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- पकौड़ावाद, पकौड़ादर्शन...
कहते हैं आदमी भगवान होने पर भी अपना भूत नहीं भुला पाता। उसके ज़ह्न में उसका विगत उसी तरह रचा-बसा रहता है जैसे भारतीय जीवन में पकौड़ा। पकोड़े या पकौड़े की महिमा चाय बेचने वाले से बेहतर भला कौन जान सकता है। जिस प्रकार खेती के साथ दुधारू पशु या मुर्गी पालन अतिरिक्त आय का साधन सिद्ध होते हैं, उसी तरह चाय के साथ पकौड़े बेचना अतिरिक्त आय का बेहतर ज़रिया साबित होते हैं। पकौड़ा व्यवसाय स्वरोज़गारी होने के साथ आत्म-सम्मान बढ़ाने वाला भी है। एक स्वरोज़गारी दूसरों को रोज़गार दे सकता है। ठेला भले ही छोटा हो, आमदनी कम हो लेकिन अभावों में जीते हुए स्वरोज़गारी होने का सुख, तिस पर उगते सूरज सी आत्म-सम्मान की आभा, आदमी को भविष्य की चिंता भुला देने का माद्दा रखती है। अपनी टपरिया पर चाय-पकौड़े बेचते हुए आदमी को भारत के भूत से लेकर भविष्य तक की जानकारियां मु़फ्त हासिल हो जाती हैं। आम भारतीय तो वैसे भी ़खुद खोजने की बजाय उधार की जानकारियों पर ज़िंदगी गुज़ारना बेहतर समझता है। हम तो यूं भी भूत में जीने वाले प्राणी हैं। प्लास्टिक सर्जरी दुनिया में सबसे पहले भोले बाबा ने ईजाद की थी, रावण पुष्पक में उड़ता था।