सम्पादकीय

समानता और समावेशी विकास के रास्ते

Subhi
15 Feb 2023 5:15 AM GMT
समानता और समावेशी विकास के रास्ते
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अखिलेश आर्येंदु: कांग्रेस ने अपने लंबे शासनकाल में गैरबराबरी बढ़ाने वाले कार्य किए। नतीजतन, गांवों से शहर की ओर पलायन हुआ और शहर सुरसा की तरह बढ़ते गए। तमाम महानगरों के आसपास नए उपनगर उगते जा रहे हैं। इन शहरों में एक-डेढ़ दशकों में ही नए धनपतियों का उदय हुआ जो देखते-देखते भारत के सौ प्रमुख धनपतियों में शामिल हो गए। लेकिन सरकारों ने कभी यह समझने की कोशिश नहीं की कि कुछ वर्षों में ही इनके पास इतनी संपत्ति कहां से इकट्ठा हो गई!

केंद्र के नए बजट को आमतौर पर किसानों, महिलाओं, बुजुर्गों और युवाओं के लिए कई नजरिए से बेहतर कहा जा रहा है। माना जा रहा है कृषि नवाचार यानी स्टार्टअप को बढ़ावा देने के लिए जो कदम उठाए गए हैं, वे मील के पत्थर साबित होंगे। बजट में बीस लाख करोड़ से 'एग्रीकल्चर एक्सीलेटर फंड' यानी कृषि त्वरक कोष बनाने की घोषणा के साथ बेहतर तकनीक मुहैया कराने और भूमि रिकार्ड के डिजिटलीकरण और खेती में नवाचार को बढ़ावा देने के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं। कृषि ऋण में ग्यारह फीसद का इजाफा करते हुए इसे बीस लाख करोड़ किया गया है।

मुर्गी पालन, सुअर पालन, मछली पालन के लिए छह हजार करोड़ रुपए के लक्षित निवेश के साथ शुरू करने की बात भी कही गई है। वहीं महिला किसानों के लिए चौवन हजार करोड़ रुपए का प्रावधान भी किया गया है, तो सैंतालीस लाख युवाओं को तीन साल तक भत्ता देने की बात भी की गई है। वरिष्ठ नागरिक बचत योजना की सीमा बढ़ाकर तीस लाख रुपए किया गया है।

यानी इस बजट के जरिए समाज के हर वर्ग को साधने और खुश करने की कोशिश की गई है। सवाल यह है कि क्या वाकई समाज के हर वर्ग की बेहतरी के लिए बजट बढ़ा है या यह आंकड़ों की जादूगरी है, जैसा कि विपक्षी पार्टियां कह रही हैं। केंद्र और राज्य सरकारें विकास की जिस रफ्तार की बात करती हैं, क्या वाकई विकास की यही हकीकत है या आंकड़े और हकीकत में अंतर है?

दरअसल, केंद्र सरकार जिस हकीकत को संसद के सदनों में और जनता के सामने बयां करती है, वे सरकारी आंकड़े हैं। रिजर्व बैंक की 31 अक्तूबर 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक हमारे देश में उस वक्त तक कुल कर्ज 128 लाख करोड़ रुपए था जो 31 मार्च 2022 को जारी दूसरी रिपोर्ट में बढ़कर 133 लाख करोड़ हो गया। यानी महज तीन महीने में देश पर पांच लाख करोड़ का कर्र्ज और बढ़ गया।

अब हालत यह है कि देश पर 142 लाख करोड़ का कर्ज हो गया है। रुपए के मुकाबले बढ़ते डालर के दाम से कर्ज का यह बोझ लगातार बढ़ रहा है। गौरतलब है पूंजीपतियों के लाखों करोड़ रुपए के कर्ज बट्टे-खाते में डाल दिए गए। अर्थव्यवस्था की मजबूती की बात इस बढ़ते कर्ज की वजह से हकीकत से बहुत दूर है। इससे गैरबराबरी में इजाफा हुआ है। मुल्क में जहां अमीरों की तादाद तेजी से बढ़ी है, वहीं गरीब भी बड़ी संख्या में बढ़े हैं।

सवाल यह है कि वैश्वीकरण के बाद शहरीकरण की बढ़ती रफ्तार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अर्थव्यवस्था में बढ़ते एकाधिकार को रोकने के लिए केंद्र सरकार ने क्या कोई कदम उठाए हैं? आजादी के बाद से ही केंद्र और राज्य सरकारें ऐसा कदम नहीं उठाती आई हैं, जिससे किसान-मजदूरों की बदहाली में आमूलचूल बदलाव आए। अब केंद्र सरकार ने साफ कर दिया है कि वह पुराने ढर्रे को छोड़ कुछ नया करने जा रही है।

इसमें कृषि को अधिक उदारवादी नीति के अंतर्गत लाना शामिल है। लेकिन जिस उदारवादी नीति पर केंद्र सरकार चल रही है, उससे किसानों और मजदूरों का न शोषण रुका है और न उनकी आत्महत्याएं। आशंका इस बात की जताई जाती है कि आने वाले वक्त में खेती भी कहीं धनपतियों के अधिकार क्षेत्र में न आ जाए और किसान अपनी जमीन का नाममात्र का मालिक बन कर रह जाए।

भारतीय शहरों में पश्चिमी देशों की तरह के बड़े-बड़े व्यावसायिक परिसर, मल्टीप्लेक्स, पांचसितारा होटल और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ऊंची इमारतें देश की किस तरह की तस्वीर पेश कर रहे हैं, बताने की जरूरत नहीं है। यह आश्वासन दिया जा रहा है कि देश को बहुराष्ट्रीय कंपनियों से डरने की जरूरत नहीं है, क्योंकि भारतीय कंपनियों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खरीदकर खुद ही बहुराष्ट्रीय कंपनियां बन गई हैं।

विश्व के धनपतियों की सूची में भारतीय मूल के उद्योगपति भी काफी ऊपर हैं। सतह पर दिखाई जाने वाली तस्वीर से लगता ही नहीं कि देश में अब भी करोड़ों की तादाद में बेराजगार, भुखमरी के शिकार गरीब, कर्जदार किसान, मजलूम और जरूरी मेडिकल मदद के अभाव में दम तोड़ते गरीब भारतीय भी हैं। जो तस्वीर सार्वजनिक रूप से पेश की जा रही हैं, उससे लगता है कि वे दिन दूर नहीं, जब देश का हर आदमी खुशहाल और साधन संपन्न होगा और रोजमर्रा की तमाम बदहाल करने वाली समस्याओं से पार पा चुका होगा। इस तस्वीर की उम्मीद किसी को भी होगी।

'क्रेडिट सुइस ग्रूप एजी' के मुताबिक देश की आधी आबादी के पास महज 2.1 फीसद संपत्ति है। आंकड़े के मुताबिक 2010 में देश के एक फीसद लोगों की संपत्ति चालीस फीसद थी जो 2016 में बढ़कर 58.4 फीसद हो गई। इसी तरह 2010 में 10 फीसद लोगों के पास देश की 68.8 फीसदी संपत्ति थी, लेकिन 2016 में बढ़कर 80.7 फीसदी संपत्ति पर उनका कब्जा हो गया।

इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि पिछले चार वर्षों में गरीबों की अतिरिक्त दस फीसद संपत्ति छिन गई। इसे छीनने का काम देश-दुनिया के शीर्ष धन्नासेठों की कंपनियों ने किया और बड़ी होशियारी से इसका नाम 'विकास के नए आयाम' देकर लोगों को ठगा गया। भारत के महज एक फीसद लोगों के पास ही सबसे अधिक संपत्ति है। यहां दुनिया के करोड़पतियों में से पांच फीसद करोड़पति और दो फीसद अरबपति रहते हैं।

इसी तरह मुंबई में सबसे अधिक 1,340 धनपति रहते हैं। 'नाइट फ्रैंक वेल्थ' की रपट के मुताबिक अगर यही रफ्तार जारी रही तो महज दो वर्षों में दस हजार से अधिक नए धनपति इस कतार में जुड़ जाएंगे। जाहिर है, जैसे-जैसे गैरबराबरी बढ़ रही है, वैसे-वैसे गरीबों और अमीरों की तादाद बढ़ती जा रही है।

अगर इस स्थिति में बदलाव नहीं हुआ तो आने वाले दस वर्षों में भारत में अति धनाढ्यों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक हो जा सकती है। इसी तरह, भारत में दुनिया के सबसे अधिक गरीबों, बीमारों और असहायों की संख्या भी सबसे अधिक होगी। भारत के नए मेट्रो शहरों के निर्माण का जो खाका तैयार किया गया, उससे गांवों से पलायन और गैरबराबरी बढ़ने का खतरा बढ़ गया है।

दरअसल, केंद्र सरकार ने विकास के नाम पर जितनी भी योजनाएं बनाई हैं, वे पूर्व सरकारों के नक्शेकदम पर ही हैं। कांग्रेस ने अपने लंबे शासनकाल में गैरबराबरी बढ़ाने वाले कार्य किए। नतीजतन, गांवों से शहर की ओर पलायन हुआ और शहर सुरसा की तरह बढ़ते गए। तमाम महानगरों के आसपास नए उपनगर उगते जा रहे हैं। इन शहरों में एक-डेढ़ दशकों में नए धनपतियों का उदय हुआ जो देखते-देखते भारत के सौ प्रमुख धनपतियों में शामिल हो गए।

लेकिन सरकारों ने कभी यह समझने की कोशिश नहीं की कि कुछ वर्षों में ही इनके पास इतनी संपत्ति कहां से इकट्ठा हो गई! ये सभी धनपति उन शहरों में अपना दायरा फैलाए हुए हैं, जहां उन्हें केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से हर तरह का व्यापार करने के लिए सुरक्षित गलियारा या क्षेत्र मुहैया कराने का यकीन दिलाया जा रहा है। इसलिए नए बन रहे मेट्रो शहरों में रोजगार पाने के नाम पर गांवों से पलायन अधिक तेजी के साथ बढ़ रहा है।

अच्छा तो यह होता कि केंद्र और राज्य सरकारें मेट्रो शहर बसाने की जगह मेट्रो गांवों के निर्माण की योजना बनातीं और गांवों से शहरों की ओर बढ़ रहे पलायन पर रोक लगातीं। लेकिन फिलहाल ऐसा कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा है। केंद्र सरकार और राज्य सरकारें गैरबराबरी में इजाफे के मद्देनजर नए मेट्रो शहरों के निर्माण की जगह अगर गांवों को वे सभी सुविधाएं प्रदान करने का कार्य करतीं जो मेट्रो शहरों में देने की कही जा रही हैं तो विकास का रास्ता गांवों से होकर निकलता, जैसा कि देश के तमाम राष्ट्रनायक चाहते थे।




क्रेडिट : jansatta.com

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