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तालिबान के नियंत्रण वाला अफगानिस्तान वैसा नहीं निकला जैसा पाकिस्तान (Pakistan) चाहता था
प्रणय शर्मा |
तालिबान के नियंत्रण वाला अफगानिस्तान वैसा नहीं निकला जैसा पाकिस्तान (Pakistan) चाहता था. खबरें हैं कि पाकिस्तानी आतंकवादी समूहों द्वारा अफगानिस्तान (Afghanistan) में प्रशिक्षण शिविर चलाए जा रहे हैं. इनमें से कई समूहों ने भारत में घातक हमले किए हैं. लेकिन काबुल में तालिबानी सत्ता (Taliban Government) से पाकिस्तान भी सुरक्षित नहीं है. हाल के महीनों में अफगानिस्तान से पाकिस्तान में कई आत्मघाती बम विस्फोटों सहित आतंकवादी हमलों में काफी बढ़ोतरी हुई है. ऐसी घटनाएं बलूचिस्तान में भी हो रही हैं. यहां अरबों डॉलर के चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) के तहत आने वाली परियोजनाओं को भी निशाना बनाया गया है.
अप्रैल में पाकिस्तान के जवाबी हवाई हमले में 50 से अधिक लोग मारे गए, इस पर तालिबान ने पाकिस्तान को उसकी कार्रवाई के "परिणाम" भुगतने को लेकर चेतावनी दी. पिछले साल तक, इस्लामाबाद की सोच यह थी कि अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता से पाकिस्तान को रणनीतिक फायदा होगा और इसके जरिए देश में भारत के बढ़ते प्रभाव और लोकप्रियता को कम किया जा सकेगा. इसके अलावा, पाकिस्तान को यह उम्मीद थी कि काबुल में तालिबान के शासन से पाकिस्तान को मध्य एशिया और उससे आगे के बाजारों तक पहुंच प्राप्त होगी. लेकिन पाकिस्तानी योजना के मुताबिक कुछ भी नहीं हुआ.
पाकिस्तान में नीति निर्माताओं ने सोचा था कि वे अमेरिका के सामने एक विकसित तालिबान पेश करेंगे, जिससे वाशिंगटन इस देश में विदेशी निवेश के लिए माहौल बना सके. लेकिन तालिबान द्वारा लड़कियों को स्कूल न जाने देने के फरमान और महिलाओं के अधिकारों को बनाए रखने से इनकार करने के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किरकिरी मच गई और अब अफगानिस्तान को एक अछूत देश के रूप में देखा जा रहा है. तालिबान ने दावा किया है कि वह दूसरों के खिलाफ हमले के लिए आतंकवादी समूहों अपनी जमीन के इस्तेमाल की अनुमति नहीं देगा, लेकिन मिले सबूत इसके विपरीत साबित होते रहे हैं.
पाकिस्तानी आतंकवादी समूह अफगानिस्तान में प्रशिक्षण शिविर चला रहे हैं
संयुक्त राष्ट्र निगरानी दल की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के खिलाफ हमलों के रिकॉर्ड वाले जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे पाकिस्तानी आतंकवादी समूह अफगानिस्तान में प्रशिक्षण शिविर चला रहे हैं. इसकी सारी जानकारी तालिबान को है. लेकिन तालिबान के काबुल पर अधिकार करने के बाद से पाकिस्तान भी पहले से कम सुरक्षित रह गया है. पिछले साल अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से तहरीक-ए-तालिबान, पाकिस्तान में 124 से अधिक आतंकवादी हमले कर चुका है. और तालिबान द्वारा उसे इस काम के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है. परंपरागत रूप से पाकिस्तानी नेतृत्व ने भारत को अपने लिए खतरा माना है और हमेशा काबुल से एक मैत्रीपूर्ण शासन की आशा की है. इस्लामाबाद सोचता है कि भारत, विभाजन को खत्म करना चाहता है और भारत-पाक संबंध हमेशा शत्रुतापूर्ण बने रहेंगे, इसलिए, पाकिस्तान को अफगानिस्तान में एक मित्रवत सरकार बनाने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए, ताकि वह दोनों ओर से शत्रु पड़ोसियों से न घिरे.
पाकिस्तान के लिए यह जरूरी था कि वह अफगानिस्तान में लोगों के बीच अपनी छवि और संबंधों को सुधारने के लिए कड़ी मेहनत करे. भारत के विपरीत, जिसके अफगान लोगों के साथ अच्छे संबंध रहे हैं, काबुल और इस्लामाबाद के बीच संबंध खराब रहे हैं. इसकी वजह विवादित सीमा या डूरंड रेखा है, जो पश्तून आबादी को दोनों तरफ से विभाजित करती है. अफगानिस्तान की किसी भी सरकार ने अब तक इस रेखा को स्वीकार नहीं किया है. 1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत आक्रमण के बाद पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में अपने पैर जमा लिए थे. उस वक्त वह मास्को की सेना के खिलाफ लड़ रहे मुजाहिदीन के लिए, अमेरिकी हथियारों और पैसा का जरिया बन गया था.
हमलावर सेना (रूसी) की वापसी के बाद, पाकिस्तान मुजाहिदीनों से लड़ाई के बीच काबुल में तालिबान को बिठाने में कामयाब रहा, ताकि वहां वह अपना नियंत्रण बना सके. लेकिन 9/11 के बाद जब अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो सैनिकों ने काबुल में तालिबान सरकार को उखाड़ फेंका, तो पाकिस्तान ने, अमेरिकी गठबंधन सेना से 20 साल तक लड़ने के लिए तालिबानियों को पाकिस्तानी क्षेत्र में शरण दी और हथियार मुहैया कराए. आखिरकार, पिछले साल अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की जल्दबाजी में की गई वापसी के कारण काबुल में तालिबान लौट आया. हालांकि, महिलाओं के प्रति अपनी नीति बदलने में तालिबान की कठोरता ने, पाकिस्तान के लिए स्थिति को जटिल बना दिया, जो पिछले कुछ वर्षों से अमेरिका के गुड बुक से बाहर है.
अफगानिस्तान भारी खाद्य और आर्थिक संकट का सामना कर रहा है
एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन का ठिकाना पाए जाने के बाद से शुरू हुई अमेरिकी निराशा (अमेरिकी नौसेना सील के ऑपरेशन में उसकी मौत से पहले) काबुल से अमेरिकी सैनिकों की अपमानजनक वापसी के बाद और गहरी हो चुकी थी. यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के दिन मास्को की यात्रा करने के पूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के फैसले ने अब वाशिंगटन के साथ इस्लामाबाद के संबंधों को इस हद तक तनावपूर्ण कर दिया है कि पाकिस्तान में नई शरीफ सरकार को अमेरिका के साथ बिगड़े संबंधों को ठीक करना बहुत ही कठिन चुनौती होगी. पाकिस्तान के साथ तनावपूर्ण संबंधों और अमेरिका व यूरोपीय देशों के यूक्रेन की ओर ध्यान की वजह से पश्चिम देशों की प्राथमिकताओं की सूची में तालिबान और अफगानिस्तान की स्थिति, काफी नीचे चली गई है. जबकि अफगानिस्तान भारी खाद्य और आर्थिक संकट का सामना कर रहा है.
अपने खुद के आर्थिक संकट और अफगानिस्तान में अपनी विकट स्थिति की वजह से आखिरकार पाकिस्तान को, भारतीय गेहूं और दवाओं को अपने रास्ते अफगान लोगों तक पहुंचाने की अनुमति देनी पड़ी. यह एक क्षेत्रीय पहल है, जिसमें भारत एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, जिसका उपयोग अफगानिस्तान में उभरते हालात से निपटने के लिए किया जा रहा है. इसका एक हिस्सा, ताजिकिस्तान के दुशांबे में एक क्षेत्रीय बैठक में सामने प्रकट हुआ, जहां भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने घोषणा की थी कि अफगानिस्तान में "भारत एक महत्वपूर्ण शेयरहोल्डर था और है" और वह हमेशा अफगान लोगों के साथ खड़ा रहेगा. इस बैठक में पाकिस्तान से कोई प्रतिनिधि मौजूद नहीं था, डोभाल ने अन्य क्षेत्रीय देशों से अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए रचनात्मक तरीके खोजने का आग्रह किया.
दूसरी ओर, पाकिस्तान अभी अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए संघर्ष कर रहा है. आतंकी संगठनों की उपस्थिति के बीच अफगानिस्तान में बिगड़ती स्थिति, जहां तालिबान भोजन, दवा, कपड़े और अन्य आवश्यक चीजों की भारी कमी का सामना कर रहा है, एक गंभीर चुनौती है. निश्चित रूप से, मौजूदा अफगानिस्तान वह देश नहीं है जिस पाकिस्तान दुनिया को दिखाना चाहता था. लेकिन काबुल में हालात सुधरने से केवल पाकिस्तान को ही फायदा नहीं होगा, बल्कि यह कई और देशों के लिए लाभदायक होगा. इसलिए शांतिपूर्ण और स्थिर अफगानिस्तान सभी के हित में है.
सोर्स- tv9hindi.com
Rani Sahu
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