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पनामा से पंडोरा तक
पनामा और पैराडाइज पेपर्स से भारत में कुछ दिनों की मीडिया चर्चा के बाद कोई पत्ता नहीं हिला। इसलिए अब जरी हुए पंडोरा पेपर्स से कुछ होगा, इसकी उम्मीद रखने का कोई आधार नहीं है। भारत में अब भ्रष्टाचार, काला धन या विदेशी बैंकों में भारतीय धन रखने जैसी बातें मुद्दा नहीं हैँ। Pandora Papers Panama Papers
पहले पनामा और फिर पैराडाइज पेपर्स जब जारी हुए थे, तब कई देशों में हलचल मची। पाकिस्तान में तो नवाज शरीफ की सरकार ही चली गई। लेकिन भारत में कुछ दिनों की मीडिया चर्चा के बाद कोई पत्ता नहीं हिला। इसलिए अब जरी हुए पंडोरा पेपर्स से कुछ होगा, इसकी उम्मीद रखने का कोई आधार नहीं है। भारत में अब भ्रष्टाचार, काला धन या विदेशी बैंकों में भारतीय धन रखने जैसी बातें मुद्दा नहीं हैँ। बहरहाल, वॉशिंगटन स्थित इंटरनेशनल कॉन्जर्टियम ऑफ इन्वेस्टिगेटिव जनर्लिस्ट्स (आईसीआईजे) ने पंडोरा पेपर्स नाम से दुनिया भर के धनी-मानी लोगों द्वारा जारी टैक्स चोरी पर से परदा हटाया है। पंडोरा पेपर्स के तहत दी गई जानकारियां एक करोड़ 19 लाख दस्तावेजों के अध्ययन पर आधारित हैँ। इससे सामने आया है कि दुनिया भर के राजनेता, उद्योगपति, कलाकार और खिलाड़ी कैसे अपनी संपत्ति अपने देश की सरकारों से छिपा लेते हैं। टैक्स के रूप में देश के लिए उनकी जो वैध देनदारी बनती थी, उसे वे कैसे चुरा लेते हैँ।
ऐसा देश के कानून की आंख में धूल झोंकते हुए ही ऐसा किया जाता है। जाहिर है, इस बार भी पंडोरा पेपर्स में भी पहले के दस्तावेजों की तरह भारत के कई चर्चित नाम हैं। लेकिन वे लोग निश्चिंत रह सकते हैं कि उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। जबकि हकीकत यह है कि जिस किसी देश में धन कमाया जाता है, उस पर या कम से कम उस पर बनने वाले टैक्स पर उसी देश का वैध अधिकार है। जबकि टैक्स चोर लोग उस संसाधन से अपने देश वंचित कर रहे हैँ। इससे उन देशों में गरीबी और गैर-बराबरी बढ़ी है। ऐसा वे लोग कर रहे हैं, जिन्हें कई बार वेल्थ क्रिएटर कह कर देश के लोग उन पर गर्व करते हैँ। पंडोरा पेपर्स से जिन लोगों के नाम सामने आए हैं, उनमें 130 से ज्यादा ऐसे हैं, जो फॉर्ब्स मैग्जीन की अरबपतियों की सूची में शामिल हैँ। उन लोगों और उनकी कंपनियों ने अपनी जायदाद सरकारी अधिकारियों, कर्जदाताओं और अपने देश की जनता से छिपा ली है। ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनमें कुछ धनी लोगों ने देश में खुद को दिवालिया बताया, जबकि अपनी संपत्ति चोरी-छिपे उन्होंने किसी ऑफशोर सेंटर पर पहुंचा दी। उन लोगों को सजा दी जा सकती है, लेकिन उसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति जरूरी है। और जब वे लोग ही सत्ताधारियों के फाइनेंसर हों, तो फिर ऐसी इच्छाशक्ति आखिर कहां से आएगी?
Gulabi
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