सम्पादकीय

संसद, सरकार और समन्वय: बहस की संसदीय परंपरा तकरीबन समाप्त, जानें ऐसा क्यों कह रहे हैं भाजपा सांसद वरुण गांधी

Neha Dani
25 April 2022 1:44 AM GMT
संसद, सरकार और समन्वय: बहस की संसदीय परंपरा तकरीबन समाप्त, जानें ऐसा क्यों कह रहे हैं भाजपा सांसद वरुण गांधी
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बेचैनी और महत्वाकांक्षा को प्रतिबिंबित करे, यह दरकार अगर खारिज हुई, तो यह संसदीय लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होगा।

भारतीय संसद के मानसून सत्र में लोकसभा ने 18 से ज्यादा विधेयकों को औसतन 34 मिनट की चर्चा के साथ मंजूरी दे दी। पीआरएस इंडिया के आंकड़े बताते हैं कि अनिवार्य रक्षा सेवा विधेयक (2021) को लोकसभा में सिर्फ 12 मिनट की बहस के बाद मंजूरी मिल गई, जबकि दिवाला और दिवालियापन संहिता (संशोधन) विधेयक (2021) पर महज पांच मिनट बहस हुई। एक भी विधेयक को संसदीय समिति के पास नहीं भेजा गया। सभी विधेयक ध्वनिमत से पास हुए। संसद की कार्य उत्पादकता का आलम यह है कि वह इस साल के हालिया सत्र में तो 129 फीसदी आंकी गई, पर बहस की संसदीय परंपरा इस दौरान तकरीबन समाप्त हो गई। क्या संसद महज डाकघर बनकर रह गई है?

विधान पर बहस संसदीय लोकतंत्र की घोषित खासियत है। वर्ष 2013 में अमेरिका में सीनेटर टेड क्रूज को ओबामाकेयर पर बोलने के लिए संसद में 21 घंटे और 19 मिनट मिले। जब संसदीय कार्यवाही में इस तरह की बहस के लिए अलग से समय दिया जाता है, तो आम सहमति बनाते हुए कानून की गुणवत्ता में सुधार का रास्ता साफ होता है। इस बीच, भारत में कृषि कानून निरसन विधेयक-2021 महज आठ मिनट (लोकसभा में तीन मिनट, राज्यसभा में पांच मिनट) में पारित हुआ। इस तरह सांसदों की संख्या कर्मचारियों की गिनती तक सीमित होकर रह गई। संविधान बनाने के लिए संविधान सभा की बहस दिसंबर, 1946 में शुरू होकर 166 दिन तक चली, जो जनवरी, 1950 में जाकर समाप्त हुई। इस पूरी कवायद का मकसद था कि आदर्श रूप से संसदीय बहस की परंपरा को बहाल रखते हुए उसे मजबूती दी जाए, सांसदों के लिए विवेकसम्मत तरीके से मतदान की इजाजत हो, ताकि विवेचना या विमर्श की अपेक्षित प्रक्रिया पुनर्जीवित हो।
एक संसदीय लोकतंत्र को अपनी रचनात्मक दरकार के साथ सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए। वेस्टमिंस्टर में, ब्रिटिश प्रधानमंत्री को हर बुधवार को हाउस ऑफ कॉमन्स में सांसदों के सवालों के जवाब देने होते हैं। यह पटल पर रखे और दूसरे सवालों के अनुपूरक प्रश्नों का मिश्रण होता है, जिसमें प्रधानमंत्री को नहीं पता होता कि कौन से सवाल पूछे जाएंगे। इसका इतना महत्व है कि कोविड-19 के दौरान भी ब्रिटिश प्रधानमंत्री को वर्चुअली सांसदों के सवालों के जवाब देने पड़े। जबकि इस अवधि में भारत में प्रश्नकाल को ही समाप्त कर दिया गया।
जवाबदेही सुनिश्चित करने का एक और तरीका संसदीय समितियां हैं। अमेरिका में सीनेट और संसदीय समितियां कानूनों की जांच, सरकारी नियुक्तियों की पुष्टि, तफ्तीश और सुनवाई करती हैं। इसके उलट सामान्य तौर पर अपने देश में लंबी अवधि की विकास योजनाएं संसदीय जांच के अधीन नहीं हैं और इन्हें सालाना खर्च की घोषणा के तहत मंजूरी मिल जाती है। जबकि ऐसी समितियों को जब भी हस्तक्षेप का मौका मिला है, तो बेहतर नतीजे सामने आए हैं। मसलन, संयुक्त संसदीय समिति ने अक्तूबर, 2013 में टेलीकॉम लाइसेंस और इनके आवंटन पर और दिसंबर, 1993 में प्रतिभूतियों और बैकिंग लेनदेन में अनियमितताओं पर विचार किया और इसका प्रभावशाली नतीजा सामने आया।संसदीय लोकतंत्र की एक बड़ी खासियत सांसदों को स्वायत्त पहल की इजाजत देना भी है। यह पहल कई बार प्राइवेट मेंबर बिल के तौर पर भी होता है। 2019 के बाद से ब्रिटेन में सात निजी सदस्य विधेयक पास हुए हैं। यह संख्या कनाडा में छह रही। भारत में 1952 से दोनों सदनों द्वारा केवल 14 निजी सदस्य विधेयक पारित किए गए हैं। दिलचस्प है कि इनमें भी छह विधेयक तब पास हुए, जब पंडित नेहरू सत्ता में थे। ऐसी विधायी पहल की अहमियत का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि राजमाता कमलेंदु की ऐसी ही पहल से महिला और बच्चों के संस्थान (लाइसेंसिंग) अधिनियम सामने आया, जिसका महिलाओं या बच्चों की देखभाल, सुरक्षा और कल्याण के लिहाज से खासा महत्व है। वर्ष 1956 में फिरोज गांधी ने प्रेस की आजादी को सुरक्षित करने के लिए प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया था। आगे चलकर इस बिल ने संसदीय कार्यवाही (संरक्षण और प्रकाशन) कानून (1956) की शक्ल ली। साफ है कि आदर्श रूप से हमें निजी सदस्य विधेयकों को सुनने और उन्हें मतदान के लिए सक्षम बनाने के लिए प्रोत्साही तंत्र स्थापित करना चाहिए।
संसद से परे भारत में ज्यादातर सांसदों के पास उनके निर्वाचन क्षेत्रों में परिवर्तन लाने की क्षमता सीमित है। सांसद निधि के तहत सांसद चुनिंदा विकास पहलों के लिए स्थानीय जिला प्राधिकरण को सिफारिश करते हैं। सांसद निधि की अधिकतम सीमा पांच करोड़ रुपये है। देश में 6,38,000 गांवों की संख्या से हिसाब लगाएं, तो हर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र के हिस्से तकरीबन हजार गांव आएंगे। एक अध्ययन के मुताबिक, इस तरह खर्च और उसकी उत्पादकता का आलम यह होगा कि बमुश्किल महज तीन मीटर कंकरीट सड़क का निर्माण प्रत्येक गांव-कस्बे के हिस्से आएगा। क्षेत्रीय विकास के लिए धन एवं साधन की इस अपर्याप्तता का दूसरा दुखद पक्ष यह है कि पिछले डेढ़ साल से सांसदों को क्षेत्रीय विकास के लिए यह पैसा भी नहीं मिल रहा, जबकि 6,320 करोड़ रुपये की सरकारी बचत का ढोल पीटा जा रहा है।
दरअसल, ऐसी योजनागत व्यवस्था से क्षेत्रीय विकास में तो मदद मिलती ही है, जमीनी स्तर पर लोकतांत्रिक सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया को भी गति मिलती है। इसके उलट, हमारे पास सांसदों की बहस को दबाने और उनकी पहल को हतोत्साहित करने वाला संस्थागत तंत्र है। दल-बदल विरोधी कानून किसी भी ऐसे सांसद या विधायक को दंडित करता है, जो एक पार्टी को दूसरे के लिए छोड़ देता है। पार्टी व्हिप के खिलाफ जाने से वह अपनी सीट खो सकता है। ऐसी बंदिशों के कारण सांसदों को शायद ही कभी किसी बिल को पेश करने का प्रोत्साहन मिला हो। सांसद केवल व्हिप द्वारा हाइलाइट किए गए बटन को दबाने के लिए मोहताज हैं। क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं कि लोकतंत्र के मंदिर में सांसद के लिए आत्मविवेक के आधार पर अपनी बात कहना और मतदान करना असंभव हो गया है। संसद और उसके सदस्य एक जवाबदेह सरकार चलाने की कोशिश करें, इसके लिए अनुकूलताएं बहाल रहनी चाहिए। हमारी संसद नए भारत की बदलती आकांक्षाओं, बेचैनी और महत्वाकांक्षा को प्रतिबिंबित करे, यह दरकार अगर खारिज हुई, तो यह संसदीय लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होगा।

सोर्स: अमर उजाला

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