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उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जबर्दस्त जीत हुई है
उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जबर्दस्त जीत हुई है। उसने 75 में से 67 सीटें जीती हैं। समाजवादी पार्टी को पांच सीट मिली हैं, जबकि रालोद को केवल एक। पंचायत चुनावों को राजनीतिक जोड़-घटाव के चश्मे से देखा जा रहा है। देखा भी क्यों न जाए, इस चुनाव में सारे समीकरण वही थे, जो पंचायती राज व्यवस्था में बरसों से चले आ रहे हैं। कुछ सियासी पंडितों ने तो नारा भी दे दिया है... पंचायत से पार्लियामेंट तक।
यूपी के पंचायत चुनाव में कुछ चीजें ऐतिहासिक रहीं। महिलाओं ने 50 फीसदी से अधिक सीटों पर विजय हासिल की। निर्विरोध जीत का वरण करने वाले भी इस बार काफी अधिक रहे। बिना चुनाव लडे़ 21 सीटों पर भाजपा उम्मीदवार चुनाव जीत गए। निर्विरोध की स्थिति भी मजेदार रही। कहीं लंबे-चौडे़ कुनबे की ओर से ताल ठोक रहे विपक्ष को उम्मीदवार नहीं मिला, तो कहीं प्रस्तावक ही गायब हो गए। सबसे बड़ा नाटक तो बागपत में हुआ। वहां रालोद उम्मीदवार ममता किशोर बनकर तीन महिलाएं कलक्ट्रेट में परचा वापस करने पहुंच गईं। हंगामा हुआ, पोल खुली, तो तीनों भाग गईं। आखिरकार चुनाव हुआ और ममता चुनाव जीत गईं। रालोद ने अपना पुराना किला बागपत बचा लिया। लेकिन सवाल कायम है, जिस भी दल और उसके नुमाइंदों ने यह सियासी नाटक किया, क्या उन्होंने सांविधानिक परंपरा को चोट नहीं पहुंचाई?
इसी तरह, मुजफ्फरनगर के सियासी संग्राम में भारतीय किसान यूनियन की करारी हार हुई। गाजीपुर आंदोलन का सात महीने से नेतृत्व कर रही भाकियू अपने ही गढ़ में हार हो गई। भाकियू ने यहां केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान के रिश्तेदार सतेंद्र बालियान पर दांव लगाया। प्रत्याशी भाकियू का था, लेकिन समूचे विपक्ष का समर्थन उनको प्राप्त था। महज चार वोट उनको मिले। भाजपा जीत गई।
खैर, न तो यह कहा जा सकता है कि इससे किसी एक दल के प्रति जनमत बन गया और न यह कहा जा सकता है कि हवा बन गई। सब जानते हैं कि यह पंचायती प्रतिनिधि हमेशा से सत्ता के साथ चलते हैं। न पार्टी की ओर से विधिक रूप से व्हिप जारी होती है और न ही जनता से सीधे चुनाव होता है। जिला पंचायत सदस्य ही जिला पंचायत अध्यक्ष को चुनते हैं। जिला पंचायत सदस्य का चुनाव जीतते ही सदस्यों को 'वादियों की सैर' करने के लिए भेज दिया जाता है। वे सिर्फ वोट डालने के लिए आते हैं। खुले में घूमने की उनको छूट नहीं होती। हर वोट पर उनके आकाओं की नजर होती है और भी बहुत कुछ होता है, जो सब जानते हैं।
प्रमुख विपक्षी दलों का छह सीटों पर सिमटना यह बताता है कि मेहनत नहीं हुई और न ही इस चुनाव को इन्होंने गंभीरता से लिया। बसपा ने तो किनारा ही कर लिया था। किसी वक्त पंचायतों पर एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस सपा-रालोद के साथ गलबहियां करती रही। हर चुनाव की अपनी तस्वीर, अपना समीकरण और अपनी बिसात होती है। हां, सांगठनिक स्तर पर विपक्षी दलों को जरूर सोचना पड़ेगा। तमाम जगह उनके सिपहसालारों ने अर्जुन की तरह गांडीव रख दिया।
बहरहाल, 73वें संविधान संशोधन विधेयक को लागू करते समय पंचायत राज व्यवस्था को एक स्वतंत्र और संपूर्ण इकाई के रूप में स्वीकार किया गया था। मंतव्य था कि जिस प्रकार अन्य निकाय काम करते हैं, उसी तरह ग्राम स्वराज भी होना चाहिए। बेहतरी के लिए 32 विभाग जिला पंचायतों को हस्तांतरित होने थे। 14 किए भी गए, लेकिन बाकी आज तक नहीं हुए। जो विभाग ट्रांसफर हुए, वे राजस्व की दृष्टि से मजबूत नहीं थे। जिला योजना और जिला अनुश्रवण समिति, दोनों ही जिले के विकास का आधार हैं। दावा था कि जिला पंचायत अध्यक्ष की देखरेख में जिले की योजना बनेगी। अफरसरशाही ने यह होने नहीं दिया। जिला पंचायतों का चुनाव जिस धमक के साथ होता है, उतनी ही ये पंचायतें बदहाल हैं। सही बात तो यह है कि इनके पास करने को कुछ खास है ही नहीं। जिला पंचायतों के अस्पताल, स्कूल, मेला, हाट, सब बंद हो रहे हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि बड़ी तेजी से गांव शहर में तब्दील हो रहे हैं। पंचायतों का दायरा सिकुड़ रहा है, शहर का बढ़ रहा है।
साल 2015 के पंचायत चुनाव में उत्तर प्रदेश में 75 जिले, 821 विकास खंड व 59,074 ग्राम पंचायतें थीं। इन पिछले पांच वर्षों में यूपी की 60 लाख की ग्रामीण आबादी शहरी क्षेत्र में चली गई। 2015 के पंचायत चुनाव में यूपी की ग्रामीण आबादी 15 करोड़, 80 लाख, 88,640 आंकी गई थी, जबकि इस बार आबादी 15 करोड़, 20 लाख, 29,130 रह गई। इस तरह से कुल 60,59, 510 ग्रामीण लोग शहरी हो गए। इन पांच वर्षों में यूपी में 515 इलाके शहरी क्षेत्र में आ गए हैं। यह ग्राम स्वराज के सपने पर एक सवाल है। गांव शहर बन जाएंगे, तो क्या होगा? नगर निगमों का बजट बढ़ेगा, गांवों का घटेगा? जिला पंचायत अध्यक्ष या प्रधान क्या करेंगे? इन सवालों, सियासत, जोड़-तोड़ के बीच कुछ सकारात्मक जवाब भी चाहिए। यानी जब प्रदेश में मेयर का जनता के वोटों से चुनाव हो सकता है, तब जिला पंचायत अध्यक्ष चुनने का अधिकार क्या ग्रामीण जनता को नहीं मिलना चाहिए? इसकी कवायद काफी समय से चल रही है, पर पूरी नहीं हुई। असली समीकरण वोटों से बनते हैं।
अब दूसरी बात। पंचायतों का कलेवर बदल रहा है। मंद-मंद ही सही, लेकिन विकास, तकनीक, सोच से पंचायतें उड़ान भर रही हैं। 30 नहीं, इस बार 55 फीसदी महिलाओं ने पंचायतों की बागडोर संभाली है। अब निरक्षर नहीं, पढ़े-लिखे और पीएचडी धारक प्रधान और जिला पंचायत अध्यक्ष बन रहे हैं। प्रधानों में निरक्षरता अब केवल आठ फीसदी तक रह गई है। अब शैक्षिक योग्यता में प्रधान जिला पंचायत सदस्यों और पार्षदों से भी आगे निकल रहे हैं। 2.7 फीसदी पीएचडी और उच्च डिग्री धारक पंचायतों की दिशा-दशा बदलने का बीड़ा उठाए हैं। यहां तक कि स्नातक शिक्षा में भी ये आगे हैं।
बहुत से प्रधान ऐसे हैं, जिन्होंने गांवों का कायाकल्प कर दिया। खुशनुमा बात यह कि जीतते ही (प्रमाणपत्र या शपथ का इंतजार किए बिना) तमाम प्रधानों ने अपने गांवों में सफाई कराई और सैनिटाइज कराया। ग्राम स्वराज को सियासी समीकरणों से मत देखिए। ये पंचायतें अपना हक मांग रही हैं। नगर निगमों जैसा वोट का अधिकार। विकास की इबारत। सपनों का स्वराज।
सूर्यकांत द्विवेदी, स्थानीय संपादक, मेरठ हिन्दुस्तान
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