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- परहित सरिस धर्म नहिं...
अशोक वाजपेयी, कवि-आलोचक एवं पूर्व प्रशासनिक अधिकारी। बचपन के दशहरा और रामलीला की यादें अब भी हैं। मेरे सागर शहर में हमारे मोहल्ले गोपालगंज में बंगालियों की कालीबाड़ी स्थित थी, जहां लगभग दस दिन मां दुर्गा की अनुपम प्रतिमा के सामने कई प्रकार केसुंदर आयोजन होते थे। मनमोहक संगीत, नृत्य, नाटक, व्याख्यान और वार्ताएं बहुत श्रद्धा भाव से आयोजित होती थीं। इन आयोजनों में हम सब लोग बहुत उत्साह से शामिल होते थे। रामलीला की एक मंडली हर बरस हमारे मोहल्ले के तिगड्डे पर प्रस्तुति देती थी। उसमें यदि एक चक्कर लगा लिया चरित्रों ने तो किष्किंधा पहुंच गए और दूसरे चक्कर में लंका। रामलीला मंडली के अभिनेताओं को अनेक परिवार अपने यहां भोजन पर आमंत्रित करते थे। घर पहुंचने पर इन अभिनेताओं के बड़े प्रेम से पांव पखारे जाते थे। लोगों को सतत जोड़े रखने वाला और आनंदित कर देने वाला आयोजन होता था। मुझे आज भी याद है कि एक बार लीला में हनुमान की भूमिका निभा रहे एक अभिनेता को किसी दर्शक ने केला दे दिया, तो वह अभिनेता तब तक चक्कर लगाते रहे, जब तक उन्होंने केला पूरा खा नहीं लिया।