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मोनिका भाम्भू कलाना: दुनिया में अनेक तरह की भाषाएं हैं। हर भाषा अपनी तरह से अद्वितीय है। हर व्यक्ति को अपनी मातृभाषा जन्म से ही मिलती है, जिसके साथ वह सहज महसूस करता है। उसके आसपास का माहौल, परिवार, समाज सब उसे जो भाषा सौंपते हैं या जिनसे वह भाषा या बोली अर्जित करता है, वही उसकी समझ से लेकर अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है। दरअसल, भाषा और बोलियां अर्जित होते हुए भी मानव के व्यक्तित्व का वह अटूट हिस्सा है, जिनके बगैर मनुष्य बिल्कुल लाचार हो जाता है।
ऐसा जरूर होगा कि जब सभ्यता के विकास क्रम में मनुष्य अपने इतिहास में भाषा अर्जित करने के क्रम में होगा, तब भी कल्पना की कोई न कोई भाषा होती होगी। और इतिहास का दर्ज होना तो भाषा से ही संभव है। यह कोई नई बात नहीं है, लेकिन कहने का आशय यही है कि भाषा सभ्यता, संस्कृति और इतिहास सबकी वाहक है। भाषा के बगैर मानव और मानवता दोनों मूक है। अपने जैसा दिखता व्यक्ति भी उस पल पराया लगने लगता है, जब हम शब्दों के माध्यम से उससे जुड़ नहीं पाते। वहीं हमारी भाषा में बात करने वाला व्यक्ति बिल्कुल अलग दिखता हुआ भी अपना लगने लगता है। इसलिए भाषा के विकास का प्रवाह मनुष्य के लिए बेहद जरूरी पहलू रहा है।
इसमें संदेह नहीं कि भाषा संचार का एक माध्यम है, मगर इसके साथ ही साहित्य इस माध्यम से रचनात्मकता के साथ कही हुई बात है। फिर भी यह प्रश्न हमेशा ही विवाद में और कसौटी पर रहा है कि भाषा और साहित्य का वास्तविक संबंध कैसा है और उनके अनुपात पर साहित्य एवं भाषा का अस्तित्व और विकास कितना निर्भर करता है! इस संदर्भ में अज्ञेय को याद करें तो उन्होंने कहा कि शब्दों में भाषा केवल संप्रेषण की ही नहीं, दृष्टि की भी अभिव्यक्ति है। भाषा से हम जानना ही नहीं, सोचना भी सीखते है। यह मनुष्य की पहचान होती है और यह एकमात्र ऐसा जरिया है, जिसके माध्यम से मनुष्य अपने हृदय के भाव एवं मस्तिष्क के विचार दूसरों के समक्ष प्रकट करके समाज में पारस्परिक जुड़ाव बनाए रखता है।
इस लिहाज देखें तो आधुनिक समाज और समूह बनने में भाषा की क्या भूमिका रही होगी, यह समझना मुश्किल नहीं है। यह बाद के दिनों की बात है कि भाषा ने मनुष्य के बीच लगातार खुद को समृद्ध किया और और उसके बेहतर होने की कसौटियां भी तय होती गर्इं। उत्कृष्ट भाषा से ही साहित्य रचा जाता है। एक तरह से साहित्य एक भाषिक कला है। मनुष्य के भीतर विचार चाहे कितना भी आलोड़ित होते हैं, लेकिन साहित्य का जन्म भाषा के गर्भ से ही होता है।
साहित्य में सृजनात्मकता व कलात्मकता की प्रमुखता के बावजूद भाषा की स्थिति गौण नहीं होती। आखिर किसी भी भाषा के शब्द ही रचना का रूप लेकर साहित्य बनते है। साहित्य भाषा से है तो किसी भी भाषा की समृद्धि भी साहित्य की ऊंचाई व गहराई से तय होती है। साहित्य और भाषा परस्पर पूरक बन एक दूसरे का परिमार्जन करते हुए समांतर चलते हैं।
दरअसल, साहित्य और भाषा शब्द के ही अलग-अलग रूप हैं। भाषा की सामर्थ्य से ही कोई भाव, विचार, अनुभव, अनुभूति प्रत्यक्ष रूप से अभिव्यक्ति का रूप लेती है। यह मनुष्य की स्वभावगत विकासमान प्रवृत्ति को ही व्यक्त करता है। मनुष्य जन्म लेते ही भाषा सीखने लगता है और अभिव्यक्ति के विभिन्न चरणों से गुजरते हुए विचार की दुनिया में भ्रमण करता है। वहां किसी बिंदु पर केंद्रित होकर विचार करने के बाद वह साहित्य की तरफ बढ़ता है।
कह सकते हैं कि भाषा साहित्य का प्राकृत रूप है, तो साहित्य भाषा का परिष्कृत रूप। साहित्य भाषा से निकलकर भी भाषा में बहुत कुछ और जोड़ता चलता है, क्योंकि यह भाषा के नियम में बंधे वाक्यों का समूह भर नहीं होकर जीवंतता से लबरेज एक अलग सत्ता भी है जो अपने-आप में किसी एक भाषा को घोंट कर भी तमाम भाषाई विविधताओं को पार कर मनुष्य मात्र की संवेदना में स्वयं को समाहित करता है।
एक ओर भाषा का अस्तित्व लौकिकता पर अधिक निर्भर करता है और उसका सरल होना ही उसके विस्तृत होने का मूल है, तो दूसरी ओर साहित्य की मांग सरलता से कहीं अधिक सामासिकता की है। साहित्य बहुधा भाषा का वह रूप लेकर चलता है जो पुराना होकर कठिनता की वजह से लोगों की जुबान पर नहीं रहता, लेकिन उसी क्लिष्टता को हृदयंगम कर भाषिक सौंदर्य रचने वाले साहित्यकारों की रचनाएं अमर हो जाती हैं। साहित्य के साथ हमें भाषा के विकास पर भी काम करना चाहिए। यह हुआ भी है।
लेकिन इस पहलू पर लगातार काम हमें विचारों से समृद्ध ही करेगा। मेरी निजी राय में साहित्यकारों से कहीं अधिक जरूरी भाषा वैज्ञानिकों की आवश्यकता हमें है, क्योंकि भाषा बगैर साहित्य के भी मनुष्य की मूलभूत जरूरत है। भाषा के प्रचलन से मनुष्य अपने भावों को संप्रेषित करना ही नहीं सीखता, बल्कि मानवीय विकास की तमाम सीढ़ियों को पार करने में भाषा का विशिष्ट योगदान है।