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सम्पादकीय
आजादी के आंदोलन में किसान-आदिवासी : विद्रोह और बलिदान की कहानियों को नहीं भुला सकते
Rounak Dey
13 Aug 2022 1:53 AM GMT

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इस तरह देश को स्वतंत्र कराने में किसानों और आदिवासी आंदोलनों का भी काफी अहम योगदान रहा है।
आजादी की लड़ाई के बलिदानों को स्मरण करते समय हमें उन अनेक किसान व आदिवासी आंदोलनों को नहीं भूलना चाहिए, जिनमें शोषित-पीड़ित ग्रामीण जनता ने अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई व जागीरदारों-जमींदारों से मिले औपनिवेशिक शासकों का भी विरोध किया। ये आंदोलन लगभग अंग्रेज शासन की स्थापना के साथ ही शुरू हो गए थे। इन्हीं दिनों कुछ किसानों की प्रधान भूमिका वाले विरोध-गोरखपुर(1778-81), रंगपुर (बंगाल, 1783) व सुबादिया (बंगाल, 1792) में हुए।
बंगाल और बिहार में 1766-72 तक चुआड़ आदिवासी विद्रोह हुआ, जो 1795 से 1816 तक फिर हुआ। 1814-17 में अलीगढ़ के तालुकदारों ने विद्रोह किया। गुजरात के कोली लोगों ने 1824-25, 1828-39 और 1849 में विद्रोह किए। 1824 में हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों तथा कई आदिवासी विद्रोह हुए। आंध्र प्रदेश के रंपा क्षेत्र में आदिवासी मुखियाओं द्वारा 1840 और 1845 में विद्रोह हुए। 1855 में संथाल आदिवासियों का विद्रोह हुआ। किसानों की प्रमुख भूमिका वाले कुछ विद्रोह थे- बरासात (बंगाल) के टीटू मीर का विद्रोह, मैसूर की रैयत का विद्रोह व फरीदपुर (बंगाल) का विद्रोह।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम में किसानों, दस्तकारों, मजदूरों आदि ने बड़े पैमाने पर हिस्सा लिया तथा धनुष, तलवार, भाला, खंजर जो भी हथियार उन्हें मिला, उसी से उन्होंने युद्ध किया। 1859-60 में बंगाल में नील के किसानों का बड़ा आंदोलन हुआ। बिहार में दरभंगा और चंपारण में 1866-68 में नील की खेती के शोषण के विरुद्ध विद्रोह हुए। सूदखोरी और वनाधिकारों के हनन के विरुद्ध आंध्र प्रदेश के गोदावरी रांपा क्षेत्र में आदिवासियों ने 1858, 1861 और 1862 में आवाज उठाई। पुणे और अहमदनगर जिलों में वर्ष 1875 में 33 स्थानों पर साहूकारों के विरुद्ध ग्रामीणों के विद्रोह हुए।
रांची और सिंहभूमि के क्षेत्र में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में बहुचर्चित आदिवासी विद्रोह हुआ। उस विद्रोह ने रांची के अंग्रेजों में दहशत फैलाई थी, पर कुछ समय बाद उसे निर्ममता से कुचल दिया गया। बिरसा मुंडा की मृत्यु के बाद सरकार आदिवासियों के असंतोष को कम करने के लिए कुछ कानून बनाने को विवश हुई। 1893-94 में लगान बहुत बढ़ने के विरुद्ध असम के कामरूप और दरंग जिलों में किसान के आंदोलन हुए। 1896-97 में महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में किसानों की समस्याओं को लेकर आंदोलन चले।
1896 और 1900 के बीच के अकालों में 90 लाख से अधिक देशवासी मारे गए। 1910 में बस्तर व 1913 में दक्षिण आंध्र प्रदेश में आदिवासियों ने वनाधिकारों के हनन के विरुद्ध विद्रोह किए। ओडिशा के खोंड आदिवासियों का एक विद्रोह 1915 के आसपास हुआ, जिसे कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने यहां के अनेक गांवों को जला दिया था। दक्षिण राजस्थान में गोविंद गुरु के समाज सुधार प्रयासों ने 1913 में एक जन विद्रोह का रूप ले लिया। मनगढ़ के पहाड़ पर 4,000 भीलों ने अंग्रेजी फौज का डटकर सामना किया, जिसमें 12 आदिवासी मारे गए व 900 गिरफ्तार हुए।
मेवाड़ की बिजोलिया जागीर में किसानों को 86 तरह के कर देने पड़ते थे। इसके विरुद्ध एक साधु सीताराम दास के नेतृत्व में एक विद्रोह हुआ। इस बीच दक्षिण अफ्रीका से लौटकर महात्मा गांधी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हो गए थे। 1917 में वह चंपारण गए, जहां के किसानों के आंदोलन के फलस्वरूप सरकार उनकी समस्याओं को कम करने के लिए बाध्य हुई। अगले वर्ष गुजरात के खेड़ा जिले में फसल खराब होने के बावजूद लगान वसूले जाने पर गांधी के नेतृत्व में हुए प्रयासों से लगान में छूट मिली।
अलवर के नीमूचाणा में 50 फीसदी लगान वृद्धि का विरोध कर रहे किसानों पर गोली चलाई गई, जिसमें बहुत से लोग मारे गए। 1928 में बारदोली में सरदार पटेल के नेतृत्व में किसानों ने कर न देने का आंदोलन चलाया। 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा के नाम का पहला राष्ट्रीय स्तर का किसान संगठन बना। उसके बाद आजादी मिलने तक अनेक स्थानों पर आदिवासी व किसान आंदोलनकारी सक्रिय रहे। इस तरह देश को स्वतंत्र कराने में किसानों और आदिवासी आंदोलनों का भी काफी अहम योगदान रहा है।
सोर्स: अमर उजाला

Rounak Dey
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