सम्पादकीय

स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में संसदीय लोकतंत्र: देश को आगे ले जाने के लिए पक्ष-विपक्ष की बननी चाहिए साझी जिम्मेदारी

Gulabi
15 Aug 2021 7:30 AM GMT
स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में संसदीय लोकतंत्र: देश को आगे ले जाने के लिए पक्ष-विपक्ष की बननी चाहिए साझी जिम्मेदारी
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स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में संसदीय लोकतंत्र

संजय गुप्त : संसद में विपक्षी दलों ने अपने ओछे आचरण से न केवल देश के विकास में रोड़ा बनने का काम किया, बल्कि लोकतंत्र को शर्मसार भी किया-और वह भी ऐसे समय जब 75वां स्वतंत्रता दिवस करीब था। इससे दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ नहीं हो सकता कि जब हम अपनी स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने का उत्सव मना रहे हैं, तब हमारी संसदीय राजनीति कलुष भरी दिख रही है। हमारे राष्ट्र निर्माताओं और संविधान के रचनाकारों ने शायद ही राजनीति के वैसे स्वरूप की कल्पना की हो, जैसा आज देखने को मिल रहा है। स्वतंत्रता का 75वां दिवस संसदीय राजनीति के नीति-नियंताओं के लिए आत्ममंथन का अवसर बनना चाहिए। उन्हें इस पर विचार करना चाहिए कि आखिर वे संसदीय लोकतंत्र को किस दिशा में ले जा रहे हैं और देश की जनता को क्या संदेश दे रहे हैं? संसद के मानसून सत्र में जो कुछ देखने को मिला, वह यह नहीं प्रकट करता कि हमारी राजनीति लोकतांत्रिक तौर-तरीकों को सबल बनाने का काम कर रही है। यह ठीक नहीं कि जब राजनीति को देश को दिशा देने का दायित्व कहीं अधिक जिम्मेदारी से निभाना चाहिए, तब वह इसके विपरीत काम करती दिख रही है।

संसद की कार्यप्रणाली भारतीय लोकतंत्र का एक अहम हिस्सा

संसद की कार्यप्रणाली भारतीय लोकतंत्र का एक अहम हिस्सा है। इसे भाजपा ने तैयार नहीं किया। यह कार्यप्रणाली दशकों के अभ्यास और सभी दलों की सहमति से बनकर तैयार हुई है। इसमें समय-समय पर जो सुधार हुए, वे भी पक्ष-विपक्ष की सहमति से हुए। ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष में प्रवेश करते वक्त इस अभ्यास और सुधारों के इस सिलसिले को भुला दिया गया। यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि संसद का मानसून सत्र शुरू होने के पहले ही विपक्ष ने ठान लिया था कि संसद को नहीं चलने देना है। इसी कारण संसद में अमर्यादित आचरण की सारी हदें पार की जाती रहीं। कभी मंत्री के हाथ से कागज छीनकर फाड़ा गया तो कभी कुर्सी-मेज पर चढ़कर नारेबाजी की गई। राज्यसभा में तो कुछ ज्यादा ही हुड़दंग हुआ। विपक्ष के हुड़दंग को बयान करते हुए सभापति द्रवित हो गए, लेकिन हंगामा मचाने वाले सांसदों पर कोई असर नहीं पड़ा। वे बेशर्मी से खुद को पीड़ित बताने के साथ ऐसे बेतुके सवाल करने लगे कि संसद को क्यों नहीं चलाया गया?
संसद का मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ा
संसद के मानसून सत्र में हंगामा होने के आसार तभी उभर आए थे, जब सत्र प्रारंभ होने के पहले एक मीडिया समूह ने पेगासस साफ्टवेयर के जरिये कुछ नेताओं और पत्रकारों की कथित जासूसी का मसला सनसनीखेज तरीके से उछाला था। हालांकि सरकार ने जासूसी से इन्कार किया, लेकिन विपक्ष बिना सुबूत इस पर अड़ा रहा कि जासूसी कराई गई। संसद में हंगामे में राहुल गांधी ने सक्रिय भूमिका निभाई। विपक्ष का नेतृत्व अपने हाथ में लेने की मंशा से लैस तृणमूल कांग्रेस ने भी खूब हंगामा किया। कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष किस तरह संसद को बाधित करने पर आमादा था, इसका पता सत्र के आखिरी दिन राहुल गांधी के इस बयान से चला कि देश की 60 प्रतिशत जनता की आवाज को संसद में बोलने नहीं दिया गया। यह जगहंसाई कराने वाला बयान था, क्योंकि पूरा देश यह देख रहा था कि किस तरह विपक्ष संसद में बहस से भाग रहा था। तमाम महत्वपूर्ण मसले सामने थे, पर कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष का एकसूत्रीय एजेंडा संसद में हंगामा करना था। इसी कारण उन मुद्दों पर भी संसद में बहस नहीं हो सकी, जिन पर चर्चा की मांग खुद विपक्ष की ओर से की जा रही थी।
जब संसद चलती है तो सरकार जरूरी विधेयक पेश करती
जब संसद चलती है तो सरकार जरूरी विधेयक पेश करती है, ताकि देश के काम आगे बढ़ाए जा सकें। विपक्ष का दायित्व इन विधेयकों को बेहतर बनाने और उनमें जरूरी सुधार के सुझाव देना होता है। इस बार विपक्ष ने यह जिम्मेदारी निभाने से साफ इन्कार किया, लेकिन जब ओबीसी संशोधन विधेयक पेश हुआ तो वह शांत हो गया, ताकि यह संदेश न जाए कि वह ओबीसी समुदाय के खिलाफ है। सवाल है कि वह कृषि और किसानों की चिंता करने के बाद भी कृषि कानूनों पर चर्चा को क्यों नहीं तैयार हुआ? वह कोविड पर बहस से क्यों बचा? आखिर यह क्यों न मान लिया जाए कि विपक्ष ने राष्ट्रीय हितों की घोर अनदेखी करना उचित समझा? क्या मानसून सत्र में जो विधेयक आए, उनमें विपक्ष को कोई खूबी-खामी नहीं दिखी? क्या विपक्ष यह चाहता था कि उसके बहस में भाग न लेने की वजह से सरकार कोई विधेयक लेकर ही न आए?
विपक्ष ने संसद को बाधित किया
यह पहली बार नहीं जब विपक्ष ने संसद को बाधित किया हो। खुद भाजपा ने विपक्ष में रहते समय कई बार संसद के कामकाज को बाधित किया, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि खराब तौर-तरीके परिपाटी बन जाएं। यदि ऐसा होगा तो इससे संसदीय व्यवस्था कमजोर होगी और देश आगे नहीं बढ़ सकेगा। सरकारें कई बार ऐसे विधेयक लाती हैं, जो उसके राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा होते हैं। ऐसे में विपक्ष की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है, लेकिन यदि वह सरकार को काम ही नहीं करने देगा और संसद के भीतर-बाहर उसे नीचा दिखाने का काम करेगा तो संसदीय लोकतंत्र देश की उम्मीदों पर खरा कैसे उतरेगा?
आजादी का 75वां स्वतंत्रता दिवस: संसद का विशेष सत्र आयोजित किया जाता
आज जब भारत अपनी आजादी का 75वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है, तब आम नागरिक नेताओं की ओर यह आस लगाए है कि वे देश को उसके सही मुकाम पर जल्द पहुंचाएं। ऐसे में यह जरूरी है कि संसद में चर्चा और विमर्श के स्तर को बढ़ाया जाए, ताकि नागरिकों में जात-पांत, मजहब और क्षेत्रवाद की भावना खत्म कर उनके अंदर राष्ट्रीयता को और अच्छे से जगाया जा सके। दुर्भाग्य से ऐसे विमर्श की इस समय अत्यधिक कमी महसूस हो रही है। होना तो यह चाहिए था कि स्वतंत्रता के 75वें वर्ष के अवसर पर संसद का एक विशेष सत्र आयोजित किया जाता और उसमें भारत के भविष्य की परिकल्पना पर सार्थक चर्चा की जाती। ऐसी चर्चा इसलिए आवश्यक है, क्योंकि वैश्विक व्यवस्था में तेजी से बदलाव आ रहा है और चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। देश को आगे ले जाने वाले मार्ग का निर्धारण करना और उस पर एकजुट होकर चलना वक्त की जरूरत है। इसे स्वाधीनता के 75वें वर्ष में पूरा करना पक्ष-विपक्ष की साझी जिम्मेदारी बननी चाहिए। आशा की जानी चाहिए कि विपक्ष ने संसद के मानसून सत्र में जो ओछापन दिखाया, उसे उसका आभास होगा और वह सकारात्मक भूमिका का निर्वाह करेगा।
[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]


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