सम्पादकीय

संसद की अग्नि-परीक्षा

Rani Sahu
29 Nov 2021 6:56 PM GMT
संसद की अग्नि-परीक्षा
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एक बार फिर संसद की अग्नि-परीक्षा होगी। सवाल लोकतंत्र-गणतंत्र के सबसे बड़े, पावन मंदिर की गरिमा और उसके औचित्य का है

एक बार फिर संसद की अग्नि-परीक्षा होगी। सवाल लोकतंत्र-गणतंत्र के सबसे बड़े, पावन मंदिर की गरिमा और उसके औचित्य का है। हम बीते अढाई दशकों से संसदीय कार्यवाही के साक्षी रहे हैं। हंगामा और गतिरोध को भी लोकतांत्रिक अधिकार का हिस्सा मान लिया गया है, लेकिन जो दृश्य बीते मॉनसून सत्र के दौरान देखने पड़े हैं, उनके मद्देनजर लगता है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष में नफरत की हद तक संबंध-विच्छेद हो गए हैं। यह भारत की संवैधानिक विरासत नहीं है। संविधान सभा के दौरान संविधान संबंधी विमर्श और फिर प्रारूप-लेखन के मुद्दों पर डॉ. भीमराव अंबेडकर और डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जवाहर लाल नेहरू के विचारों का कड़ा विरोध किया था। विपक्ष के दोनों शिखर नेता राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के भी आलोचक थे, लेकिन नेहरू देश के प्रथम प्रधानमंत्री बने, तो खुद उन्होंने अंबेडकर और श्यामा प्रसाद को पहली राष्ट्रीय सरकार में कैबिनेट मंत्री की पेशकश की थी। दोनों क्रमशः कानून और उद्योग-वाणिज्य मंत्री बने। सत्ता और विपक्ष के दरमियान मतभेदों के बावजूद ऐसा सामंजस्य भी था। अब तो विपक्ष के 16 दलों ने 'संविधान दिवस' समारोह का ही बहिष्कार किया।

उस कार्यक्रम का आयोजन लोकसभा अध्यक्ष की ओर से किया जाता है, जो सदन का सर्वोच्च सम्मानित और सहमति वाला पद होता है। राष्ट्रपति को संविधान की प्रस्तावना पढ़नी होती है तथा वह संबोधित भी करते हैं, लेकिन उस दिन भी मोदी-विरोध की सियासत हावी रही। अब तो संसद के भीतर हंगामी सदस्य मेजों पर चढ़ जाते हैं, वेल में आकर नारेबाजी और नृत्य करते हैं, मंत्री के हाथ से पेपर छीन कर फाड़ देते हैं और नियमों की पुस्तिका भी चिंदी-चिंदी करने की कोशिश करते हैं। क्या संसद का प्रयोजन इन कामों के लिए है? राज्यसभा में उपसभापति के आसन पर लगा माइक तक तोड़ देते हैं। संसद के भीतर इतने निरंकुश और उत्तेजित होते रहे हैं हमारे माननीय सांसद! इतना हिंसक-सा होने की नौबत क्यों आई? क्या इन हरकतों से सरकार सहम जाएगी और आपको अपनी बात कहने का अतिरिक्त अवसर देगी? देश के उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू की आंखें सदन में ही क्यों भर आई थीं? दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक है ऐसा व्यवहार संसद के भीतर। क्या सत्ता पक्ष भी अडि़यल और एकाधिकारवादी हो गया है? क्या विपक्ष के नोटिसों को गंभीरता से संबोधित नहीं किया जाता? करीब 20 फीसदी बिल ही संसद की स्थायी और प्रवर समितियों को विचारार्थ भेजे जाते हैं और 80 फीसदी बिल सरकार खुद ही पारित करा लेती है
सवाल यह भी है कि संसद के दोनों सदनों में प्रश्नकाल और शून्यकाल की कार्यवाही भी क्यों नहीं चल पाती, लिहाजा सार्वजनिक हित के विषय लटके-अटके रह जाते हैं? बेशक सत्ता पक्ष का विरोध भी संवैधानिक अधिकार है। अपने विपक्ष-काल के दौरान भाजपा और उसके साथी दल भी खूब हंगामा करते रहे हैं, लेकिन अब यह विरोध विकृत और हुड़दंगी रूप लेता जा रहा है। संसद के ये मायने बिल्कुल नहीं हैं। विरोध के बावजूद नैतिकता और मर्यादाओं का अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। बहरहाल संसद का शीतकालीन सत्र सोमवार, 29 नवंबर, से शुरू हो चुका है और 23 दिसंबर तक चलेगा। माहौल इस बार भी बेहद तपा हुआ है। बेशक सरकार ने कृषि कानून वापसी का बिल सूचीबद्ध कर दिया है, लेकिन एमएसपी का गारंटी कानून, मृत किसानों के परिजनों को मुआवजा सरीखे कई और मुद्दे हैं, जो किसानों से जुड़े हैं। चूंकि 2022 में उप्र, पंजाब, उत्तराखंड आदि पांच राज्यों में चुनाव हैं और किसान को लेकर खूब सियासत खेली जा रही है, लिहाजा इसकी गूंज संसद में भी सुनाई देगी। महंगाई, बेरोज़गारी, पेगासस, चीनी घुसपैठ, संघीय ढांचे का उल्लंघन, बीएसएफ का अधिकार-क्षेत्र बढ़ाना, महिला आरक्षण आदि कई मुद्दे हैं, जिन पर विपक्ष बहस के आग्रह करेगा और सरकार अपनी सुविधा देखेगी, नतीजतन विवाद की स्थितियां बन सकती हैं। इस विरोधाभास तक तो ठीक है, इतनी गुंज़ाइश होनी भी चाहिए, लेकिन संसद अखाड़ा बनता जाए, देश कब तक सहन करेगा? लिहाजा सांसद अपने व्यवहार पर आत्ममंथन करें और एक नई, मर्यादित शुरुआत करें।

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