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पाकिस्तान का नया आतंकी ठिकाना: तालिबान नेता पाकिस्तान के उन्हीं मदरसों से आते हैं जिनसे निकले हैं जैश, लश्कर के आतंकी
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| भूपेंद्र सिंह| अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्जे के बीच काबुल एयरपोर्ट से मानवीय त्रासदी की सामने आ रहीं तस्वीरें बहुत कुछ कहती हैं। घोर अराजकता के बीच सुरक्षा घेरे में अफगानिस्तान छोड़कर जातीं अमेरिकी एवं नाटो फौजें तथा राजनयिक जान बचाकर भागते दिख रहे हैं। अमेरिका के पलायन का यह तरीका अफगानिस्तान को अधर में छोड़ने के उसके निर्णय से कहीं अधिक भयावह इसलिए है, क्योंकि इससे पाकिस्तान द्वारा संचालित जिहादी आतंक के सिंडिकेट को यह संदेश गया है कि आतंकवाद के माध्यम से उसने सोवियत संघ के बाद अब एक और महाशक्ति और विश्व के सबसे बड़े सैन्य गठजोड़ को हरा दिया। यह पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ को मध्य एशिया के देशों में तालिबान जैसे ही कट्टरपंथी अभियानों के जरिये एक आतंकी साम्राज्य की मूल योजना पर दोबारा से काम करने के लिए उत्साहित करेगा। दुख की बात है कि अफगानिस्तान में एक चुनी हुई सरकार का हिंसा से तख्तापलट कर रहे तालिबान से अमेरिका लगातार दोहा में राजनयिक स्तर पर वार्ता करता रहा। यह वही अमेरिका है, जिसने 9/11 आतंकी हमले के बाद अल कायदा और तालिबान के विरुद्ध अपनी लड़ाई को आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक युद्ध का नाम दिया था। आज उसी अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन कह रहे हैं कि उन्हें बस इससे सरोकार है कि अमेरिकी धरती पर कोई आतंकी हमला न हो। तालिबान ने कथित रूप से ऐसी गारंटी दी है। यह अलग बात है कि तालिबान ने दोहा में अमेरिकियों और अफगान सरकार से हुए शांति समझौते की किसी बात का पालन नहीं किया।
अमेरिकी असफलता का सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि आज तालिबान अफगानिस्तान के उतने क्षेत्रफल पर काबिज हो चुका है जितने पर वह 9/11 के बाद अमेरिकी हमले के समय भी नहीं था। इससे भारत और मध्य एशिया के लिए बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया है, क्योंकि पाकिस्तान को अफगानिस्तान में वह सामरिक पैठ मिल गई है, जिसकी तलाश में वह 1971 में भारत से मिली हार के बाद से ही था। पिछले एक हजार साल का सामरिक इतिहास यह बताता है कि काबुल में कट्टरपंथी ताकतों का उभार भारत की सुरक्षा को प्रभावित करता है। ऐसे में यह सोचना सही नहीं है कि आज का तालिबान बदल गया है या सुधर गया है। हां, वह कहीं अधिक चतुर अवश्य हो गया है। अभी वह ऐसा कुछ भी करने से बच रहा है, जिससे 20 साल के युद्ध के बाद प्राप्त हुई उसकी सत्ता के लिए पड़ोसी देशों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की ओर से कठिनाइयां बढ़ें। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तालिबान के सारे नेता पाकिस्तान के उन्हीं कट्टरपंथी मदरसों से आते हैं जिनसे जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा जैसे संगठनों के आतंकी निकले हैं।
दरअसल अमेरिका का अफगानिस्तान को तालिबान के हवाले होने देना 9/11 के दो दशक बाद आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध में पश्चिमी देशों की घटती दिलचस्पी और बड़ी वैश्विक ताकतों के बीच सदियों से चलती आ रही भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के खेल की वापसी को भी इंगित करता है। अमेरिका को लगता है कि अफगानिस्तान में तालिबान जैसी इस्लामिक कट्टरपंथी शक्ति के उभार से चीन के शिनजियांग प्रांत में इस्लामिक शक्तियों को बल मिलेगा। साथ ही पूरे अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में आतंकी जमावड़े और उथल-पुथल से चीन की बीआरआइ जैसी योजनाएं सुरक्षित नहीं रह पाएंगी। इसी तरह मध्य एशिया में इस्लामिक कट्टरपंथ के विस्तार से रूस की भी समस्याएं बढ़ेंगी। चीन इस रणनीति को लेकर सजग है और इसलिए तालिबान से अच्छे रिश्ते बनाने में लगा है। इसी कारण चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने तालिबान नेताओं को चीन आमंत्रित कर अच्छे रिश्ते बनाने की मंशा जताई।
अफगानिस्तान चार दशकों से ऐसे युद्धों से ग्रस्त रहा है, जिनमें महाशक्तियां शामिल रही हैं। इसके चलते पैसे के लिए लड़ने और पाला बदलने वालों की संख्या वहां बहुत है। आशंका यह है कि तालिबान नेताओं से मुलाकात के बाद चीनी खुफिया एजेंसियों ने तालिबान के समक्ष अफगान सेना के बिना लड़े समर्पण को संभव बनाने में अहम भूमिका निभाई। अफगानिस्तान की आर्थिक स्थिति दयनीय है और अमेरिका के हाथ खींच लेने के बाद वह और बिगड़ेगी। ऐसे में तालिबान को र्आिथक सहायता की दरकार होगी, जो फिलहाल चीन मुहैया करा सकता है। चीन का प्रयास है कि पाकिस्तान के सहयोग से इन इस्लामी कट्टरपंथियों का रुख भारत की ओर मोड़ दिया जाए। वैसे चीन इस रणनीति पर पहले से काम करता रहा है और इसी उद्देश्य से मौलाना मसूद अजहर जैसे आतंकियों को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वर्षों तक प्रतिबंधों से बचाता रहा।
एक और सच्चाई यह भी है कि तालिबान में वर्चस्व रखने वाले अधिकांश पख्तून अंग्रेजों द्वारा खींची गई डूरंड रेखा को नकारते हैं, जो आज अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा है। यही सोच रखने वाले हथियारबंद पख्तून संगठन डूरंड रेखा के दूसरी ओर पाकिस्तान में भी हैं और पाकिस्तानी फौज के विरुद्ध संघर्षरत हैं। यह भी एक तथ्य है कि अफगानिस्तान का ऐतिहासिक रूप से एक देश के रूप में 18वीं सदी में अहमद शाह अब्दाली के उभार से पहले कोई अस्तित्व नहीं रहा था। आज वहां की करीब 50 फीसद से अधिक आबादी ताजिक, उज्बेक और हजाराओं की है, जो तालिबान शासन को लेकर असहज हैं। ऐसे में पाकिस्तान और अफगानिस्तान, दोनों का ही विभाजन के कगार तक अस्थिर होना संभव है। पाकिस्तान के इस नए आतंकी साम्राज्य को नष्ट करने के लिए भारत को उस भू-राजनीतिक खेल को खेलना ही होगा, जिसके चलते तालिबान को अफगानिस्तान की सत्ता हासिल हुई है।