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वह कौसानी की सुबह थी। आंख खुली, तो पाया कि सूरज ने ऊपर का सफर तय करना शुरू कर दिया है
शशि शेखर
वह कौसानी की सुबह थी। आंख खुली, तो पाया कि सूरज ने ऊपर का सफर तय करना शुरू कर दिया है। झटपट तैयार हो लंबी सैर पर निकल पड़ा। फिजां में अजब विरोधाभास था। एक तरफ घनी हरियाली से छनकर आती ठंडी साफ हवा अमरत्व का संदेश दे रही थी, तो दूसरी तरफ सामने की पहाड़ी के जंगल सुलग रहे थे। उधर से आने वाली कार्बन डाई-ऑक्साइड साफ हवा के असर को खत्म करने पर आमादा थी।
कौसानी के लिए रवाना होने से पहले सोचा था कि वहां पहुंचते ही प्राणायाम करूंगा। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की प्रदूषित हवा ने हम सबके फेफड़ों पर प्रतिकूल असर डाला है। शिकागो विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट का दावा है कि अगर उत्तर भारत में प्रदूषित हवा को यूं ही पनपने दिया गया, तो इस विशाल भूभाग के निवासी अपने जीवन के साढ़े सात साल कम कर बैठेंगे। दिल्ली और आसपास के इलाकों का हाल और बेहाल है। ऐसे में, कौसानी से साफ हवा की उम्मीद पालना बेमानी कहां था? हालांकि, उस सुबह लगा कि यहां न आते, तो अच्छा रहता। कुछ और नहीं, तो एक सुहाना भरम तो बना रहता। पिछली शाम जंगल से उठते धुएं ने डराया था, तो रात वहां से उठती लपटों के कारण उनींदी बीती थी।
हिमालय की गोद में बसा यह कस्बा पहले ऐसा नहीं था। बड़े-बड़ों को इस जागृत पहाड़ी धरती ने सार्थक संदेश दिए। खुद राष्ट्रपिता इस सूची में शीर्ष पर हैं। आंध्र प्रदेश से अस्वस्थ लौटे बापू जून, 1929 में यहीं आए थे। कौसानी के उजले सवेरों का उन पर ऐसा असर हुआ कि महज दो हफ्ते के प्रवास में उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता पर अपनी मशहूर पुस्तक अनासक्ति योग रच डाली थी। गांधीजी जहां ठहरे थे, उससे कुछ हटकर महाकवि सुमित्रानंदन पंत की स्मृति में बना संग्रहालय- 'सुमित्रानंदन पंत गैलरी' -है। पंत जी यहीं के रहने वाले थे। जिन्होंने उन्हें पढ़ा, देखा और सुना है, वे कह सकते हैं कि उनके व्यक्तित्व की सुकुमारता इसी आबोहवा ने रची थी। मोहनदास करमचंद गांधी और सुमित्रानंदन पंत जैसे नायकों को कौसानी ने इतना कुछ दिया, पर खुद इसका क्या हाल बन गया है? ऐसा लगता है कि न केवल कौसानी, बल्कि समूचा हिमालय हमसे हमारे लिए ही खुद को बचाने की गुहार लगा रहा है।
जंगल की जानलेवा आग की घटनाएं कश्मीर से कन्याकुमारी तक लगातार बढ़ रही हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण के मुताबिक, गए मार्च के आखिरी हफ्ते में ही वनों में आग लगने की 1,141 बड़ी घटनाएं दर्ज की गईं। सर्वे के मुताबिक, हमारे देश के 22 प्रतिशत वनक्षेत्र आग के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं।
इसी साल फरवरी में 'यूनाइटेड नेशन्स एनवायर्नमेंट प्रोग्राम' (यूएनईपी) ने एक हाहाकारी रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि 'ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर अंकुश लगाने की महत्वाकांक्षी कोशिशों के बावजूद धरती पर भीषण आगजनी की घटनाओं में नाटकीय ढंग से बढ़ोतरी दर्ज होगी। यानी इस सदी के अंत तक ऑस्ट्रेलिया के 'ब्लैक समर' जैसी दावाग्नि की संख्या में 31 से 57 फीसदी बढ़ोतरी की आशंका है।'
जंगल की इस ज्वाला से संसार का कोई महाद्वीप अछूता नहीं बचा है। इसी साल ब्राजील में अमेजन के जंगलों में सुलगते शोलों ने समूची दुनिया को डरा दिया था। यह वनक्षेत्र धरती की कुल ऑक्सीजन का 20 फीसदी अकेला उत्सर्जित करता है। दावानल हमारी प्राणवायु का यह महत्वपूर्ण भंडार कितना लील गया, इस पर शोध जारी है।
साल-दर-साल के अग्निकांडों और तमाम अन्य कारणों से हमारी धरती लगातार गरम हो रही है। इसका सीधा असर ग्लेशियरों पर पड़ रहा है। इंग्लैंड स्थित लीड्स यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि धरती के तमाम ग्लेशियर अपना 40 फीसदी हिस्सा गंवा चुके हैं। देहरादून के 'वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जिओलॉजी' के वैज्ञानिकों ने भी कई बार गंगोत्री को लेकर बताया है कि यह ग्लेशियर 15 से 20 सेंटीमीटर हर साल पिघल रहा है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने मार्च में राज्यसभा में इस तथ्य की ताकीद करते हुए कहा था कि गंगोत्री ग्लेशियर 15 वर्षों में लगभग 0.23 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र खो चुका है। उन्होंने गंगोत्री ग्लेशियर पर ब्लैक कार्बन के प्रभावों से भी इनकार नहीं किया था।
क्या है ब्लैक कार्बन?
वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान, देहरादून के वैज्ञानिक डॉक्टर पीएस नेगी कहते हैं कि ब्लैक कार्बन एक 'पार्टिकुलेट मैटर' है। इसकी मौजूदगी तापमान बढ़ाती है, जिससे ग्लेशियर पिघलते हैं। यह एकमात्र ऐसा प्रदूषण है, जो इंसान और वातावरण, दोनों के लिए समान रूप से खतरनाक है। हालांकि, कैटो इंस्टीट्यूट का शोधपत्र मानता है कि ग्लोबल वार्मिंग के असर से हिमालय अछूता है। वह इस दावे से भी सहमत नहीं है कि 2035 तक सभी ग्लेशियर पिघल जाएंगे। उसका मानना है कि गंगा और ब्रह्मपुत्र नहीं सूखेंगी।
उनके मुंह में घी-शक्कर, लेकिन संस्कृत की यह कहावत मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना वैज्ञानिकों पर भी लागू होती है।
यही वजह है कि उनके दावों में जबरदस्त अंतरविरोध हैं। 'एनवायर्नमेंटल परफॉर्मेंस इंडेक्स'(ईपीआई) की इसी महीने जारी रिपोर्ट में भारत को 180 देशों में सबसे निचले पायदान पर रखा गया है। इस रिपोर्ट को अमेरिका स्थित येल और कोलंबिया विश्वविद्यालय मिलकर तैयार करते हैं। इस बार भारत को म्यांमार, वियतनाम, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी नीचे पाया गया है। यह रिपोर्ट हर दो वर्ष के अंतराल पर जारी होती है और पिछली बार शोधकर्ताओं ने हिन्दुस्तान को 168वें नंबर पर रखा था।
भारत सरकार ने इसे खारिज करते हुए 'बेबुनियाद अनुमानों' पर आधारित बताया है।
विद्वान और वैज्ञानिक जो भी बताएं, पर यह सच है कि गरमी और बारिश के चक्र में आम आदमी भी अंतर महसूस कर रहा है। बिहार और उत्तर प्रदेश के बागों में इस बार आम के बौर समय से पहले आ गए थे। इसी तरह, कुमाऊं में घूमते हुए मैंने कई किसानों और प्रकृति प्रेमियों से बात की। तमाम पर्वत पुत्रों का दावा है कि इसका असर फसलों पर ही नहीं, बल्कि अन्य जीवों के ऊपर भी पड़ा है। मैं 1980 के दशक से साल में कई-कई बार पहाड़ों पर जाता रहा हूं। वैज्ञानिक कुछ भी कहें, मगर ऐसा पहली बार हुआ, जब नैनीताल और उससे भी अधिक ऊंचाई पर स्थित 'हिल स्टेशनों' को हमने घातक रूप से तपते पाया। जिन जगहों पर हमें गरमियों की रातों में कंबल ओढ़ने पड़ते थे, वहां पंखा चलाना पड़ा। कई होटलों में 'सीलिंग फैन' की व्यवस्था ही नहीं थी। वहां पहले से रखे 'टेबल फैन' हमें जैसे मुंह चिढ़ा रहे थे।
मतलब साफ है कि अब संभलने की नसीहत देने का वक्त गया। सरकारों को प्रकृति के बारे में बने कानूनों को न केवल और कड़ा करना होगा, बल्कि उन्हें कड़ाई से लागू भी करना होगा।

Rani Sahu
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