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पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने इमरान खान की सियासी साजिश को नाकाम करते हुए अपने मुल्क के कानूनी इतिहास की एक नई इबारत तो लिख ही दी
नरेन्द्र भल्ला
पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने इमरान खान की सियासी साजिश को नाकाम करते हुए अपने मुल्क के कानूनी इतिहास की एक नई इबारत तो लिख ही दी. लेकिन साथ ही दुनिया को ये सोचने पर भी मजबूर कर दिया कि विकासशील लोकतांत्रिक देशों की लिस्ट में पाकिस्तान की न्यायपालिका क्या सचमुच इतनी ताकतवर है जिसने संसद के भीतर हुई किसी असंवैधानिक करतूत के लिए वहां की हुकूमत के फैसले को पलटने में भी कोई हिचक नहीं दिखाई?
कानूनी जानकार इसका जवाब हां में देते हुए कहते हैं कि पाकिस्तान आर्थिक रुप से भले ही कितना भी बदहाल हो लेकिन वहां की न्यायपालिका का इतिहास ये भी बताता है कि उसी सुप्रीम कोर्ट ने एक पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी के फंदे पर लटकाने का आदेश देने में कोई रहमत नहीं बरती तो वहीं मुल्क के एक और वज़ीरे आज़म रह चुके नवाज़ शरीफ को भी भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल भेजने में कोई कंजूसी नहीं बरती.
उस लिहाज से देखें तो भारत में न्यायिक सक्रियता का ढिंढोरा तो खूब होता है और उसका असर भी दिखता है लेकिन उसके मुकाबले पाकिस्तान में इसका शोर शराबा तो कम होता है. पर नाजुक मौकों पर न्यायपालिका संविधान की किताब के जरिए अपना चाबुक चलाने से परहेज़ करने में कोई कोताही नहीं बरतती. हालांकि किसी भी लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबी भी यही होती है कि न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए बल्कि वह होते हुए दिखना भी चाहिए.
गुरुवार को पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया फैसला इस मायने अहमियत रखता है कि उसने मुल्क के अवाम को सिर्फ सियासी इंसाफ ही नहीं दिया बल्कि ये अहसास भी करा दिया कि कानून अभी जिंदा है. पाकिस्ताम के न्यायिक इतिहास को जानने वाले बताते हैं कि गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला देकर उस पुरानी रवायत को जिंदा रखा है कि संविधान की मूल आत्मा से बढ़कर और कुछ भी नहीं है. फिर चाहे वो मुल्क का वज़ीरे आज़म हो या नेशनल असेंबली का स्पीकर या डिप्टी स्पीकर ही क्यों न हो.
दरअसल, पाकिस्तान के सियासी इतिहास पर अगर गौर करेंगे तो वहां के वज़ीरे आज़म की कुर्सी पर ऐसी काली नज़र लगी हुई है कि साल 1947 में मुल्क के वजूद में आने से लेकर अब तक कोई भी नजूमी उस नज़र को उतारने में कामयाब नहीं हो पाया. यहां तक कि इमरान खान की बेगम बुशरा बीबी ने भी अपने शौहर की कुर्सी बचाने के लिए जिंदा मुर्गों की बलि देने का जा टोटका आजमाया था वह भी बेकार ही साबित हुआ. मुल्क की सर्वोच्च अदालत के आये फैसले के बाद इमरान अहमद खान नियाज़ी को अब वहां की संसद में अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना होगा जिस पर वोटिंग 9 अप्रैल यानी शनिवार को होगी.
भारत के प्राचीन ज्योतिष शास्त्र में कहा गया है कि जिस इंसान की जन्म कुंडली में शनि अगर शुभ भाव में विराजमान हो तो वह कंगाल को करोड़पति बना देता है. लेकिन ग्रजों की चाल के मुताबिक यदि वह अशुभ स्थिति में आ जाए तो ताज पर बैठे बादशाह को तख्त पर भी झुला देता है. यानी अर्श से फर्श पर लाने में उसे देर नहीं लगती. हम नहीं जानते कि इमरान खान की कुंडली में शनि महाराज कहां विराजमान हैं और बीते 8 मार्च से उन्होंने अपनी कौंन-सी उल्टी चाल चली है कि वे शनिवार के दिन ही सियासी गणित को देखते हुए उन पर भारी पड़ते लग रहे हैं. लेकिन पाकिस्तान की सियासी नब्ज़ समझने वाले जानकार मानते हैं कि अगर इमरान के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है, जिसकी उम्मीद बहुत ज्यादा है तो पाकिस्तान के सियासी इतिहास में ये पहला ऐसा मौका होगा. जबकि इमरान खान अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा हटाए जाने वाले मुल्क के पहले पीएम होंगे.
इस पूरे मसले पर कल देर रात पाकिस्तान के एक संजीदा पत्रकार से फोन पर हुई बातचीत में उन्होंने एक बेहद सटीक बात कही और लगता है कि उनका नज़रिया काफी हद तक सही भी है. उनका कहना था कि "जिसने अपनी सारी जवानी क्रिकेट ही खेला हो और अगर वह राजनीति में कूद आये तो उसे सियासत की पथरीली और ऊबड़-खाबड़ जमीन भी क्रिकेट के मैदान की चिकनी पिच ही नज़र आती है. लिहाज़ा, वे अपने ग्लैमर के दम पर सत्ता तक तो पहुंच जाते हैं लेकिन उसे कैसे संभालना चलाना है और फिर दोबारा किस तरह से इस कुर्सी पर आना है इसके बारे में उनकी कोई दूरदृष्टि नहीं होती. फिर चाहे वो आपके नवजोत सिंह सिद्धू हों या फिर हमारे इमरान खान हों. दोनों के सियासी सफर पर अगर आप बारीकी से गौर करेंगे तो आप मेरी बात को गलत नहीं ठहराएंगे कि दोनों के सोचने और काम करने का तरीका तकरीबन एक जैसा रहा है.
आपके सिद्धू साहब ने एक बड़ी पार्टी का भट्टा बैठाते हुए उसे एक सूबे की सत्ता से ही बाहर करवा दिया तो इधर हमारे इमरान साहब ने पूरे मुल्क का ही ऐसा बेड़ा गर्क कर दिया कि इसे दोबारा पटरी पर लाने में बरसों लग जाएंगे." हैरानी तो ये है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद भी इमरान खान के तेवरों में कोई फर्क नहीं आया है और अब भी वे उसी क्रिकेट की शब्दावली का इस्तेमात कर रहे हैं कि मैं आखिरी गेंद तक मुकाबला करुंगा. वे इतने नासमझ भला कैसे हो सकते हैं कि शनिवार को पाक की नेशनल असेम्बली में पाकिस्तान और हिंदुस्तान के बीच कोई क्रिकेट का मैच नहीं होना है. वहां नंबरों का खेल होना है. अगर 172 वोट ले आये तो जय-जयकार और अगर नहीं ला पाये तो बेइज़्ज़त होकर रुख्सत तो होना ही पड़ेगा लेकिन साथ ही अगले तीन महीने के भीतर चुनाव जीतने के भी लाले पड़ जाएंगे.
वह इसलिये कि अविश्वास प्रस्ताव हारने के बाद इमरान खान और उनकी पार्टी किस मुंह से अवाम के बीच जाकर तब ये कहेगी कि उनकी सरकार गिराने के पीछे विदेशी साजिश थी और इसमें विपक्षी नेता शामिल थे जो मुल्क के साथ गद्दारी कर रहे थे. लिहाज़ा सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर बारीकी से गौर करने वाले मानते हैं कि इसने इमरान खान के लिए वो रास्ते भी बंद कर दिए हैं जिसकी बदौलत वे आम चुनाव में सहानुभूति के नाम पर अवाम का जबरदस्त समर्थन मिलने की आस लगाये बैठे थे.
शुक्रवार की शाम इमरान खान अपने राष्ट्र को संबोधित करने वाले हैं. जाहिर है कि वे सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं करेंगे और न ही उसे गलत ठहराने की हिमाकत करेंगे. लेकिन पाकिस्तान के उन्हीं पत्रकार का कहना था कि- "उनका पुरा भाषण सुनने में बाद आप दिल्ली में रहते हुए ही अंदाजा लगा लेंगे कि कुश्ती के अखाड़े में उतरने से पहले ही ये एक बड़े पहलवान की होने वाली हार का कबूलनामा है."
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