सम्पादकीय

Pakistan: सत्ता के लिए समझौते करती पीपीपी

Neha Dani
15 July 2022 1:39 AM GMT
Pakistan: सत्ता के लिए समझौते करती पीपीपी
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आम लोगों की भागीदारी न हो और वे भावी वार्ता और समझौतों की सफलता सुनिश्चित न करें।

वर्ष 1967 में जुल्फिकार अली भुट्टो द्वारा स्थापित पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) ने अपनी नीतियों और घोषणापत्रों के साथ अपने समय से आगे बेहद प्रगतिशील पार्टी के रूप में शुरुआत की, जिसने संघर्षरत जनता को 'रोटी, कपड़ा और मकान' मुहैया कराने पर जोर दिया। लेकिन आज आसिफ अली जरदारी के नेतृत्व में यह पार्टी प्रगतिशील नहीं रह गई है और सत्ता में बने रहने के लिए इसने कई समझौते किए हैं। इसका जनाधार केवल सिंध तक सीमित रह गया है, बाकी पाकिस्तान में इसकी शायद ही महत्वपूर्ण उपस्थिति है। पंजाब वह प्रांत है, जहां पीपीपी का जन्म हुआ और जहां उसकी बड़ी मौजूदगी थी, क्योंकि तब यह महत्वपूर्ण राज्य था। वर्ष 2022 में भी मुल्क का प्रधानमंत्री बनने के लिए पंजाब पर नियंत्रण जरूरी है।




पाकिस्तान में उग्रवाद और आतंकवाद एक बड़ा मुद्दा है। हालांकि 1967 में आतंकवाद कोई मुद्दा नहीं था, पर जैसे-जैसे समय बीतता गया और बेनजीर भुट्टो ने पीपीपी की कमान संभाली, आतंकवाद एवं उग्रवाद का मुद्दा प्रमुख होता चला गया। जब बेनजीर प्रधानमंत्री बनीं, अफगानिस्तान युद्ध में उलझा हुआ था और उसका असर पाकिस्तान पर पड़ना शुरू हो गया था। बेनजीर और पीपीपी के लिए उग्रवाद और आतंकवाद के मुद्दे बहुत महत्वपूर्ण थे और इस पर बहुत ध्यान दिया गया था। जब आतंकवादियों द्वारा बेनजीर की हत्या कर दी गई थी, तब आसिफ अली जरदारी के नेतृत्व में पार्टी ने आतंकवाद का मुद्दा उठाना जारी रखा। मुल्क के किसी भी राजनीतिक दल की तुलना में पीपीपी ने इसे बहुत महत्व दिया।


आज पीपीपी इस्लामाबाद में गठबंधन सरकार का हिस्सा है और सिंध पर शासन कर रही है। जब बिलावल भुट्टो जरदारी के नेतृत्व में पार्टी ने मांग की कि सुरक्षा प्रतिष्ठान और तहरीक-ए तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के बीच चल रही वार्ता को संसद के दायरे में लाना चाहिए और चरमपंथियों के साथ सेना की सभी बातचीत के बारे में संसदीय समिति को सूचित किया जाना चाहिए, तब पूरे मुल्क में यह खबर सुर्खियों में रही। सुरक्षा प्रतिष्ठान को समझाना आसान नहीं था, लेकिन अंततः वह राजी हुआ और वरिष्ठ अधिकारियों एवं सांसदों को कैमरे के सामने इसकी जानकारी दी। यह चार घंटे लंबी बैठक थी, जहां सेना प्रमुख, आईएसआई के महानिदेशक और पेशावर के कोर कमांडर ने प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता के साथ संसदीय दलों के सभी नेताओं को जानकारी दी। पेशावर के कोर कमांडर जनरल फैज हमीद काबुल में टीटीपी से बातचीत करने वाले प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रहे हैं।

टीटीपी अफगानिस्तान स्थित आतंकी संगठन है, जो वहीं से पाकिस्तान के विभिन्न इलाकों, खासकर उत्तरी क्षेत्र में आतंकी हमलों को अंजाम देता है। यहां तक कि जब अमेरिका और नाटो सैनिक अफगानिस्तान में थे, तब भी टीटीपी को सुरक्षित ठिकाना प्रदान किया गया था और पाकिस्तान की शिकायतों के बावजूद इसे हटाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। टीटीपी शुरू में पाकिस्तान के उत्तरी इलाकों में स्थित था, पर कई सैन्य अभियानों के जरिये इसे वहां से खदेड़ दिया गया। सुरक्षा प्रतिष्ठान और टीटीपी के बीच कई दौर की वार्ता हुई और संघर्ष विराम पर समझौता भी हुआ, पर हर बार टीटीपी ने समझौते का उल्लंघन किया और पाकिस्तान पर हमला जारी रखा। संसदीय समिति को बताया गया कि टीटीपी की कई मांगें हैं, पर संविधान के तहत उनकी मांगें पूरी करना असंभव है।

टीटीपी ने पूर्व कबायली इलाकों से सुरक्षा बलों को वापसी की मांग की है, जिसका अब खैबर पख्तूनख्वा में विलय हो गया है और जहां के लोग पाकिस्तानी नागरिकों को मिले उन सभी अधिकारों का लाभ उठाते हैं, जिनसे अतीत में वे वंचित थे। टीटीपी यह भी चाहता है कि कबायली एजेंसियां एक बार फिर कबायली इलाकों में लौट आएं। लेकिन उसकी सबसे महत्वपूर्ण मांगों से पता चलता है कि वह पूर्व कबायली इलाके में अपने ढंग से शरिया कानून लागू करना चाहता है।

सबसे महत्वपूर्ण सवाल जो पूछा जा रहा है और जिसका सुरक्षा प्रतिष्ठान के पास कोई जवाब नहीं है, वह यह है कि सरकार उन आतंकवादियों से बात क्यों कर रही है, जिन्होंने दिसंबर, 2014 में पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल पर हमला, जिसमें करीब दो सौ छात्रों और अन्य लोगों की मौत हुई थी, सहित हजारों निर्दोष लोगों की हत्या की है। तथ्य यह है कि सैन्य और नागरिक नेतृत्व, दोनों ने बैठक में कहा कि टीटीपी को मुल्क के कानून का पालन करना होगा और उन्हें अपने सभी घातक हथियार सरकार को सौंपने होंगे। पर यह भी आशंका है कि जब सरकार टीटीपी के साथ बातचीत कर रही है, तो ये आतंकवादी उस समय का उपयोग 'खुद को पुनर्गठित करने और कबायली जिलों में अपनी पैठ बनाने' के लिए करेंगे।

राजनीतिक विश्लेषक जाहिद हुसैन कहते हैं कि 'अतीत में टीटीपी ने सुरक्षा प्रतिष्ठान की उदासीन प्रतिक्रिया से काफी फायदा उठाया है। जबकि एक के बाद एक शांति समझौते के जरिये सरकार ने अपनी कमजोरी ही जाहिर की, दूसरी तरफ, ऐसे हर समझौते ने आतंकी संगठन को और मजबूत किया। हालिया बातचीत का उपयोग टीटीपी द्वारा खुद को पुनर्गठित करने और कबायली जिलों में फिर से अपनी पैठ बनाने के लिए किए जाने की आशंका है।' पीपीपी के प्रयासों से कम से कम सुरक्षा प्रतिष्ठान और टीटीपी के बीच बातचीत को अब गुप्त नहीं रखा जा सकेगा। यह उम्मीद है कि संसद में मामला उठाए जाने के बाद एक राष्ट्रीय बहस शुरू की जा सकती है। सामान्य पाकिस्तानियों, खासकर दक्षिण और उत्तरी वजीरिस्तान में रहने वाले लोगों को अपनी राय देने का पूरा अधिकार है, जो टीटीपी के हमलों और इलाके में सशस्त्र बलों की मौजूदगी से सीधे प्रभावित होते हैं। टीटीपी के साथ कोई भी समझौता तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक कि उसमे आम लोगों की भागीदारी न हो और वे भावी वार्ता और समझौतों की सफलता सुनिश्चित न करें।

सोर्स: अमर उजाला

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