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पिछले कुछ दिनों के इस घटनाक्रम ने उसकी छवि पर बदनुमा धब्बा लगा दिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने पाक तहरीक-ए-इंसाफ के खिलाफ जो फैसला दिया, वह पाकिस्तान के राजनीतिक और न्यायिक इतिहास में मील का पत्थर है। संविधान की पटरी से लगभग उतर जाने के बाद यह देश अचानक दूनी ताकत और आत्मविश्वास के साथ पटरी पर लौट आया है। इसके बावजूद पिछले हफ्तों में इस देश के बदन पर जो लगातार घाव लगे हैं, वे आसानी से ठीक नहीं होने वाले। यह उम्मीद की जानी चाहिए कि सत्ता में जो नई सरकार आएगी, वह झगड़ा मोल लेने से बचेगी और तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं से बेहतर कामकाजी रिश्ता भी बनाए रखेगी।
लेकिन सच्चाई यह है कि घृणा का जो जहर अभी तक देश में फैलाया जा चुका है, वह नहीं मिटने वाला। पीटीआई (पाक तहरीक-ए-इंसाफ) ने जिस राजनीति का प्रदर्शन किया, जिसके तहत सत्ता राजनीति ने संविधान के उल्लंघन और आधे-अधूरे लोकतांत्रिक तौर-तरीके का लापरवाह रास्ता चुना था, उसी से यह जहर पैदा हुआ। कोई भी राजनीतिक पार्टी-जिसकी जड़ स्वाभाविक ही सांविधानिक ढांचे से जुड़ी रही हो, अहम फैसला लेते हुए इस तरह रोगग्रस्त कैसे हो सकती है?
वह किसी ऐसी संस्कृति का प्रदर्शन कैसे कर सकती है, जिसके तहत वह खुद को लोकतंत्र की दूसरी संस्थाओं से अधिक महत्वपूर्ण मानने लगे और इस प्रक्रिया में देश की बुनियाद को ही हिला देने की कोशिश करे? सच तो यह है कि पीटीआई को उसकी अपनी ही गलतियों ने हरा दिया है। अगर वह आने वाले महीनों और वर्षों में खुद को बदलने का इरादा जताती है, तो सबसे पहले उसे अपनी गलतियां स्वीकारनी होगी। लेकिन ऐसा लगता नहीं है कि वह अपनी गलतियां सुधारने का इरादा भी रखती है।
ऐसे में, वह बिखरती रहेगी और उसका पतन भी तय है। वह हारेगी, पिटेगी और उस पर अपने ही अंतर्विरोधों के चाबुक पड़ेंगे। सत्ता में उसने जिस अक्खड़पन का परिचय दिया, उसके नतीजे में उसे अब घृणा ही मिलेगी। आने वाले दिनों में उसे बहुतेरी मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा। लेकिन पीटीआई की जो समस्याएं हैं, घृणा उनका जवाब नहीं हो सकता। मौजूदा स्थिति पीटीआई के आलोचकों के लिए खुश करने वाली हो सकती है, पीटीआई को उसकी करनी का फल मिलते देख सत्ता में आने वाली पार्टी बेहतर कामकाज का परिचय दे सकती है, लेकिन यह पीटीआई की समस्याओं का हल नहीं हो सकता।
पीटीआई के लोगों की उम्मीदों पर खरा न उतरने से जो खालीपन पैदा हुआ है, मौजूदा स्थिति उसे भी नहीं भर सकती। पीटीआई के उत्थान और पतन के बारे में सीधे-सीधे कुछ कहा नहीं जा सकता, इसकी व्याख्या उसी स्थिति में की जा सकती है, जब इस पार्टी को सत्ता में रहते हुए की गई उसकी कारगुजारियों से अलग किया जाए। पीटीआई ने जो किया, वह पाकिस्तानी समाज के अंधेरे-उजाले को प्रतिबिंबित करता है। और यही कारण है कि अपनी राजनीति से अलग यह पार्टी लंबे समय तक पाकिस्तानी समाज पर असर डालती रहेगी।
सच्चाई यह है कि पीटीआई की कारगुजारियां एक पार्टी के रूप में उसके अस्तित्व के लिए बेहद खतरनाक हैं, और खासकर आखिरी दिनों में इसने इस पार्टी की छवि को तार-तार किया है। जबकि पार्टी की छवि या विचारधारा की तुलना में उसके कामकाज ज्यादा मायने रखते हैं। एक पार्टी के तौर पर पीटीआई को पुनर्जीवित होना है, तो उसे उसकी कारगुजारियों का सख्त मूल्यांकन करना होगा। लेकिन हकीकत यह है कि चाहे पीटीआई हो या दूसरी पार्टी, वे अपनी गलतियों को दुरुस्त करना नहीं चाहती।
ऐसे में, भला क्या किया जा सकता है? जरा व्यापक तौर पर देखिए कि पीटीआई की कारगुजारियों का क्या नतीजा हुआ है-सच यह है कि सत्तारूढ़ पार्टी के अंध समर्थन और हकीकत से नजर चुराने की प्रवृत्ति ने देश में उम्मीद, आशावाद, विश्वास, खुशी, आत्मविश्वास, उम्मीद, गुस्सा, घृणा, दुश्मनी जैसी मिली-जुली धारणाएं पैदा कर दीं। आप इन अंतर्विरोध भरी मानवीय भावनाओं को अलग-अलग कर सार्थक नतीजा भला कैसे निकाल सकते हैं? पीटीआई ने यही कोशिश की। और इसमें विफल रही।
लेकिन पीटीआई की विफलता सिर्फ उसकी विफलता नहीं है। अगर आप उसकी कारगुजारियों का विश्लेषण करें, तो पाएंगे कि पाकिस्तान में मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों द्वारा लोगों की उम्मीदों पर खरा न उतर पाने के कारण ही ऐसी स्थिति पैदा हुई है। सैन्य शासन के कारण भी यहां की राजनीतिक पार्टियों में जरूरी सुधार संभव नहीं हो पाया है। पीटीआई के शुरुआती दिनों में जो लोग इमरान खान के इर्द-गिर्द इकट्ठा हुए थे, वे स्वप्नदर्शी थे और यह मान बैठे थे कि एक दिन वे जरूरी बदलाव करने में सक्षम होंगे।
लेकिन पीटीआई के बाद के दिनों में जो कुछ हुआ, उसे दोहराने की यहां जरूरत नहीं है। चूंकि उसे सैन्य तंत्र से समर्थन मिला, जो पाकिस्तान में किसी भी सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टी के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है, तो उसमें ऐसे तत्व आए, जिनके कारण यह पार्टी बदनाम ज्यादा हुई और इसने संविधान का खुला उल्लंघन करने, राष्ट्रीय हितों की कीमत पर साजिश के आरोप लगाने और हार की स्थिति में खेल भावना के साथ हार को स्वीकारने के जज्बे के अभाव का परिचय दिया। जाहिर है, पिछले कुछ दिनों के इस घटनाक्रम ने उसकी छवि पर बदनुमा धब्बा लगा दिया है।
सोर्स: अमर उजाला
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