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- पढ़े लिखों के बीच...
पता नहीं ऐसा क्यों है कि जो मैं हूं नहीं, वह दिखने की कोशिश में सारे जरूरी काम छोड़ हरदम जुटा रहता हूं। मसलन, मैं पढ़ा लिखा नाम का ही हूं, पर कदम कदम पर मेरी कोशिश रहती है कि जैसे कैसे भी हो, मैं सबको गजब का पढ़ा लिखा दिखूं। इसी पढ़ा लिखा न होने के चलते पढ़ा लिखा दिखने के चक्कर में मैंने पंद्रह दिन पहले पढ़े लिखों से खचाखच भरी सोसाइटी में जेब से अधिक रेट में कमरा किराए पर ले लिया ताकि मुझमें उनकी जत मत नहीं तो कम से कम उनका रंग रूप ही आ जाए। तब इधर उधर बिन कहे यह मैसेज जाए कि मैं भी पढ़ा लिखा हूं। क्योंकि मैं पढ़े लिखों की सोसाइटी में जो रहता हूं। पर संयोग, इधर यहां कमरा बदला, उधर होली आ धमकी। कम पढ़ा लिखा होने के चलते मैं बचपन से ही त्योहार का ठेठ प्रेमी रहा हूं! सो, मैं होली की सुबह ही अपने सबसे पास के पढ़े लिखे दरवाजे पर जोगीरा सा रा रा रा, भोगीरा सा रा रा रा, मौजीरा सा रा रा रा करता एक से एक मेड इन चाइना के आर्गेनिक के नाम पर विशुद्ध रसायनों से भरपूर रंग लिए, होली मुबारक हो! होली मुबारक हो! दहाड़ता जा खड़ा, कुछ रंग अपने चेहरे पर खुद ही पोते ताकि कम से कम मेरे चेहरे को तो लगे कि आज होली है या फिर मेरे चेहरे पर पुते रंगों को देख इनको उनको सब पढ़े लिखों को लगे कि आज ही होली है।