सम्पादकीय

पकौड़ावाद, पकौड़ादर्शन और पकौड़ापीठ

Gulabi
5 Oct 2021 6:39 AM GMT
पकौड़ावाद, पकौड़ादर्शन और पकौड़ापीठ
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कहते हैं आदमी भगवान होने पर भी अपना भूत नहीं भुला पाता

कहते हैं आदमी भगवान होने पर भी अपना भूत नहीं भुला पाता। उसके ज़ह्न में उसका विगत उसी तरह रचा-बसा रहता है जैसे भारतीय जीवन में पकौड़ा। पकोड़े या पकौड़े की महिमा चाय बेचने वाले से बेहतर भला कौन जान सकता है। जिस प्रकार खेती के साथ दुधारू पशु या मुर्गी पालन अतिरिक्त आय का साधन सिद्ध होते हैं, उसी तरह चाय के साथ पकौड़े बेचना अतिरिक्त आय का बेहतर ज़रिया साबित होते हैं। पकौड़ा व्यवसाय स्वरोज़गारी होने के साथ आत्म-सम्मान बढ़ाने वाला भी है। एक स्वरोज़गारी दूसरों को रोज़गार दे सकता है। ठेला भले ही छोटा हो, आमदनी कम हो लेकिन अभावों में जीते हुए स्वरोज़गारी होने का सुख, तिस पर उगते सूरज सी आत्म-सम्मान की आभा, आदमी को भविष्य की चिंता भुला देने का माद्दा रखती है। अपनी टपरिया पर चाय-पकौड़े बेचते हुए आदमी को भारत के भूत से लेकर भविष्य तक की जानकारियां मु़फ्त हासिल हो जाती हैं। आम भारतीय तो वैसे भी ़खुद खोजने की बजाय उधार की जानकारियों पर ज़िंदगी गुज़ारना बेहतर समझता है। हम तो यूं भी भूत में जीने वाले प्राणी हैं। प्लास्टिक सर्जरी दुनिया में सबसे पहले भोले बाबा ने ईजाद की थी, रावण पुष्पक में उड़ता था।

त्रिकालदर्शी, चिरयुवा ऋषि-मुनि हज़ारों साल जीते थे, देवता-दानव हवा में उड़ते हुए लड़ते थे। मुंशी प्रेमचंद ने तो गोबर की महिमा से प्रभावित होकर ही अपने कालजीवी उपन्यास 'गोदान' में अपने एक चरित्र का नाम गोबर रखा था। ऐसे में चाय-पकौड़े बेचने वाला भूख से लड़ते किसी छोटे लड़के को चाय ढोने और बरतन धोने का रोज़गार आसानी से दे सकता है। आत्मनिर्भर भारत की दिशा में बढ़ाए ऐसे छोटे-छोटे ़कदम वास्तव में क्रांतिदायक साबित हो सकते हैं। स्वरोज़गार में पकौड़े की भूमिका को देखते हुए हो सकता है, किसी दिन कोई महान अनुसंधानी, दार्शनिक और लेखक किसी केन्द्रीय मंत्रालय की छत्र-छाया में वैसे ही किताब लिख मारे जैसे हाल ही में एक हवाई इतिहासकार ने विभाजन के लिए नेहरू को दोषी ठहराते हुए केन्द्रीय सूचना-प्रसारण मंत्रालय के सहयोग से विभाजन विभीषिका दिवस मनाने की पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। अब अगर पकौड़ा तलना रोज़गारी होने का साधन हो सकता है तो भारतीय आर्थिकी सुदृढ़ करने में यह अवश्य अहम भूमिका निभाएगा। वैसे भी भारतीय जीवन में नामकरण से लेकर रस्म पगड़ी तक पकौड़े ऐसे ही घुले-मिले हैं, जैसे बेसन में मसाले के साथ आलू, प्याज़, सब्ज़ियां, पनीर, चिकन और मछली घुल-मिल जाते हैं।
कल्पना करें, जब देश में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हर घर के बाहर टपरिया में चाय की सौंधी ़खुशबू के बीच विभिन्न प्रकार के पकौड़े तले जा रहे हों, तो हर साल दो करोड़ क्यों, सौ करोड़ रोज़गार पैदा हो सकते हैं। आत्मनिर्भर भारत का इससे श्रेष्ठ उदाहरण क्या हो सकता है? यह बात दीगर कि अगर हर घर पकौड़े तलेगा और बेचेगा तो खाएगा कौन? लेकिन भारत सरकार की सोच वहीं से शुरू होती है, जहां आम आदमी सोचना बंद करता है। वह पकौड़ा रोज़गार का हाल नोटबंदी की तरह तो बिलकुल नहीं होने देगी। भारत सरकार इसके लिए एक व्यापक, महत्वाकांक्षी योजना लेकर आई है। अभी तक मुझे जिन मुख्य बिंदुओं की जानकारी मिली है, उनमें पकौड़ावाद और पकौड़ादर्शन के विस्तार के लिए पकौड़ाशास्त्र और विपणन में डिग्री, निर्यात और पकौड़ा पर्यटन को विकसित करना शामिल हैं। देश की आत्मनिर्भरता में पकौड़े के महत्व को रेखांकित करते हुए प्रधानसेवक रात के बारह बजे नए संसद भवन 'सेंट्रल विस्टा' के केन्द्रीय हाल में आयोजित संसद के विशेष अधिवेशन में पकौड़ादर्शन के सिंद्धातों को विकसित करने और ़कलमबंद करने की घोषणा कर सकते हंै। यह भी हो सकता है कि वह देश के सामने अपने अनुभवों पर आधारित पकौड़ादर्शन की रूपरेखा रखते हुए विपक्ष को उसके मिथ्या प्रचार के लिए धिक्कारते हुए देश के सफल पकौड़ा व्यवसायियों और अर्थशास्त्रियों की कमेटी बनाने की घोषणा कर दें।

पी. ए. सिद्धार्थ

लेखक ऋषिकेश से हैं
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