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नए प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ हमारे लिए सहयोगी हो सकते हैं।
सामान्यतः राजनीतिक सत्ता में बदलाव कूटनीति में संवाद के लिए नए दरवाजे खोलता है। इसे उन देशों के साथ रिश्तों में जमी बर्फ के पिघलने के अवसर के रूप में देखा जाता है, जिनके साथ निरंतर कटुता ने बातचीत के दरवाजे बंद कर दिए हैं, अन्यथा दोनों देशों के रिश्ते को परस्पर लाभप्रद माना जाता है। भारत पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने के ऐसे ही एक मोड़ पर है, जहां विधायिका ने हाल ही में अविश्वास प्रस्ताव के जरिये इमरान खान की सरकार को बेदखल कर दिया है।
वहां विभिन्न राजनीतिक दलों की एक गठबंधन सरकार लाई गई है, जिसमें पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी), पाकिस्तान मुस्लिम लीग, नवाज [पीएमएल (एन)], जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम-फजल (जेयूआईएफ), मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) और कुछ अन्य समूह शामिल हैं। पीएमएल (एन) मंत्रिमंडल में जगह देने के वादे के साथ सभी दलों को लुभा रही है। ऐतिहासिक रूप से परस्पर विरोधी होने के बावजूद नई सरकार के मंत्रिमंडल ने शपथ ली है, जिसमें पीएमएल(एन) के शहबाज शरीफ को प्रधानमंत्री और पीपीपी के बिलावल भुट्टो जरदारी को विदेश मंत्री बनाया गया है।
ये दोनों प्रमुख खिलाड़ी नजर आते हैं। हालांकि जेयूआईएफ के फजलुर रहमान काफी ताकतवर सहयोगी हैं। ऐसी स्थितियों में किसी भी संवाद को शुरू करने से पहले खासतौर पर समय को एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में देखा जाता है। लोकप्रिय सलाह यह है कि भारत की ओर से कोई भी पहल तभी ठीक रहेगी, जब पाकिस्तान के आगामी चुनावों में कोई उपयुक्त वार्ताकार सामने आए। हालांकि, वर्तमान परिस्थितियों में वहां जुलाई, 2023 में होने वाले आगामी चुनाव से पहले संभव नहीं है; जब तक कि नवगठित शहबाज शरीफ सरकार को भी एक और अविश्वास प्रस्ताव के जरिये बाहर का रास्ता न दिखा दिया जाए।
मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में, पाकिस्तानी सेना की भूमिका प्रेक्षक की रही है। ऐसा माना जाता है कि इमरान खान अब भी काफी लोकप्रिय हैं और विधायिका में उनकी मूर्खतापूर्ण हरकतों के बावजूद जल्दी चुनाव कराने के उनके आह्वान पर ध्यान दिया जा रहा है। पाकिस्तान से आने वाली खबरों से संकेत मिलता है कि सेना इमरान खान के पुनरुत्थान पर विभाजित है, हालांकि आईएसआई अफगानिस्तान में निरंतरता के कारण उनके पक्ष में है। हो सकता है कि सेना प्रमुख इस पर अंतिम निर्णय लें, लेकिन वह खुद अक्तूबर, 2022 में सेवानिवृत्त होने वाले हैं और उनका भविष्य प्रधानमंत्री के हाथों में होगा।
कहा जाता है कि फजलुर-रहमान चाहते हैं कि मौजूदा सरकार सत्ता में बनी रहे, ताकि प्रधानमंत्री सफलतापूर्वक एक नए सेना प्रमुख को नामित कर सकें, हालांकि उनकी नजर राष्ट्रपति पद पर है, जिसके लिए मई, 2023 में चुनाव होंगे। पाकिस्तान में लोकतंत्र के पैरोकारों को मौजूदा राष्ट्रपति में पाकिस्तान के सांविधानिक प्रमुख के रूप में प्रदर्शन में कमी दिख रही है। राजनीतिक साजिशों से परे हमें अपने हितों के लिए पाकिस्तान की व्यापक राजनीति को भी देखना चाहिए।
वहां कई धार्मिक समूह हैं, जिनमें से कुछ कट्टरपंथी भी हैं, जो निश्चित रूप से पाकिस्तानी शासन और नीति निर्माण प्रक्रिया को प्रभावित करेंगे, खासकर तब, जब सत्ताधारी सरकार आंतरिक साजिशों से भरी हो। हम आशिया बीबी द्वारा कथित ईशनिंदा कानून के उल्लंघन के बाद तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएलपी) के कट्टरपंथियों के विरोध प्रदर्शन को याद कर सकते हैं। इस समूह की पाकिस्तान में गहरी पैठ है। भारत में सीमापार घुसपैठ के मामले पर अप्रैल, 2022 की शुरुआत में केंद्र सरकार ने राज्यसभा में बताया कि पिछले पांच वर्षों में सीमापार से घुसपैठ के प्रयासों में चार गुना गिरावट आई है।
यह एक अच्छी खबर है। हालांकि भारत सरकार इसे खुफिया ब्यूरो और नियंत्रण रेखा के प्रबंधन की सफलता के रूप में देखती है, लेकिन हम इस तथ्य को नजरंदाज नहीं कर सकते कि इमरान खान और सेना प्रमुख, दोनों ने सीमा पर शांति का दावा किया था। इन परस्पर सहयोगात्मक कार्रवाइयों के बावजूद घुसपैठ बंद नहीं हुई है। हम इसके लिए विशेष कार्रवाई या शायद आईएसआई के प्रभावी नियंत्रण में नहीं रहने वाले समूहों को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं। वहीं दूसरी ओर घरेलू स्तर पर आतंकवाद जारी है।
कट्टरपंथी आतंकवादी संगठनों की कार्रवाइयों में फिर एक परस्पर विरोधी बनावट है। हालांकि लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) और जैश-ए- मोहम्मद (जेएम) आईएसआई के समर्थन पर टिके हैं, लेकिन वर्ष 2007 में गठित आतंकवादी नेटवर्क तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) पाकिस्तानी सेना के खिलाफ काम कर रहा है और पाकिस्तान में संघ प्रशासित जनजातीय क्षेत्रों (एफएटीए) और खैबर पख्तूनवा प्रांत से इसे बेदखल करना चाहता है। यह पूरे पाकिस्तान में शरीया कानून को सख्ती से लागू करने का समर्थन करता है। इसके अफगानिस्तान में अपने समकक्षों के साथ गहरे संबंध हैं।
इन गतिविधियों के बीच इस बात को लेकर अनिश्चितता है कि क्या भारत सरकार के कार्यों को विशेष रूप से पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर लोगों द्वारा सही तरीके से समझा जाएगा। ऐसी धारणा है कि भारतीय संदर्भ में प्रचलित आख्यान बहुत उत्साहजनक नहीं है और कश्मीर मुद्दे की पृष्ठभूमि में भारत के किसी भी प्रस्ताव को निहित स्वार्थों द्वारा बहुत प्रभावी ढंग से बाधित किया जा सकता है। दूसरी तरफ हमारी कूटनीति का दूसरा विकल्प अतीत में कामयाब होता दिख रहा था और संभवतः यही सही समय है कि भारत और पाकिस्तान की सरकारों द्वारा लोगों से लोगों के बीच संपर्क को उचित तरीके से प्रोत्साहित किया जाए।
मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज ऐंड एनालिसिस के डॉ. अशोक बेहुरिया के मुताबिक, यह भारत के बारे में पाकिस्तान में सकारात्मक सोच को आकार देने में बेहद उपयोगी होगा। इससे हमें उन पुलों के फिर से निर्माण के लिए जगह और समय मिलेगा, जिन पर हम भविष्य में काम कर सकते हैं। इस प्रकार पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ हमारे लिए सहयोगी हो सकते हैं।
सोर्स: अमर उजाला
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