सम्पादकीय

पंडित जवाहरलाल नेहरू पुण्यतिथि विशेष: अगर नेहरू न होते

Gulabi
27 May 2021 7:19 AM GMT
पंडित जवाहरलाल नेहरू पुण्यतिथि विशेष: अगर नेहरू न होते
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देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की आज 57वीं पुण्यतिथि है

देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की आज 57वीं पुण्यतिथि है। हालांकि भारत की राजनीतिक विरासत और नेहरू जैसे करिश्माई प्रधानमंत्री और स्वतंत्रता सेनानी किसी विस्मृति से परे हैं, देश ने उन्हें कई अवसरों पर याद करता रहा है। प्रस्तुत लेख प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक और लेखक रामचंद्र गुहा का है, जिसमें उन्होंने नेहरू की भूमिका और भारत जैसे देश में उनके राजनीतिक अस्तित्व की अनिवार्यता और एक लोकतांत्रिक देश में नेहरू जैसे नेता की क्या आवश्यकता होती है उस पर प्रकाश डाला है।


जब 1961 में विख्यात लेखक एल्डस हक्सले भारत आए, उस वक्त यहां जनसंख्या आधिक्य, बेरोजगारी और बढ़ती अशांति वाले हालात देखकर उन्हें बहुत ज्यादा निराशा हुई। अपने भाई के नाम एक पत्र में उन्होंने लिखा, 'अगर नेहरू न हों, तो सरकार को सैन्य तानाशाह बनने में देर नहीं लगेगी।

जैसा कि तमाम नव स्वतंत्र राष्ट्रों में दिखने में आ रहा है, जहां सेना ही सत्ता का सबसे व्यवस्थित और सर्वोच्च केंद्र बन गई है।' जरा इन शब्दों को बयां करने के लहजे पर गौर कीजिए, 'अगर नेहरू न हों...'। हक्सले की इस यात्रा के तीन वर्ष बाद नेहरू का निधन हुआ। मगर भारत में न तो उस वक्त और न ही उसके बाद कभी सैन्य शासन की नौबत आई।


इस मामले में भारत की स्थिति एशिया और अफ्रीका के म्यांमार, घाना, नाइजीरिया और इंडोनेशिया जैसे तमाम देशों से अलग रही, जहां के राजनीतिक जीवन में सेना ने असरकारक भूमिका निभाई। भारत की कामयाबी तब ज्यादा गहराई से महसूस की जा सकती है, जब उसकी तुलना साथ में आजाद हुए पाकिस्तान से की जाए।
साझा ऐतिहासिक व सांस्कृतिक मूल्यों और औपनिवेशिक गुलामी को साथ में सहने के बावजूद एक देश में जहां, पूरी ईमानदारी से सेना राजनीति से अलग रहती है, वहीं दूसरे देश में सेना का जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप रहता है।
दोनों देशों में पाए जाने वाले इस विरोधी रवैये की विश्वसनीय व्याख्या येल यूनिवर्सिटी से जुड़े राजनीतिक विज्ञानी स्टीव विल्किंसन की नई किताब आर्मी ऐंड नेशन में मिलती है। इस किताब में विल्किंसन भारत और पाकिस्तान की दिशाओं में फर्क की कई वजहें गिनाते हैं।
पहली वजह, दोनों देशों के प्रमुख राजनीतिक दलों के सामाजिक आधार में निहित फर्क से जुड़ी है। कांग्रेस को पूरे देश में किसानों और मध्यवर्ग के एक बड़े तबके का समर्थन मिला हुआ था। सोच-समझकर इसकी प्रकृति संघीय रखी गई थी। विभिन्न भाषायी और सांस्कृतिक समूहों को इसमें पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिला हुआ था।
भारत सरकार ने सेना में संतुलन बनाए रखने के लिए देश के उन हिस्सों से भी सैनिकों की भर्ती करना शुरू किया....
दूसरी ओर मुस्लिम लीग थी, जिसका एक संकीर्ण अभिजात्य आधार था। इसमें बड़े जमींदार और पेशेवर लोग शामिल थे। पाकिस्तानी सेना के सामने लीग एक कमजोर प्रतिद्वंद्वी साबित हुई। मगर, कांग्रेस इतनी ताकतवर थी, और उसकी जड़ें इतनी गहरी थीं, कि भारतीय सेना उसे चुनौती देने की सोच भी नहीं सकती थी।
दूसरी वजह यह थी कि जहां पाकिस्तानी सेना में एक प्रांत का बोलबाला था, वहीं, भारत में ऐसा नहीं था। दो विश्वयुद्धों के दौरान अंग्रेजों ने पंजाब से बड़ी मात्रा में भर्तियां की थीं। जब देश का विभाजन हुआ, तो सेना भी बंटी। आलम यह था कि पाकिस्तानी सेना में 72 फीसदी सैनिक पंजाबी मुसलमान थे। भारत में भी सेना में पंजाबी सिखों और हिंदुओं की तकरीबन 20 फीसदी हिस्सेदारी थी, जो तुलनात्मक तौर पर बहुत ज्यादा नहीं थी।
इस दौरान भारत सरकार ने सेना में संतुलन बनाए रखने के लिए देश के उन हिस्सों से भी सैनिकों की भर्ती करना शुरू किया, जिन्हें परंपरागत तौर पर कम प्रतिनिधित्व मिला हुआ था। इसके अलावा सेना का काम बांटने के लिए भारत में पैरा मिलिटरी इकाइयों का भी गठन हुआ।
तीसरी वजह राजनीतिक नेतृत्व की ओर से सेना को समय-समय पर दिए गए निर्देश थे, जिनके जरिए सेना को उनकी अधीनता का लगातार एहसास कराया गया। विल्किंसन एक पत्र का उल्लेख करते हैं, जो जवाहरलाल नेहरू ने अगस्त, 1947 को ब्रिटिश कमांडर इन चीफ को लिखा था।
इसमें उन्होंने लिखा,' सेना या किसी दूसरे क्षेत्र से जुड़ी नीति में भारत सरकार के नजरिए का पालन होना चाहिए। अगर सेना का कोई अधिकारी भारत सरकार द्वारा निर्धारित नीति का पालन करने में खुद का अक्षम पाता है, तो भारतीय सेना में और सरकार के ढांचे में उसकी कोई जगह नहीं है।'
चौथी वजह अधिकारिक तौर पर सेना के स्तर में आने वाली प्रतीकात्मक गिरावट थी। औपनिवेशिक शासन के दौरान कमांडर इन चीफ को भारत में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति माना जाता था। उस वक्त नई दिल्ली में उसके घर से बड़ा घर केवल वॉयसराय का ही होता था। बाद में नेहरू उस घर में रहने लगे।
स्वतंत्रता मिलने के बाद सेना प्रमुख को रक्षा मंत्री के प्रति जवाबदेह बनाया गया। रक्षा मंत्री संसद, प्रधानमंत्री और कैबिनेट के प्रति उत्तरदायी था। इतना ही नहीं, गणराज्य के नए संविधान में आधिकारिक पद सोपान में सेना के प्रमुख को पच्चीसवीं पायदान पर रखा गया। कैबिनेट मंत्री, राज्यपाल, सर्वोच्च व उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की जगह सेना प्रमुख से ऊपर रखी गई।

ल्किंसन की इन चार प्रमुख वजहों में दो और जोड़ी जा सकती हैं। पहली, इतिहास और भूगोल से जुड़ी एक ऐसी दुर्घटना, जिसकी बदौलत शीतयुद्ध काल में भारत की तुलना में पाकिस्तान ज्यादा महत्वपूर्ण देश बनकर उभरा। सोवियत संघ जब 1950 के दशक में अफगानिस्तान के नजदीक आ रहा था, तब अमेरिका ने पाकिस्तान को बहलाने के लिए उसके साथ हथियारों को लेकर एक समझौता किया।
बदले में, 1970 के दशक में चीन के साथ लगी सीमा की मरम्मत में पाकिस्तानी सेना ने अमेरिका का साथ दिया। 1980 के दशक में अफगानिस्तान पर सोवियत कब्जे के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान शामिल हो गया। इस दौरान, पाकिस्तानी सेना को अमेरिका से हथियारों और डॉलरों की मदद मिलती रही, और वह अर्थव्यवस्था और राजनीतिक मोर्चे पर अपनी ताकत बढ़ाती रही।
पाकिस्तानी सेना के लगातार ताकतवर बनने की एक बड़ी वजह यह भी थी, कि पाकिस्तान में यह हमेशा प्रतिभावान और महत्वाकांक्षी युवाओं के आकर्षण का केंद्र बनी रही। खुली राजनीतिक व्यवस्था और गतिमान अर्थव्यवस्था वाले भारत में एक मेधावी और महत्वाकांक्षी युवा कामयाब वकील, डॉक्टर, उद्यमी या राजनेता बन सकता है।
समय के साथ-साथ युवाओं के लिए ये पेशे सेना से भी ज्यादा आकर्षण वाले बन गए। नतीजा यह हुआ कि भारत में सेना में अधिकारियों के लिए होने वाले आवेदनों में कमी आती गई। वहीं, पाकिस्तान में पैसा, प्रतिष्ठा और ताकत की चाह रखने वाले युवा के लिए आज भी सेना सबसे अच्छा विकल्प है।
हालांकि सेना पर सिविल नियंत्रण के नतीजे कभी-कभी घातक भी होते हैं। जैसा कि खुद विल्किंसन ने पाया, सेना की तकनीकी जरूरतों के प्रति नेहरू और उनके रक्षा मंत्री वी के कृष्णा मेनन ने जो लापरवाही बरती, उसका दुष्परिणाम चीन के साथ युद्ध में दिखा।
बाद के रक्षा मंत्रियों ने सेना में सीनियर रैंक में पदोन्नति की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करके उसकी क्षमता और मनोबल को कमजोर किया। कुल मिलाकर हमें खुद को भाग्यशाली मानना चाहिए कि हमें उस स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा, जिसका उल्लेख कुछ पचपन वर्ष पहले एल्डस हक्सले ने किया था।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।


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