सम्पादकीय

परमार से जयराम तक

Gulabi
4 Aug 2021 4:14 PM GMT
परमार से जयराम तक
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हिमाचल जब भी अपने अस्तित्व, अपनत्व, अभिव्यक्ति, अभिमत या स्थापना के अनुच्छेद में खुद को खोजेगा

हिमाचल जब भी अपने अस्तित्व, अपनत्व, अभिव्यक्ति, अभिमत या स्थापना के अनुच्छेद में खुद को खोजेगा, सर्वप्रथम स्व. वाईएस परमार को निर्माता के रूप में कबूल करेगा। राजनीति के मानदंडों पर भले ही हिमाचल का निर्माण जारी है और इसी प्रमाण में हर मुख्यमंत्री को अपनी हाजिरी लगानी पड़ती है। ऐसे में वाईएस परमार अगर हिमाचल निर्माता थे, तो स्व. वीरभद्र सिंह शिल्पकार थे। इसी पड़ताल में शांता कुमार ने बतौर मुख्यमंत्री हिमाचल को आत्मसम्मानी और आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश की, लेकिन दोनों पारियों में उनका रन आउट होना उनके बेहतर प्रयास का पूरा मूल्यांकन नहीं करता। प्रो. प्रेम कुमार धूमल ने अतीत की सभी धुरियों से मुकाबला किया और वह भौगोलिक राजनीति को अपनी जमीन पर खड़ा करते देखे गए। मानना पड़ेगा कि उनकी सियासत के धु्रव सबसे अलग और प्रदेश के गणित को कहीं जमा और कहीं माइनस करने की क्षमता में उन्हें सबसे अधिक सशक्त करते रहे। इसमें दो राय नहीं कि वह वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अतीत में एक वैचारिक शिल्पकार थे और अगर इन्हें समांतर रेखाओं के बीच देखा जाए, तो निश्चित रूप से राष्ट्रीय चरित्र का अवलोकन किया जाएगा।


बहरहाल विश्लेषण यह होना चाहिए कि वाईएस परमार ने जिस कोशिश व संघर्ष से हिमाचल को सांस्कृतिक धरातल पर हासिल किया, क्या उस दिशा में प्रदेश अग्रसर रहा। हिमाचली अधिकारों से हिमाचली भाषा तक के सफर में क्या प्रदेश के कदम किसी मंजिल तक पहुंचे। क्या अब वित्तीय या प्रशासनिक सुधारों की गुंजाइश को भूल कर हम वोट की फैक्टरी में कीचड़ से नहा रहे हैं। वाईएस परमार ने जब प्रदेश को फल राज्य की तासीर से आगे किया, तो सारा देश एचपीएमसी का जूस पीने लगा, लेकिन आज कोई बता पाएगा कि परवाणू सहित तमाम छोटे-बड़े फल विधायन केंद्रों पर राजनीति की दीमक क्यों लग गई। जाहिर तौर पर परमार के बाद शांता कुमार के दौर का संघर्ष सीमित वित्तीय संसाधनों से रहा और इसलिए इन दोनों मुख्यमंत्रियों ने हिमाचल को आत्मनिर्भर बनाने के कार्यक्रम और नीतियां बनाइर्ं। इनके दौर में राज्य ने महत्त्वाकांक्षा अर्जित की, लेकिन आज राजनीतिक व्यवहार केवल नागरिक महत्त्वाकांक्षा को आगे बढ़ा कर अपनी रोटियां सेंक रहा है। इसीलिए हर चुनाव या उपचुनाव दरअसल नागरिक महत्त्वाकांक्षा की प्रतिस्पर्धा बन चुका है। एक अलग तरह का क्षेत्रवाद जो सत्ता के प्रभाव से चमक रहा है। ऐसे में हिमाचल का विकास न तो समावेशी है और न ही उस मूल भावना से उत्प्रेरित, जिसके कारण यह प्रदेश अपनी सांस्कृतिक ऊर्जा से गठित हुआ।
क्रेडिट बाय Divya Himachal


बेशक वाईएस परमार के दौर में ही क्षेत्रवाद को चिन्हित करने के दबाव थे, लेकिन एक वही अकेले मुख्यमंत्री रहे हैं, जो अपने पैतृक गांव चन्हालग, अपने विधानसभा क्षेत्र या गृह जिला तक चिन्हित नहीं रहे, बल्कि समूचे प्रदेश के निर्माण में लगे रहे। बहरहाल राजनीति के वर्तमान में जयराम ठाकुर का विश्लेषण होना बाकी है, फिर भी यह दौर कोविड की बाधाओं के कारण उन्हें कुछ मोहलत देता है, लेकिन केंद्र के विशेषाधिकार से लाभान्वित भी करता है। केंद्र के वित्तीय विशेषाधिकारों का प्रश्रय धूमल सरकार को भी मिला, लेकिन उसके बूते मिशन रिपीट का ख्वाब पूरा नहीं हुआ। क्या एक अच्छी सरकार का मूल्यांकन मिशन रिपीट है या राज्य के लिए कुछ बेहतर करने के लिए सरकारों की शहादत याद रहेगी। कठोरता के अपने दौर में वाईएस परमार व शांता कुमार की सरकारें सदा याद रहेंगी, लेकिन सादगी भरी सरकार की रूपरेखा में जयराम के आसपास यह मुकाम तो रहेगा। उपचुनावों के लगातार मुआयने में, जयराम ने राजनीति को निचले स्तर तक छूट दी है। इन्वेस्टर मीट से नए नगर निगमों के गठन तक, जयराम सरकार आउट ऑफ बॉक्स फैसलों में क्षमतावान दिखती है, लेकिन उनके विजन का बॉक्स जब पूरी तरह खुलेगा, तो मुकम्मल विश्लेषण होगा। इतना जरूर है कि वर्तमान मुख्यमंत्री अपने फैसलों के सापेक्ष होने के बजाय संभावना ढूंढ रहे हैं। यह नई अभिलाषा और परिभाषा हो सकती है, लेकिन जयराम ने हिमाचल के अतीत के श्रेष्ठ को अपनाने की सादगी भरी कोशिश की, बिना यह आडंबर रचे कि भविष्य उन्हें कैसे देखेगा। वह अपने कदमों की निगहबानी नहीं करते, इसलिए राजनीतिक साजिशों से परे अपने माहौल में वह एक सच्ची कहानी जरूर लिख रहे हैं। इससे आगे भी वर्तमान मुख्यमंत्री का विश्लेषण, फिर कभी।


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