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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के कार्यालय और प्रवक्ता का कहना है कि संसद का सत्र 18-22 सितंबर को बुलाया गया है, लेकिन संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी समेत कई मंत्री और पार्टी प्रवक्ता इसे ‘विशेष सत्र’ करार दे रहे हैं। यह राष्ट्रपति के कथन और निर्णय में ‘अतिक्रमण’ है और महामहिम तथा केंद्र सरकार के बीच विरोधाभास भी है। हमने यह स्थिति पहली बार देखी और महसूस की है। विपक्ष में सोनिया गांधी और ‘इंडिया’ गठबंधन के नेताओं का भी मानना है कि सरकार ने संसद के ‘विशेष सत्र’ का निर्णय मनमुताबिक लिया है। विपक्ष को विश्वास में नहीं लिया गया। दरअसल भारत सरकार के परामर्श पर ही राष्ट्रपति ने संसद सत्र आहूत किया है। बहरहाल इस असमंजस से बाहर निकलते हुए हम मानते हैं कि पांच दिन का संसद सत्र बुलाया गया है। यदि यह ‘विशेष सत्र’ है, तो कमोबेश मोदी सरकार को स्पष्ट करना चाहिए था कि किस ‘विशेषता’ के तहत यह सत्र बुलाया गया है, जबकि मानसून सत्र 11 अगस्त को ही ‘अनिश्चितकाल के लिए स्थगित’ किया गया था। संसद का शीतकालीन सत्र भी नवम्बर के अंत अथवा दिसंबर के शुरू में बुलाया जाता है। उस दौरान कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, लिहाजा राजनीतिक दलों के केंद्रीय नेता भी चुनाव-प्रचार में व्यस्त होंगे। क्या इसी के मद्देनजर यह ‘विशेष सत्र’ बुलाया गया है? क्या शीतकालीन सत्र नहीं होगा? इन सवालों के संदर्भ में कहा जा सकता है कि संपूर्ण सत्र की तुलना में पांच दिवसीय सत्र पर्याप्त नहीं होता, क्योंकि विधायी कार्य लटके रहेंगे! चूंकि प्रस्तावित सत्र में ‘शून्यकाल’ और ‘प्रश्नकाल’ सरीखी संवैधानिक व्यवस्थाओं को अनुपस्थित रखा गया है, लिहाजा सवाल उठता है कि क्या सत्र वाकई ‘विशेष’ है? यदि ऐसा है, तो उसका विशेष एजेंडा सार्वजनिक करने में दिक्कत क्या है?
