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By लोकमत समाचार सम्पादकीय
राजेश बादल
इस्लामाबाद: पाकिस्तान की विदेश नीति गिरगिट के रंग की तरह बदलती है. उसका बदलना कोई नई बात नहीं है. मुल्क के जन्म के साथ ही यह सिलसिला चल रहा है. पचहत्तर साल की विदेश नीति का मूल्यांकन किया जाए तो पता चलता है कि हुक्मरान कई बार इस नीति के कारण पाकिस्तान को बर्बादी के उस बिंदु तक ले जा चुके हैं, जहां से लौटना संभव नही होता. इसके बाद भी वे समझने को तैयार नहीं हैं.
विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी के बयान पर उठे सवाल
ताजा प्रसंग वहां के नौजवान विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी से जुड़ा हुआ है. इस पढ़े-लिखे युवक से देश ने बड़ी उम्मीदें लगाई थीं, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात वाला है. उनके बयान एक बार फिर अमेरिका और यूरोप की छाया तले दिए जा रहे हैं. फ्रांस में उनका बयान अजीब था.
जो राष्ट्र दिवालियेपन के कगार पर हो, वह अपने अस्तित्व की कीमत पर एक मरे हुए सपने को जिंदा करना चाहता है इसलिए हिंदुस्तान की ओर से उसका करारा उत्तर बनता ही था.
पाकिस्तान और चीन के ताजा संबंध
विडंबना है कि पाकिस्तान दशकों से अपने हित संरक्षक चीन से अब दूरी बनाने की कवायद करता नजर आ रहा है. चीन को इस व्यवहार से बेशक झटका लगा होगा. उसने ऐसे समय पाकिस्तान को प्राणवायु दी जबकि वह वेंटिलेटर पर था और कभी भी उसकी सांसें दम तोड़ सकती थीं.
उसकी विदेश नीति में यह परिवर्तन शायद चीन को भी अपनी नीति पर पुनर्विचार के लिए बाध्य करे. पाक ने अपनी विदेश नीति को जिस तरह एक जलेबी जैसा बनाया है, उसके घातक परिणाम हो सकते हैं. भारतीय दृष्टिकोण से यह बेहतर नजर आता है, मगर एक देश आत्मघाती रवैये पर ही उतर आए तो कोई क्या कर सकता है.
पाकिस्तान विदेश नीति की अवधारणा और उसका महत्व नहीं समझता
दरअसल, पाकिस्तान के हुक्मरान विदेश नीति की अवधारणा और उसके महत्व को ही नहीं समझ पाए हैं. वे उसका अर्थ सिर्फ हिंदुस्तान का विरोध और कश्मीर छीनने की कार्रवाई समझते आए हैं. एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र की अपनी विदेश नीति होती है, जिसमें वह अपनी अस्मिता के मद्देनजर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से रिश्तों की नींव रखता है.
दुनिया के देशों से कुछ सीखता है और विश्व समुदाय को कुछ सिखाता है. तभी उसका स्वतंत्र अस्तित्व दिखाई देता है. भारत ने अपने पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के रूप में एक ऐसा नेता पाया, जिसने विश्व समुदाय को विदेश नीति के मायने समझाए. भारत आज तक उस प्रतिष्ठा की कमाई का उपयोग कर रहा है. किसी भी देश के लिए यह गर्व का विषय हो सकता है.
पाकिस्तान बार-बार संविधान बदलने का खामियाजा भुगत रहा है
लेकिन पाकिस्तान के साथ ऐसा नहीं हुआ. उसने अपने आईन यानी संविधान को बार-बार बदला. कितनी बार उसके चरित्र को छेड़ा गया, यह खुद वहां के राजनेताओं को याद नहीं होगा. जिस देश में संविधान को ही मजाक बना दिया गया हो तो बाकी नीतियों की मौलिकता और हिफाजत का सवाल ही नहीं उठता. इसका खामियाजा वहां की अवाम को बार-बार उठाना पड़ा है.
संसार का यह अलबेला मुल्क है, जो अपने पड़ोसी से नफरत और रंजिश के आधार पर देश को आगे बढ़ाना चाहता है. आपको याद होगा कि विभाजन के बाद लहूलुहान भारत पुनर्निर्माण का संकल्प लेकर समय की स्लेट पर भविष्य की इबारत लिखने में लगा था. यहां का नेतृत्व वैज्ञानिक सोच के आधार पर अपने सपनों को अमली जामा पहना रहा था. मगर पाकिस्तान अपने खेतों में नफरत तथा हिंसा के बीज बो रहा था.
कश्मीर के लिए क्या-क्या नहीं किया पाकिस्तान ने
उसने कश्मीर हथियाने के लिए पहले मजहबी आधार पर मुस्लिम देशों की जी-हुजूरी की लेकिन इस्लामी विश्व ने उसकी नीयत भांप ली और पाकिस्तानी मंसूबे कामयाब नहीं हुए. आज भी इस्लामिक संसार में पाकिस्तान को बहुत अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है. इसके बाद यह पड़ोसी अमेरिका की गोद में जाकर बैठ गया.
अमेरिका उन दिनों हिंदुस्तान से दूरी बनाकर चल रहा था इसलिए उसने पाकिस्तान को निरंतर पनाह दी. उसे आर्थिक मदद दी. इस पैसे से पाकिस्तान ने भारत में आतंकवाद फैलाया. लेकिन उसके इरादे कामयाब नहीं हुए. जब दाल नहीं गली तो उसने फिर विदेश नीति में बदलाव किया और सोवियत संघ की शरण में गया. सोवियत संघ ने पाकिस्तान की तुलना में भारत जैसे भरोसेमंद दोस्त को प्राथमिकता दी.
पाकिस्तान ने बनाया चीन को अपना अभिभावक
इसके बाद पाकिस्तान ने चीन को अपना अभिभावक बना लिया. चीन को अपने कब्जे वाले कश्मीर का एक बड़ा भू-भाग उपहार में सौंप दिया. उसे अपनी जमीन पर ग्वादर बंदरगाह बनाने दिया, जो यकीनन हिंदुस्तान के हितों के अनुकूल नहीं था. एक सोवियत संघ को छोड़कर सभी देशों ने पाकिस्तान में अपने स्वार्थ और सियासत साधे.
बोलचाल की भाषा में कहें तो पाकिस्तान को हर उस देश ने लूटा, जिसके पास वह गिड़गिड़ाता हुआ भारत के खिलाफ गया और कश्मीर दिलाने की भीख मांगता रहा. यह विडंबना है कि पाकिस्तान में सैनिक शासन रहा हो या तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार ने राज किया हो, किसी ने भी वैदेशिक, कूटनीतिक और सामरिक नजरिये से पाकिस्तान के दूरगामी व्यावहारिक हितों को नहीं देखा. भारत से दुश्मनी निभाते हुए उन्हें मर जाना मंजूर है लेकिन दोस्ती करके अमृत पीने में उनकी दिलचस्पी नहीं है.
पाकिस्तान के लोग भी जानते है कि भारत ही करता है केवल मदद
मौजूदा विश्व में दर-दर के भिखारी देश पर कोई दांव नहीं लगाना चाहता. यह सच्चाई है कि बिना भारतीय सहायता के वह आर्थिक रूप से पनप नहीं सकता, चाहे कितने ही देशों की शरण में वह चला जाए. पाकिस्तान की अवाम भी इस हकीकत से वाकिफ है कि देर-सबेर उसे भारत की मदद लेने पर बाध्य होना पड़ेगा. यह अलग बात है कि हिंदुस्तान किसी ऐसे पड़ोसी की सहायता क्यों कर करेगा, जो हमेशा भारत के विनाश के मंसूबे बनाता रहा हो.

Rani Sahu
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