सम्पादकीय

आंदोलन की राह

Subhi
28 Jun 2021 3:23 AM GMT
आंदोलन की राह
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नए कृषि कानूनों के विरोध में किसानों को आंदोलन करते सात महीने हो गए। सरकार ने कई दौर की बातचीत की, मसले को सुलझाने का प्रयास किया, पर किसान अपनी मांगों पर अड़े रहे।

नए कृषि कानूनों के विरोध में किसानों को आंदोलन करते सात महीने हो गए। सरकार ने कई दौर की बातचीत की, मसले को सुलझाने का प्रयास किया, पर किसान अपनी मांगों पर अड़े रहे। प्रशासन ने उन पर बंदिशें लगाने की कोशिश की, ताकि यह आंदोलन कमजोर पड़ जाए, किसान अपने घर लौट जाएं, मगर वे डटे रहे। हाड़ कंपाती ठंड, ऊपर से भारी बरसात और फिर लू के थपेड़े भी उनका हौसला नहीं तोड़ पाए। अब सात महीने पूरे होने पर संयुक्त किसान मोर्चा ने एक बार फिर अपना दम दिखाया और दिल्ली-उत्तर प्रदेश की गाजीपुर सीमा पर भारी संख्या में किसान ट्रैक्टर लेकर पहुंच गए। पूरे देश में राजभवन के घेराव का प्रयास किया गया। किसान मोर्चा ने ऐलान किया है कि अब वह हर महीने की छब्बीस तारीख को इसी तरह ट्रैक्टर रैली निकालेगा। उधर केंद्रीय कृषि मंत्री ने फिर दोहराया है कि सरकार किसानों से बातचीत के लिए तैयार है, वह किसानों की तरफ से आने वाले प्रस्ताव का इंतजार कर रही है। फिर उन्होंने यह भी साफ किया कि सरकार कानून किसी भी रूप में वापस नहीं लेगी, उनसे संबंधित किसानों के एतराज पर जरूर विचार कर सकती है।

यानी सरकार यह तो दिखाना चाहती है कि वह बातचीत के पक्ष में है, मगर किसानों की मांग पर विचार करने को तैयार नहीं है। इस तरह तो बातचीत कभी संभव नहीं होगी। सरकार और किसानों के बीच जो आखिरी बातचीत हुई थी, उसमें सरकार ने कुछ तल्ख अंदाज में कह दिया था कि कानून वापस लेने का कोई सवाल ही नहीं उठता और फिर बातचीत एकदम से खत्म कर दी गई थी। किसी भी मुद्दे पर बातचीत एकतरफा शर्तों पर कभी संभव नहीं होती। सरकार का रुख शुरू से कड़ा ही नजर आया है, तो किसान भी किसी तरह झुकने को तैयार नहीं हैं। ऐसे आंदोलनों में सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह या तो कुछ झुक कर मांगों को मान ले या फिर अपने पक्ष में आंदोलनकारियों को संतुष्ट करे। अगर सचमुच तीनों नए कृषि कानूनों से किसानों को लाभ मिलने वाला है और खेती-किसानी की दशा सुधरने वाली है, तो सरकार को पूरे तर्क के साथ इन्हें लेकर किसानों में फैले भ्रमों का निवारण करने का प्रयास करना चाहिए। मगर सरकार ने ऐसा न करके अनेक मौकों पर आंदोलन में फूट डालने और दमन के जरिए उसे दबाने का प्रयास ही अधिक करती दिखी।

सरकार के रुख को देखते हुए स्वाभाविक ही सवाल उठते रहे हैं कि आखिर वह इसे लेकर इस तरह जिद पर क्यों अड़ी हुई है। जबकि गैरभाजपा शासित राज्यों की सरकारों ने साफ कर दिया है कि वे अपने यहां इन कानूनों को नहीं लागू करेंगी। तमाम विपक्षी दल भी इन कानूनों के विरोध में संसद में बोल चुके हैं। पर सरकार ने जैसे इन कानूनों को अपनी मूंछ का सवाल बना लिया है। उसके अड़ियलपन का नतीजा यह है कि किसान तमाम भाजपा शासित राज्यों में सरकारों को चुनौती दे रहे हैं। विधानसभा चुनावों में पहुंच कर मतदाताओं को भाजपा के विरोध में मतदान करने का आह्वान कर रहे हैं। संयुक्त किसान मोर्चा तो यहां तक ऐलान कर चुका है कि किसान अगले आम चुनाव तक इसी तरह प्रदर्शन करते रहेंगे। सरकार को अब इस आंदोलन को गंभीरता से लेने और किसानों के साथ साफ मन से बैठ कर बातचीत करने की जरूरत है।


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