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सरकार द्वारा गेहूं निर्यात रोकने का फैसला किसानों की आमदनी पर विपरीत प्रभाव डालने वाला है
अभय कुमार दुबे
सरकार द्वारा गेहूं निर्यात रोकने का फैसला किसानों की आमदनी पर विपरीत प्रभाव डालने वाला है। सरकार का तर्क है कि उसका काम महंगाई रोकना है। इसके लिए उसे गेहूं जैसे बुनियादी खाद्यान्न के दाम एक सीमा से बढ़ने नहीं देने हैं। इस पर किसानों की प्रतिक्रिया यह हो सकती है कि मुद्रास्फीति कोई उनके द्वरा बढ़ाई गई परिघटना तो है नहीं। अगर गेहूं का निर्यात जारी रहता तो बाजार में उन्हें इस बुनियादी अनाज के बेहतर दाम मिल सकते थे। लेकिन सरकार के फैसले के प्रभाव में गेहूं फौरन नरम पड़ने लगा। इससे पहले एक अर्थशास्त्री ने टिप्पणी कर दी थी कि इस मुद्रास्फीति का लाभ किसानों को मिलने देना चाहिए। लेकिन सरकार ऐसा करने पर तैयार नहीं हुई। इसके कुछ और भी कारण हो सकते हैं। केंद्र सरकार और कुछ राज्य सरकारें भी मुफ्त अनाज वितरण योजना चला रही हैं। अगर निर्यात और मुद्रास्फीति के मिले-जुले प्रभाव में यह अनाज महंगा हुआ तो सरकार को मुफ्त अनाज वितरण पर और भी ज्यादा संसाधन खर्च करने पड़ सकते हैं।
किसान नेता राकेश टिकैत ने ऐलान किया है कि एक नए किसान आंदोलन की तैयारी चल रही है। गर्मी और फिर बरसात भी खत्म हो जाने दीजिए, इसके बाद एक बार फिर लंबा किसान आंदोलन किया जाएगा। मेरी मान्यता है कि इस समय देश में जिस स्तर की महंगाई है, वह एक बड़े और प्रभावी जनांदोलन के लिए उर्वर जमीन मुहैया करा सकती है। यह महंगाई एक-दो महीने या छह-सात महीने में नहीं जाने वाली। दूसरे, मुद्रास्फीति (साढ़े सात फीसदी से अधिक) में हुई यह बढ़ोत्तरी एकांगी नहीं है। यानी, यह केवल तेल के दाम बढ़ने या किसी एक या दो जिंसों के दाम बढ़ने या मौसम की गड़बड़ियों का नतीजा नहीं है। इसका किरदार वैश्विक है। विभिन्न देशों में यह विभिन्न कारणों से आई है। मसलन, अमेरिका में सात फीसदी से ज्यादा की मुद्रास्फीति के पीछे वहां की बढ़ी हुई मांग है। यूरोजोन के जो देश हैं, वहां यूक्रेन युद्ध के कारण पैदा हुआ तेल का संकट है। लेकिन भारत में यह किसी एक कारण से न हो कर 'ब्रॉड बेस्ड' यानी व्यापक किस्म की और बहु-क्षेत्रीय है। दूसरे, यह लंबे अरसे तक टिकेगी। भारतीय अर्थव्यवस्था आने वाले समय में इस महंगाई से प्रभावित होती रहेगी। यह समझना आसान है कि इसका राजनीतिक परिणाम जनअसंतोष की बढ़ोत्तरी में निकलेगा।
बाजार में जब जरूरी चीजों के दाम बढ़ते हैं तो उसका असर लोगों की आमदनी के हिसाब से पड़ता है। जिसकी जेब में जितने ज्यादा रुपए होते हैं, वह उससे उतना ही कम प्रभावित होता है। जो बेरोजगार है उसके लिए महंगाई एक आसमानी कहर से कम नहीं होती। गरीबों की नाराजगी थामने के लिए सरकार को उसे फौरी राहत का बंदोबस्त करना पड़ता है। इसमें बड़े पैमाने पर संसाधन खर्च होते हैं, और अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर बढ़ता जाता है। यह एक ऐसा दुष्चक्र है जिसमें कोई सरकार नहीं फंसना चाहती। राकेश टिकैत की घोषणा से जो संभावित नजारा बनता है, वह सरकार को परेशान कर देने वाला है। उसके लिए यह समझना आसान है कि अगर किसानों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए आंदोलन शुरू कर दिया और वैसी ही नाकेबंदी फिर से होने लगी जैसी तेरह महीने तक होती रही थी, तो इस बार यह आंदोलनकारी गतिविधि केवल किसानों तक ही सीमित नहीं रहेगी। इस नए सिरे से चले किसान आंदोलन के साथ महंगाई के कारण लगातार नाराज होते जा रहे निम्न वर्ग, निम्न-मध्यवर्ग और मध्यवर्ग के लोग भी जुड़ सकते हैं। बेरोजगारी घटने के बजाय लगातार बढ़ती जा रही है। अगर बेरोजगारों का कोई आंदोलन बना और किसान आंदोलन से उसका समन्वय स्थापित हो गया तो विरोध की जबर्दस्त राजनीतिक ताकत बनेगी। राकेश टिकैत की घोषणा कुछ इसी से मिलती-जुलती बात कहती है। उन्होंने साफ तौर से कहा कि इस बार किसान आंदोलन बेरोजगारों के आंदोलन को भी अपनी ओर खींचेगा। टिकैत उम्मीद कर रहे हैं कि इस बार उनका आंदोलन दो साथ-साथ चल रही गतिशीलताओं के हिसाब से विकसित होगा। एक तरफ जाट खापों और सिख समुदाय की टिकाऊ शक्ति के आधार पर आंदोलन अपनी दीर्घजीविता प्राप्त करेगा, और दूसरी तरफ बेरोजगार छात्र-नौजवानों का समर्थन मिलने से समाज के गैर-किसान तबके से उसके संबंध प्रगाढ़ होंगे। यानी, वह पहले के मुकाबले अधिक प्रभावी होगा।
Rani Sahu
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