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कांग्रेस ने उदयपुर चिंतन शिविर के मंथन से जो चीजें निकाली हैं
हरजिंदर,
कांग्रेस ने उदयपुर चिंतन शिविर के मंथन से जो चीजें निकाली हैं, उनमें एक राष्ट्रवाद भी है। पार्टी के नौ पेज के नवसंकल्प-पत्र में राष्ट्रवाद शब्द का इस्तेमाल चार बार किया गया है और इसे पार्टी का मूल चरित्र बताया गया है। कांग्रेस ने भले ही इस शब्द को आज अपने अतीत से धूल झाड़कर बाहर निकाला हो, लेकिन यह देश काफी लंबे समय तक ऐसे ही सोचता रहा है। स्कूलों और यहां तक कि तमाम मोहल्लों में विभिन्न अवसरों पर जब गांधी, नेहरू, सुभाष और सरदार पटेल आदि की तस्वीरें लगाकर राष्ट्रभक्ति के गीत गाए जाते थे, तो कांग्रेस वहां किसी न किसी रूप में उपस्थित रहती थी। इन सबसे जो आख्यान उभरता था, उसमें कांग्रेस के बिना राष्ट्रवाद और राष्ट्रवाद के बिना कांग्रेस की कल्पना नहीं की जाती थी। फिर यह शब्द अतीत के तहखानों में धूल फांकने के लिए क्यों छोड़ दिया गया?
पिछले तीन दशक की कांग्रेस की राजनीति देखें, तो पुराने कई रुझान बदलते दिखाई देते हैं। इस दौर में जो कांग्रेस हमारे सामने आती है, उसका सारा चिंतन आर्थिक बदलावों के आस-पास ही दिखता है। उसके पास देश के लिए आर्थिक उदारीकरण है, मनरेगा है, भोजन का अधिकार है, शिक्षा का अधिकार है और सूचना पाने का अधिकार भी है। गठबंधन युग के तमाम जुगाड़ साधते हुए पार्टी ने इनके लिए हरसंभव कोशिशें भी कीं, जिनसे देश ने बहुत कुछ हासिल किया और बहुत कुछ खोया भी। इन कोशिशों के बीच राष्ट्रवाद कब हाथ से फिसल गया, पता ही नहीं चला। देश की भौतिक जरूरतों के चक्कर में उस जनमानस को दरकिनार कर दिया गया, जो लोगों को राजनीति के रसायन से जोड़ता है। आज जो बदली हुई राजनीति हमारे सामने है और जो कांग्रेस को एक के बाद एक नाकामियां दे रही है, उसकी शुरुआत भी वहीं कहीं से होती है।
लेकिन थोड़ा आगे बढ़कर देखें, तो जो भारत की राजनीति में हुआ है, वह बाकी दुनिया में भी कई जगह होता दिखता है। अमेरिका के एक मशहूर उदारवादी विचारक फ्रांसिस फुकुयामा इसे लेकर काफी चिंतित रहे हैं कि जो उदारपंथ लोगों को जीवन के अधिकार और तरक्की की जमीन देता है, वह अचानक खलनायक क्यों बन गया है? क्यों उदारवादी चुनाव दर चुनाव हारते जा रहे हैं? और सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि हर जगह एक उग्र किस्म का दक्षिणपंथ क्यों पैर जमाता जा रहा है?
पिछले दिनों फुकुयामा ने एक लंबा लेख लिखा, जिसमें वह इस नतीजे पर पहंुचे कि इस दुर्गति का कारण सिर्फ यह है कि उदारपंथियों ने उस राष्ट्रवाद का दामन छोड़ दिया, जिससे उनका बैर न था। वे अंतरराष्ट्रीयता के चक्कर में पड़ गए, जबकि उन्हें जो भी करना था, वह राष्ट्र की सीमाओं के भीतर ही करना था और उन्हीं उपकरणों से करना था, जो किसी राष्ट्र की संपत्ति होते हैं। लोगों को राष्ट्रवाद चाहिए था और आप उन्हें तमाम दूसरी चीजें देकर अपना कर्तव्य पूरा मानते रहे। नतीजा यह हुआ कि दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद को लपककर मुख्यधारा पर छा गए और उदारपंथी किनारे कर दिए गए।
शायद यही वह सिलसिला है, जिसने अमेरिका को ट्रंप काल दिया और रूस को पुतिन युग। आज जिस यूक्रेन से रूस युद्ध में उलझा हुआ है, वहां भी ऐसी ही राजनीति चल चुकी है। फिनलैंड में, पोलैंड में, पूरे पूर्वी यूरोप में कोई इस रुझान से बचा नहीं है। पश्चिम यूरोप में तो यूरोपीय संघ के अस्तित्व पर ही खतरा मंडरा रहा है। अगर आर्थिक अंदेशे बहुत बड़े न होते, तो कई देश कबके इससे बाहर आ गए होते। और ब्रिटेन तो खैर तमाम खतरों को मोल लेता हुआ इससे बाहर आ ही गया। इन देशों में जिस तरह की राजनीति चल रही है और जिस तरह की सरकारें बन रही हैं, वह भी यही कहानी कहती है। फ्रांस में इमैनुएल मैक्रों चुनाव जीतने में भले ही कामयाब रहे हों, लेकिन उनके मुल्क की राजनीतिक फिजा भी काफी बदल चुकी है। इटली, ग्रीस, स्पेन आप कहीं भी इसकी छाप देख सकते हैं। पश्चिमी दुनिया से बाहर निकलें, तो तकरीबन यही तुर्की में भी दिख जाएगा और मिस्र में भी। यहां उन देशों का जिक्र जरूरी नहीं है, जिन पर राजनीतिक उदारवाद की छाया कभी नहीं पड़ी थी। लेकिन जिन पर पड़ी थी, उन्हें अब उल्टी दिशा ही सुहा रही है।
दुनिया उदारवाद की उंगली छोड़कर दक्षिणपंथी जुनून के साथ क्यों चली जा रही है, इस पर पिछले कुछ साल में कई विश्लेषण हुए हैं। बहुत से कारण बताए गए हैं और कई नुस्खे भी सुझाए गए हैं। ज्यादातर विश्लेषण यही कहते हैं कि तमाम अधिकार पाने के बाद हर जगह नागरिकों की अपेक्षाएं जिस तरह से बढ़ी हैं, उदारवादी राजनीतिक दल उस तरह से उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतर सके, इसलिए उन्हें नमस्कार कर देने का चलन शुरू हो गया। दक्षिणपंथी लोगों की उम्मीदों पर खरे उतर पाएंगे या नहीं, फिलहाल इस पर बात करने का वक्त नहीं आया है। लेकिन दुनिया भर के दक्षिणपंथ ने ऐसी मिथकावली जरूर तैयार कर ली है, जिसमें लोगों को लंबे समय तक उलझाए रखा जा सकता है।
लेकिन फुकुयामा ऐसे तमाम विश्लेषणों से अलग राष्ट्रवाद से मुंह मोड़ लेने को ही इसका मुख्य कारण मान रहे हैं। इसलिए वह जो इलाज बता रहे हैं, वह बस इतना भर है कि राष्ट्रवाद को फिर से गले लगाइए, इससे राजनीति भी बदलेगी और उदारवाद के दिन भी बहुरेंगे। उदयपुर के चिंतन शिविर से निकली कांग्रेस की सोच भी ठीक यही कहती है। अगर इस निदान को सही मान भी लिया जाए, तो क्या इतने से बात बन जाएगी?
भारत में कांग्रेस से या बहुत सारे देशों में उदारवादी दलों से लोगों का मोहभंग रातोंरात नहीं हुआ। यह लम्हों की किसी खता का नतीजा कतई नहीं है। दरअसल, इसमें दशकों का लंबा समय लगा है। इसलिए वापस उस स्थिति में पहंुचने का काम भी काफी लंबा समय लेगा। कम से कम इसके भरोसे अगले चुनाव की रणनीति तो नहीं बनाई जा सकती। फिर अगर आप राष्ट्रवाद को दिल में बसा लें, तब भी आपका मुकाबला उनसे है, जिन्होंने राष्ट्रवाद को या तो माथे पर सजा रखा है या फिर कंधे पर चढ़ा रखा है। आपको यह काम उस दौर में करना है, जब लोगों ने राजनेताओं पर सहज ही विश्वास करना छोड़ दिया है।
सोर्स- Hindustan Opinion Column

Rani Sahu
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