सम्पादकीय

अतीत के अनुभव बताते हैं श्रेष्ठ प्रशिक्षक कभी भी अच्छे खिलाड़ी साबित नहीं हुए

Gulabi Jagat
7 May 2022 5:58 AM GMT
अतीत के अनुभव बताते हैं श्रेष्ठ प्रशिक्षक कभी भी अच्छे खिलाड़ी साबित नहीं हुए
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ओपिनियन
संजय कुमार का कॉलम:
मैं इस लेख की शुरुआत एक स्पष्टीकरण से करना चाहता हूं- यह प्रशांत किशोर या पीके के विरुद्ध नहीं है। यह लेख केवल इतना ही बताता है कि पीके ने जिस राजनीतिक यात्रा की शुरुआत का संकेत दिया है, वह मेरे मतानुसार क्यों उनके लिए मुश्किल साबित हो सकती है। एक राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में उनकी काबिलियत पर कोई शक नहीं कर सकता। उन्होंने जितने राजनीतिक दलों की चुनाव जीतने में मदद की है, उनकी लम्बी सूची अपने आप में पर्याप्त है।
लेकिन उन पर यह लेख लिखने का कारण यह है कि उन्होंने अब जाकर साफ किया है कि वे किसी राजनीतिक दल में शामिल होकर सक्रिय राजनीति में अपने कॅरियर की शुरुआत नहीं करेंगे, बल्कि बिहार में स्वयं की एक पार्टी बनाएंगे। ऐसे में सवाल उठता है कि जिस व्यक्ति ने इतने नेताओं को चुनाव जिताया, क्या वह खुद चुनाव जीत सकेगा? क्या वे अपनी पार्टी को सफलतापूर्वक स्थापित भी कर सकेंगे? मैं यहां पर तीन कारण गिनाना चाहता हूं, जिनके चलते मुझे लगता है कि पीके के सामने एक मुश्किल डगर है।
पहला यह कि अतीत के अनुभव बताते हैं श्रेष्ठ प्रशिक्षक कभी अच्छे खिलाड़ी साबित नहीं हुए हैं। ये दोनों भूमिकाएं भिन्न हैं और इनके लिए भिन्न प्रतिभाएं चाहिए। हर सफल खिलाड़ी के पीछे एक सफल कोच होता है, लेकिन क्या कोई सफल कोच सफल खिलाड़ी बन पाया है? या क्या सफल खिलाड़ी सफल कोच भी साबित हो सके हैं? हर क्षेत्र में इसके उदाहरण मिलेंगे, लेकिन अगर क्रिकेट का उदाहरण लें तो आप पाएंगे कि सफल खिलाड़ी अपने ही बच्चों को प्रशिक्षित करके सफल नहीं बना सके हैं।
अतीत में विभिन्न क्षेत्रों के अनेक सफल व्यक्तियों ने राजनीति में हाथ आजमाया है- विशेषकर सिनेमा की दुनिया से। कुछ सफल हुए, कुछ विफल रहे, लेकिन उनकी एक पहचान हमेशा कायम रही। पीके भी जाना-पहचाना नाम हैं, लेकिन केवल अपनी फील्ड में। आमजन के बीच उनका चेहरा नहीं पहचाना जाता है, जो कि राजनीति में सफल होने के लिए अत्यावश्यक है।
ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें दूसरे क्षेत्रों के सफल व्यक्ति राजनीति में कोई मुकाम नहीं बना सके। चुनाव-विश्लेषक योगेंद्र यादव का ही उदाहरण ले लें। 2014 के लोकसभा चुनावों में गुरुग्राम में उनकी जमानत जब्त हो गई थी। प्रसिद्ध पत्रकार आशुतोष को चांदनी चौक लोकसभा सीट पर करारी हार का सामना करना पड़ा था। भारत के सबसे चर्चित चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन भी 1999 में गांधीनगर से लोकसभा चुनाव हार गए थे।
एक्टिविस्ट मेधा पाटकर और इरोम शर्मिला ने भी हार सही है। दूसरा कारण यह है कि आज भाजपा अत्यंत ताकतवर है। किसी भी नए राजनीतिक संगठन के लिए उसके वर्चस्व को चुनौती देना कठिन है। ये सच है कि अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी की स्थापना करके दिल्ली और पंजाब में सरकारें बनाई हैं, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि उन्हें एक अत्यंत लोकप्रिय जनांदोलन का चर्चित चेहरा होने का लाभ मिला था। उन्होंने अपनी पार्टी एक ऐसे समय स्थापित की थी, जब आमजन में यूपीए सरकार के प्रति गहरा आक्रोश था।
पीके के पास किसी चर्चित आंदोलन का चेहरा होने का एडवांटेज नहीं है, न ही आज केंद्र सरकार जनता में अलोकप्रिय है। वास्तव में बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के बावजूद आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अपने चरम पर है। प्रशांत किशोर ने बिहार से राजनीतिक पारी की शुरुआत के संकेत दिए हैं। लेकिन इस राज्य की राजनीति दो दलों के बीच की लड़ाई बन चुकी है और जीत-हार का निर्णय ओबीसी वोटों की लामबंदी से होता है।
बीते एक दशक में बिहार के दो राजनीतिक गठबंधनों ने 75 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल किए हैं। पीके इसमें कैसे सेंध लगा सकेंगे? वे स्वयं सवर्ण हैं, यह तथ्य भी बिहार में एक जननेता बनने में उनके लिए अड़चन पैदा कर सकता है। शायद लालू यादव और रामविलास पासवान के दृश्य से हट जाने के बाद उन्हें लग रहा हो कि बिहार में राजनीतिक निर्वात बन गया है और अब नीतीश भी लम्बी पारी नहीं खेलेंगे।
वे इस अवसर को भुना लेना चाहते हैं। लेकिन तेजस्वी यादव पहले ही एक नेता के रूप में उभर चुके हैं। 2020 में उन्होंने भाजपा-जदयू गठजोड़ को जैसी टक्कर दी, वह इसका सबूत है। अगर पीके नई पार्टी गठित कर युवा वोटरों को लुभाना चाहते हैं तो तेजस्वी यादव के बिना यह भी मुश्किल ही साबित होगा।
शायद लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान के दृश्य से हट जाने के बाद पीके को लग रहा हो कि बिहार में राजनीतिक निर्वात बन गया है। पर तेजस्वी यादव लोकप्रिय नेता के रूप में उभर चुके हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Gulabi Jagat

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