सम्पादकीय

चीन को पाकिस्तान की दोस्ती और अफगानिस्तान में निवेश भारी पड़ेगा

Rani Sahu
13 Sep 2021 2:25 PM GMT
चीन को पाकिस्तान की दोस्ती और अफगानिस्तान में निवेश भारी पड़ेगा
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अफगानिस्तान (Afghanistan) के सत्ता पर अब तालिबान (Taliban) का राज है

ज्योतिर्मय रॉय। अफगानिस्तान (Afghanistan) के सत्ता पर अब तालिबान (Taliban) का राज है. अमेरिकी सेना और नाटो सेना की घर वापसी ने अफगानिस्तान की राजनीति में तूफान खड़ा कर दिया है. क्या तालिबान राज में अफगान लोग सुख, शांति और समृद्धि देख पाएंगे? क्या है अफगानिस्तान का भविष्य? 15 अगस्त को अफगानिस्तान की सत्ता सम्हालते ही तालिबान को अपने ही अन्दर गुटबाजी का शिकार होना पड़ रहा है. हर गुट सत्ता की बागडोर अपने हाथ लेने की चाह रखता है, जो भविष्य में खूनी संघर्ष में बदलने की संभावनाओं की ओर इशारा करते है. सत्ता मिलने पर भी तालिबान को सत्ता का सुख भोगने की संभावना कम ही दिखती है. बदहाल अर्थव्यवस्था, आपसी अविश्वास, गुटबाजी और मानवाधिकार के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव तालिबान के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय है.

अफगानिस्तान की सत्ता हमेशा संघर्षपूर्ण रही है और इस बार अफगानिस्तान की सत्ता उस वक्त बदली, जब पूरी दुनिया कोरोना संक्रमण से जूझ रही है. करोना महामारी के चलते विश्व की हर देश की अर्थव्यवस्था आज प्रभावित है. दुर्भाग्य से तालिबान को सत्ता के साथ खाली तिजोरी उपहार में मिली. आतंकवाद का जनक पड़ोसी देश पाकिस्तान खुद उधार की जिंदगी जी रहा है. इन हालात में तालिबान को पाकिस्तान का तथाकथित साहूकार दोस्त चीन अब किसी नई दुल्हन की तरह नजर आ रहा है. लेकिन तालिबानी मिजाज़ में गृहस्थी कम और तलाक की संभावना ज्यादा दिखता है.
चीन तालिबान का सबसे बड़ा सहयोगी बन रहा है
पाकिस्तान अपनी अर्थव्यवस्था का बैसाखी बना चीन को तालिबान का सबसे बड़ा सहयोगी और शुभचिंतक बनाकर पेश कर रहा है. साहूकार चीन ने अफगानिस्तान को बड़ी मात्रा में सहायता देने की भी घोषणा की है. दुनिया भर में चीन की इस भूमिका को लेकर कौतूहल बना हुआ है. कयास लगाए जा रहे हैं कि इस बार अफगानिस्तान चीनी निवेश से भरा होगा. लेकिन किस कीमत पर यह सहायता मिलेगी और इसके लिए अफगानिस्तान को क्या कीमत चुकानी पड़ेगी यह तो भविष्य ही बता सकता है.
चीन अभी तक अफगानिस्तान को लेकर भू-राजनीति की तुलना में भू-अर्थनीति पर अधिक रुचि दिखाता आया है, लेकिन आने वाले दिनों में स्वभावतः चीन अफगानिस्तान के भू-राजनीति में भी रुचि लेने लगेगा. भारत को घेरने के लिये चीन की पाकिस्तान केंद्रित योजना का एक बड़ा हिस्सा होगा अफगानिस्तान. कई लोगों का मानना है कि चीन अफगानिस्तान में आर्थिक रूप से अवश्य हस्तक्षेप करेगा. चीन की बेल्ट एंड रोड प्लानिंग में अफगानिस्तान अहम भूमिका निभाएगा. कहते हैं साहूकार चीन कभी दान नहीं देता, वह अपने स्वार्थी-शर्तों पर दान के नाम पर ऋण देता है.
अनुसंधान संगठन फिच सॉल्यूशंस के एक शोध में कहा गया है कि अगले दो से तीन वर्षों में अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था में 10 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है. देश की बुनियादी सेवाएं पहले से ही चरमराने लगी हैं. जल्द ही अफगानिस्तान में फंडिंग की भारी मांग को देखने को मिलेगी, और तभी चीन का असली खेल शुरू होगा. इस बीच, पश्चिमी दानदाताओं ने तालिबान को मान्यता देने के बजाय देश पर प्रतिबंध लगाना शुरू कर दिया है. भारत ने अमेरिका समर्थित अफगान सरकार को महत्वपूर्ण सहायता प्रदान की है. भारत ने अफगानिस्तान के बुनियादी ढांचे वाले क्षेत्र में करीब 3 अरब रुपये का निवेश किया है. स्वाभाविक रूप से तालिबान के साथ उनके रिश्ते आसान नहीं होंगे. फलस्वरूप, तालिबान के लिए एकमात्र विकल्प चीन ही है.
अफगानिस्तान के लोगों को विदेशी शक्ति की उपस्थिति स्वीकार नहीं
विश्लेषकों का कहना है कि अफगानिस्तान में राजनीतिक स्थिरता ना आने तक किसी भी प्रकार की आर्थिक पूंजी निवेश घाटे का सौदा हो सकती है और चीन इस बात को भली भांति जानता है. इसलिए चीन रातों-रात अफगानिस्तान में भारी निवेश नहीं करेगा. मजहबी कट्टरता के कारण हाल ही में, पाकिस्तान में चीनी बुनियादी ढांचे पर हमलों में वृद्धि हुई है. ताजा हमला अगस्त में हुआ था, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि अफगानिस्तान के लोग देश में किसी भी विदेशी शक्ति की उपस्थिति को स्वीकार नहीं कर सकते.
विश्लेषकों का मानना है कि चीन अफगान धरती पर अभी बड़ा निवेश नहीं करेगा. इसके लिए चीन को कम से कम 2 से 3 साल इंतजार करना पड़ेगा. तालिबान के भीतर भी कई उप-समूह हैं. उनमें भी आपसी मतभेद हैं. कई क्षेत्रों में, इन उपसमूहों को काफी स्वायत्तता प्राप्त है. यही कारण है की, चीनी के निवेश अफगानिस्तान में ज्यादा सुरक्षित नहीं होंगे. अफगानिस्तान में इस प्रकार के कम से कम चार करोड़ लोगों पर तालिबान का कोई नियंत्रण नहीं है.
अफगानिस्तान के खनिज संसाधन
अफगानिस्तान खनिज संसाधनों में समृद्ध है. संयुक्त राज्य अमेरिका में एक भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के हिसाब से अफगानिस्तान के वर्तमान खनिज भंडार में 60 टन तांबा, 2.2 बिलियन टन लौह अयस्क, 1.4 मिलियन टन दुर्लभ पृथ्वी खनिज-लिथियम, 1.7 बिलियन बैरल कच्चा तेल, 1.7 बिलियन फिट प्राकृतिक गैस, 500 मिलियन बैरल तरलीकृत प्राकृतिक गैस मौजूद है. 2008 में चीनी कंपनियों के एक समूह ने अफगानिस्तान में सबसे बड़ी तांबे की परियोजना पर काम शुरू किया था, लेकिन आज, 13 साल बाद, उस परियोजना पर काम पूरा नहीं हो पाया है, जो सुरक्षा, भ्रष्टाचार और ढांचागत बाधाओं के कारण हुआ है. जब की 11.6 मिलियन टन तांबे का भंडार वहां मौजूद है, जिसका मूल्य 10 ट्रिलियन है.
अफगानिस्तान के कठिन इलाके, बिजली की कमी, सड़कें और रेल संपर्क के कमी के कारण देश के खनिज संसाधनों का दोहन संभव नहीं हो पाया है. फिर भी, चीन पहले भी अफगानिस्तान में निवेश करने का प्रयास कर चुका है, जैसा कि उसने सूडान और कांगो में किया है. दरअसल अफगानिस्तान में अमेरिका की उपस्थिति के कारण अतीत में चीन अफगानिस्तान का फायदा नहीं उठा सका है. अफगानिस्तान में भी ऐसा ही हो सकता है जैसा कि सीरिया के पुनर्निर्माण में हुआ है, यानि गरज ज्यादा लेकिन बारिश कम.
चीन के लिए अफगानिस्तान में निवेश कितना सुरक्षित
उइगर मुस्लिमों और तुर्किस्तान इस्लामिक आंदोलन को लेकर चीन पहले से ही परेशान है. अफगानिस्तान की सीमा शिंजियांग प्रांत से भी लगती है. और अफगानिस्तान में अमेरिका और सोवियत संघ के परिणामों को देखते हुए चीन पीछे हट सकता है. इन परिस्थितियों में, चीन जल्द अफगानिस्तान में भारी निवेश करेगा इस पर संदेह है.
अफगानिस्तान का भूमि सदैव संघर्ष का रहा है. यहां सत्ता के लिए खूनी खेल सदियों से चलता आ रहा है. विश्लेषकों का मानना है, अगर चीन अपने हथियारों का निर्यात अफगानिस्तान को करता है तो वह चीन के लिए बहुत घातक सिद्ध होगा. SIPRI के अनुसार, 2016 से 2020 तक, चीन के कुल हथियारों का 38 फीसदी निर्यात पाकिस्तान को, 17 फीसदी बांग्लादेश को और 8.2 फीसदी अल्जीरिया को हुआ है. चीन द्वारा निर्यात किए जाने वाले देशों की संख्या भी 2010 से 2014 की पांच साल की अवधि के दौरान 40 देशों से बढ़कर 2015 से 2019 तक 53 देशों तक पहुंच गई है.
कोरोना की वजह से चीन की विश्वसनीयता घटी है
करोना को लेकर विश्व में चीन की विश्वसनीयता घटी है, चीन अगर अफगानिस्तान को किसी भी प्रकार का हथियार सप्लाई करता है तो उससे इस क्षेत्र तथा विश्व में आतंकवाद को प्रोत्साहन मिलेगा. इस हालात में चीन को विश्व बाजार में चीनी वस्तुओं के बहिष्कार का सामना करना पड़ सकता है.
चीन को यह बात समझ लेना चाहिए की आतंकवाद हमेशा प्रगति, मानवता और बाजार व्यवस्था का दुश्मन रहा है. आतंकवाद का जनक और पालनगाह पाकिस्तान की दोस्ती चीन को एक दिन अवश्य ही महंगी पड़ेगी. विश्व बाजार में भारत चीन का सहयोगी बन सकता है, आवश्यकता है कि चीन को भारत के साथ आपसी संपर्क सुधारने होंगे.


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