन 30 वर्ष की सेवा के बाद (2035-36 के आसपास) मिलने वाली पेंशन का आर्थिक नियोजन अभी से शुरू करना पड़ेगा।
नतीजतन विकास के कई दूसरे क्षेत्र आर्थिक प्राथमिकता से नजर अंदाज हो जाएंगे, जिसमें कृषि, ग्रामीण विकास, इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट आदि हैं। इन सब से नए रोजगारों के सृजन में अनेक समस्याएं सामने आएगी। हमें यह भी समझना होगा कि पिछले दो-तीन दशकों से आर्थिक विकास की बागडोर पूर्णतया निजी क्षेत्रों के हाथों में है। निजी क्षेत्र में सरकारी क्षेत्र की तरह पेंशन प्रावधान नहीं हैं। केवल सरकारी कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन योजना को वापस शुरू करना समाज में आर्थिक भेदभाव और असमानता को बढ़ाने जैसा ही है।
राजस्थान देश का पहला ऐसा राज्य है, जिसने चालू वित्तीय वर्ष के बजट में पुरानी पेंशन योजना को वापस लागू करने की घोषणा की। इसे अगर राजस्थान के आर्थिक आंकड़ों से समझना हो, तो वर्तमान समय में राजस्थान में कुल आय का 56 प्रतिशत व्यय वेतन व पेंशन पर हो रहा है और इसका फायदा जनसंख्या के मात्र छह प्रतिशत हिस्से को हो रहा है। बाकी बची 44 प्रतिशत आय जनसंख्या के 94 प्रतिशत हिस्से में विभिन्न योजनाओं के माध्यम से व्यय हो रही है। हिमाचल प्रदेश में चुनाव के दौरान इस मुद्दे पर चर्चा आम रही। सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक, हिमाचल प्रदेश में अभी 64,904 करोड़ रुपये का सार्वजनिक ऋण बकाया है, वहीं सरकारी पेंशन का खर्च 35,535 करोड़ों रुपये हैं, जो राजस्व खर्चों का 18.26 प्रतिशत है।
दूसरी तरफ आर्थिक रूप से समृद्ध माना जाने वाले गुजरात में भी, सीएजी की 2020-21 की रिपोर्ट के मुताबिक, सार्वजनिक ऋण 3,00,963 करोड़ है। गुजरात में पेंशन मद का खर्च 1,50,704 करोड़ रुपये के बराबर है, जो कुल राजस्व खर्चों का 12.34 प्रतिशत है। पंजाब ने तो पुरानी पेंशन योजना लागू करने की घोषणा भी कर दी है, जबकि पंजाब की आर्थिक हालत बहुत खराब है। यदि सारे राज्य पुरानी पेंशन स्कीम की तरफ वापस लौटते हैं और जहां पर सरकार का खर्च सेवानिवृत्त कर्मचारियों के लिए प्रत्यक्ष रूप से 50 प्रतिशत वेतन का रहता है, तो उसे ये कैसे आर्थिक रूप से वहन करेंगे? जिस तरह से उच्चतम न्यायालय ने मुफ्त रेवड़ी बांटने की राजनीति के संबंध में सामाजिक व न्यायिक विश्लेषण के लिए स्वयं को पेश किया है, उसी प्रकार पेंशन मामले के लिए भी उच्चतम न्यायालय के स्पष्ट रुख की आवश्यकता रहेगी।

सोर्स: अमर उजाला

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