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- संसद: क्यों खाली है...
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परंतु सांविधानिक पदों पर यह उक्ति लागू नहीं हो सकती, बिना संविधान संशोधन के।
संसद के दोनों सदनों में समय-समय पर प्रशासनिक रिक्त पदों को भरने के लिए प्रश्न पूछे जाते हैं। सरकार का सदैव आश्वासन होता है कि वह रिक्तियां भरने के लिए प्रतिबद्ध है, जो एक सतत प्रतिक्रिया है। परंतु ताज्जुब है कि लोकसभा उपाध्यक्ष का पद सत्रहवीं लोकसभा के गठन के अट्ठाईस महीने बीत जाने के बाद अब तक रिक्त है। लोकसभा उपाध्यक्ष का पद एक सांविधानिक पद है।
संविधान के अनुच्छेद 93 के अनुसार लोकसभा, यथाशीघ्र, अपने दो सदस्यों को अपना अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनेगी और जब-जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद रिक्त होता है, तब-तब लोकसभा किसी अन्य सदस्य को, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष चुनेगी। उल्लेखनीय है कि संविधान निर्माताओं ने लोकसभा के गठन के बाद न केवल यथाशीघ्र अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के पदों के चुनने के दायित्व को लोकसभा के ऊपर डाला है, बल्कि यह भी सांविधानिक व्यवस्था की कि जब-जब उक्त पद खाली हों, उन्हें यथाशीघ्र भरा जाए।
सत्रहवीं लोकसभा की पहली बैठक 17 जून, 2019 को हुई और नियमानुसार सदस्यों को पद की शपथ दिलाने के बाद 19 जून को अध्यक्ष का चुनाव हुआ। परंतु विस्मय है कि उपाध्यक्ष का चुनाव लगभग ढाई वर्ष बाद भी नहीं हुआ। यह विलंब अभूतपूर्व है। पहली से सोलहवीं लोकसभा के उपाध्यक्षों का चुनाव अध्यक्ष के चुनाव के बाद उसी सत्र या अगले सत्र में होता रहा है, बारहवीं लोकसभा के अपवाद को छोड़कर, जब उपाध्यक्ष का चुनाव तीसरे सत्र में हुआ।
उपाध्यक्ष के वही दायित्व हैं, जो अध्यक्ष के हैं, जब वह अध्यक्ष की अनुपस्थिति में पीठासीन होते हैं। 1956 में अध्यक्ष जी वी मावलंकर के अकस्मात निधन के बाद उपाध्यक्ष एम ए अयंगर ने अध्यक्ष का पदभार सभांला। ऐसा ही 2002 में जी एम सी बालयोगी की मृत्यु पर उपाध्यक्ष पी एम सईद ने अध्यक्ष का पदभार संभाला।
उल्लेखनीय है कि आतंकवाद निरोधी विधेयक, 2002, जिसे संसद की संयुक्त बैठक ने 26 मार्च, 2002 को पारित किया था, तब बालयोगी के निधन के कारण सदन की अध्यक्षता उपाध्यक्ष सईद ने ही की थी। सईद विपक्ष से थे और सरकार भाजपा की थी। यह सब दर्शाता है कि लोकसभा उपाध्यक्ष का पद महत्वपूर्ण पद है और हमारे संविधान निर्माता इसकी रिक्ति को शीघ्र भरना चाहते थे और इसलिए उन्होंने संविधान में स्पष्ट प्रावधान किया।
अब प्रश्न उठता है कि उपाध्यक्ष के पद को भरने का दायित्व किसका है। इस संबंध में लोकसभा प्रक्रिया तथा कार्य-संचालन नियमों के अनुसार अध्यक्ष के निर्वाचन की तिथि राष्ट्रपति द्वारा तय की जाती है और उपाध्यक्ष के निर्वाचन की तिथि अध्यक्ष द्वारा। परंतु सुस्थापित संसदीय परंपरा के अनुसार उपाध्यक्ष के निर्वाचन प्रक्रिया की पहल संसदीय कार्यमंत्री द्वारा की जाती है। उपाध्यक्ष का पद संसदीय परंपरानुसार प्रतिपक्ष को जाता है। जब प्रतिपक्ष बिखरा हो, तो विपक्ष के किस धड़े को यह पद जाए, इसका पूर्व निर्णय सरकार के उच्च स्तर पर ही होता है। परंतु पद भरा जाता रहा है संविधान के आदेशानुसार।
यह भी परंपरा है कि सदन द्वारा नवनिर्वाचित उपाध्यक्ष को संसदीय कार्यमंत्री या खुुद प्रधानमंत्री उन्हें उनके लिए चिह्नित सीट तक ले जाते हैं। वर्ष 1990 में प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने उपाध्यक्ष पद के लिए शिवराज पाटिल का नाम प्रस्तावित किया था। संसदीय कार्य मंत्री पी उपेंद्र ने उन्हें पदासीन किया था। 2004 में विपक्ष के चरनजीत सिंह अटवाल निर्विरोध उपाध्यक्ष चुने गए थे और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें उपाध्यक्ष की सीट पर बिठाया था।
संसदीय इतिहास बताता है कि उपाध्यक्ष का पद कितना महत्वपूर्ण है और कैसे यह पद यथाशीघ्र भरा जाता रहा है। आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में अब कुछ लोग विवश होकर उपाध्यक्ष के पद को भरने के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटा रहे हैं। शायद सरकार दलील दे 'कम शासक और ज्यादा शासन'। परंतु सांविधानिक पदों पर यह उक्ति लागू नहीं हो सकती, बिना संविधान संशोधन के।
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