सम्पादकीय

किसान आंदोलन पटाक्षेप!

Gulabi
9 Dec 2021 5:45 AM GMT
किसान आंदोलन पटाक्षेप!
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भारत सरकार और आंदोलित किसानों के बीच गतिरोध टूटने के आसार है
दिव्याहिमाचल। भारत सरकार और आंदोलित किसानों के बीच गतिरोध टूटने के आसार हैं। करीब 11 माह के बाद सरकार ने एक लिखित प्रस्ताव किसानों को भेजा है, जिसमें सभी मांगों पर सैद्धांतिक सहमति है। सरकार का प्रस्ताव सकारात्मक है, तो किसान आंदोलन पर भी वैसी ही सोच होनी चाहिए। पंजाब के अधिकतर किसान अब आंदोलन खत्म करने के पक्ष में हैं। कुछ किसान नेताओं ने इस संदर्भ में बयान भी दिए हैं, लेकिन टिकैत जैसे किसान नेता आंदोलन को जारी रखने के पक्षधर हैं। संयुक्त किसान मोर्चा की अभी कुछ आशंकाएं हैं और आग्रह भी हैं।
सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) गारंटी कानून पर विमर्श के लिए कमेटी बनाने की पेशकश की है। उसमें केंद्र और राज्य सरकारों के प्रतिनिधि, कृषि विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री तथा किसान संगठनों के प्रतिनिधि शामिल होंगे। मोर्चे को इस व्यवस्था में कोई बुनियादी आपत्ति नहीं है, लेकिन उसकी जिद्दी शर्त है कि कमेटी में मोर्चे के ही प्रतिनिधि हों। एमएसपी-विरोधी, विश्व व्यापार संगठन की नीतियों के पैरोकार और रद्द किए गए तीनों कानूनों के समर्थक कथित किसान संगठन कमेटी का हिस्सा नहीं होने चाहिए। इसके अलावा, किसानों के खिलाफ आम आपराधिक केस या ईडी, आयकर, सीबीआई, पुलिस और एनआईए आदि के तहत दर्ज सभी मामलों को वापस लेने की घोषणा सरकार करे, उसके बाद ही आंदोलन उठाया जाएगा। आंदोलित मोर्चा मृत किसानों के परिजनों के लिए 5 लाख रुपए मुआवजे और एक पारिवारिक सदस्य को सरकारी नौकरी देने की घोषणा पर भी अड़ा है।
सरकार समय-सीमा भी स्पष्ट करे। किसान नेताओं की शर्त है कि 26 जनवरी वाले हिंसक कांड के संदर्भ में भी सभी आपराधिक मुकदमे वापस लिए जाएं। केस वापसी के मद्देनजर किसान नेताओं का साफ कहना है कि उनके बिना आंदोलन समाप्त करने का सवाल ही नहीं उठता। किसानों का पिछला अनुभव रहा है कि आंदोलन वापस ले लिए जाते हैं, किसानों को मुआवजा भी मिल जाता है, लेकिन विभिन्न राज्यों के पुलिस थानों में दर्ज और अदालतों में लंबित केस लंबे समय तक जारी रहते हैं, नतीजतन किसानों को परेशान होकर धक्के खाने पड़ते हैं। गौरतलब है कि अब किसान नेताओं ने भारत सरकार के साथ यह जिद छोड़ दी है कि पहले एमएसपी कानून बनाओ, उसके बाद आंदोलन खत्म किया जाएगा। अब किसान कमेटी के प्रस्ताव पर ही संतुष्ट हैं। बेशक सरकार बिजली संशोधन बिल और पराली संबंधी कानून पर किसानों को आश्वस्त कर रही है, लेकिन हकीकत यह है कि बिजली बिल संसद सत्र में सूचीबद्ध है और पराली कानून की आपराधिक धाराएं भी यथावत हैं। किसान उन पर भी स्पष्टीकरण मांग रहे हैं। किसान आंदोलन के पटाक्षेप में यही शर्तें पेंच की तरह फंसी हैं।
अलबत्ता औसत किसान अब घर लौटना चाहता है। बेशक सरकार सैद्धांतिक तौर पर मृत किसानों के परिवारों को मुआवजा देने को तैयार है, लेकिन इसे 'शहादत नाम न दिया जाए। सरहदों पर जो सैनिक देश के लिए कुर्बानी देकर अपनी जान गंवा देते हैं, वे ही कानून और संविधान की स्थापित परिभाषा में 'शहीद हैं। यहां तक कि सीआरपीएफ, बीएसएफ सरीखे अद्र्धसैन्य बलों के जो जवान किसी ऑपरेशन में प्राणों की आहुति देते हैं, कानूनन वे 'शहीद नहीं हैं और न ही उस वर्ग का मुआवजा उनके परिवारों को दिया जाता है। यकीनन सरकार आर्थिक मदद जरूर करती है। करीब 4 लाख किसान आत्महत्याएं भी कर चुके हैं और यह सिलसिला कई राज्यों में अब भी जारी है, लेकिन किसान आंदोलन ने उन्हें कभी भी 'शहीद नहीं माना। अब यही देशहित में है कि किसान आंदोलन खत्म हो।
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