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By: divyahimachal
यह संसद के मानसून सत्र का अंतिम सप्ताह है। पूरा सत्र मणिपुर हिंसा और हत्याओं के मुद्दे पर धुल गया। सदन में विपक्ष के हंगामे और नारेबाजी के बीच मोदी सरकार ने 13-14 विधेयक ध्वनि-मत से पारित करा लिए। सत्र में कुल 31 बिल पारित किए जाने थे। बेशक तकनीकी आधार पर बिल पारित माने जाएंगे, क्योंकि ध्वनि-मत भी संसदीय तरीका है, लेकिन रक्षा, शिक्षा, जन-सरोकार, कानून और सूचना प्रौद्योगिकी सरीखे विषयों पर न तो कोई बहस हो सकी और न ही संसदीय स्थायी समितियां चिंतन कर सकीं। यदि ‘दिल्ली सेवा विधेयक’ (अध्यादेश) राज्यसभा में भी पारित हो जाता है, तो इसी बिल पर बहस हुई और बाकायदा पारित किया गया। दरअसल यह बिल विपक्षी गठबंधन की आम आदमी पार्टी की सरकार से जुड़ा था। बहरहाल लोकसभा और राज्यसभा में सत्ता और विपक्ष के बीच ‘नियम और नाक की लड़ाई’ के कारण औसतन 10-15 फीसदी ही काम हो पाया। अब लोकसभा में सोमवार, 7 अगस्त, को ही बची-खुची कार्यवाही संभव है, क्योंकि मंगलवार-बुधवार, 8-9 अगस्त, को अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा होनी है। फिर 10 अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी पूरी बहस का जवाब देंगे। मत-विभाजन होगा और संसद को ‘अनिश्चितकाल के लिए स्थगित’ (साइनेडाई) किया जा सकता है। वैसे भी पहले से निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार, मानसून सत्र की अवधि 11 अगस्त तक ही तय की गई थी। मणिपुर हिंसा के अलावा दिल्ली सेवा बिल, अविश्वास प्रस्ताव और सर्वोच्च अदालत द्वारा राहुल गांधी की सजा पर रोक आदि मानसून सत्र के सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे रहे हैं। आश्चर्य यह रहा कि प्रधानमंत्री मोदी एक बार भी, किसी भी सदन में, उपस्थित नहीं रहे। विपक्ष ने लगातार यह सवाल उठाया। माना जा सकता है कि प्रधानमंत्री की स्वदेशी और अंतरराष्ट्रीय व्यस्तताएं काफी रहती हैं, लेकिन उन्होंने भाजपा-एनडीए सांसदों से मुलाकातों के घंटे भी तो निकाले थे।
राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में उन्होंने उद्घाटन और शिलान्यास भी किए और चुनावी जनसभाओं को भी संबोधित किया। हमने संसदीय कवरेज के अपने अनुभव में यह नहीं देखा कि प्रधानमंत्री एक बार भी, सत्र के दौरान, संसद में मौजूद न रहे हों। देवगौड़ा और गुजराल जैसे अपेक्षाकृत कमजोर प्रधानमंत्री भी सदन में मौजूद रहते थे। बहरहाल अब अविश्वास प्रस्ताव पर मौजूद रहना और अंतत: बहस का जवाब देना प्रधानमंत्री की संसदीय बाध्यता है। अविश्वास प्रस्ताव पर किसी भी पक्ष का बोलना, मुद्दे उछालना, 2024 के आम चुनाव की राजनीतिक जमीन तैयार करना स्वाभाविक है। संसद का मानसून सत्र बुनियादी तौर पर ‘अविश्वास’ के नाम रहा। पहला अविश्वास मणिपुर की हिंसा और हत्याओं पर था। विपक्ष सदन में ऐसी बहस पर सहमत ही नहीं हुआ, जिसका उपसंहार मत-विभाजन के साथ न होता हो। अंतत: लोकसभा के नियम 198 और संविधान के अनुच्छेद 75 के तहत कांग्रेस को अविश्वास प्रस्ताव पेश करना पड़ा। हालांकि वह जानती थी कि लोकसभा में आज भी प्रचंड बहुमत मोदी सरकार के पक्ष में है, लेकिन विपक्ष देश को एक राजनीतिक संदेश देना चाहता था। इस प्रस्ताव के अलावा अविश्वास ‘दिल्ली सेवा बिल’ (अध्यादेश) पर रहा। विपक्ष के लगभग सभी दल, तेलंगाना के बीआरएस समेत, इस बिल का विरोध करने पर एकमत हुए। लोकसभा में तो बिल पारित हो गया। राज्यसभा में भी सत्ता पक्ष को आंध्र की वाईएसआर कांग्रेस, ओडिशा के बीजद और उप्र की बसपा सरीखे कथित तटस्थ पक्षों का समर्थन प्राप्त है, लिहाजा वहां भी बिल के पारित होने के पूरे आसार हैं। विपक्ष इस मुद्दे को संविधान, संघीय ढांचा, न्यायपालिका आदि के उल्लंघन के तौर पर चित्रित नहीं कर सका। दरअसल हमारे संविधान के पुरखे ही इस पक्ष में नहीं थे कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में कोई स्थानीय सरकार बने। अनुच्छेद 239 एए के मुताबिक, संघशासित दिल्ली में भी चुनी हुई सरकार और विधानसभा की व्यवस्था 1991 में की गई। उसके बाद सभी राज्य सरकारें उसी के तहत काम करती रहीं। केजरीवाल की राजनीति गरीब, बेचारगी, पीडि़त, वंचित और झगड़ालू की रही है, जबकि केंद्र सरकार को किसी भी राज्य के लिए कानून बनाने का अधिकार है। फिर भी यह बिल सर्वोच्च अदालत के विचाराधीन है।
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