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- भारत बंटवारे का दर्द
आदित्य नारायण चोपड़ा: 1947 में भारत के हुए विभाजन का दर्द ऐसी भयंकर 'टीस' है जो प्रत्येक भारतीय को रह-रह कर कचोटती रहती है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि यह विभाजन पूरी तरह अस्वाभाविक और और अप्राकृतिक था। यह विभाजन सांस्कृतिक एकरूपता होने के बावजूद किया गया और मजहब या धर्म को इसकी बुनियाद बना कर हिन्दू व मुसलमानों को दो नस्लों के रूप में निरूपित किया गया। 1947 से पहले भी अंग्रेजों ने 1919 में श्रीलंका को और 1935 में म्यामांर को 'ब्रिटिश इंडिया' से अलग करके अलग देश बनाया था मगर इसकी वजह पूर्ण रूपेण भौगोलिक थी। अंग्रेजों ने तब मुस्लिम लीग को आगे करके जिस तरह भारत का बंटवारा किया उसमें मुख्य रूप से पंजाब व बंगाल राज्यों को दो देशों के बीच में विभक्त कर दिया गया।इन दोनों ही राज्यों के रहने वाले लोगों की संस्कृति आज भी एक है मगर धर्म अलग-अलग हैं। अतः आज 74 वर्ष बाद हम भली प्रकार समझ सकते हैं कि अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना के साथ मिल कर यह साजिश केवल इसलिए रची जिससे भारत से उनके जाने के बाद आजाद संयुक्त भारत अपनी अन्तर्निहित शक्ति के बूते पर दुनिया के शक्तिशाली देशों की गिनती में न आ सके क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों की समझ में यह अच्छी तरह आ गया था कि अब उनकी ताकत क्षरण की तरफ चल पड़ी है। इसके बहुत से कारण थे जिनमें आर्थिक कारण सर्वप्रमुख था। अतः पाकिस्तान का निर्माण एक एेसी अन्तर्राष्ट्रीय साजिश नतीजा था जिसे उस समय के पश्चिमी देशों की शह पर अंजाम दिया गया था। अतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत का यह कथन वर्तमान सन्दर्भों में बहुत महत्वपूर्ण है कि विभाजन के इस दर्द को समाप्त किया जाना चाहिए। मगर मूल प्रश्न यह है कि इसका क्या तरीका हो सकता है जिससे दोनों देशों के लोग करीब आयें और उस हिन्दोस्तान की अश्मिता से जुड़ें जो 1947 से पहले उन सभी का देश था। परन्तु इस मामले में पाकिस्तान की जनता और यहां के हुक्मरानों को दिल बड़ा करके और आंखें खोल कर मजहब का चश्मा हटा कर सोचना होगा। जहां तक भारत का प्रश्न है तो यह संविधानतः धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है जिसमें रहने वाले मुसलमानों को बराबर के अधिकार प्राप्त हैं। परन्तु पाकिस्तान 1956 में ही संविधान लागू होने के बाद इस्लामिक देश घोषित हुआ। इससे पहले यहां प्रजातन्त्र था। इसी काल के दौरान समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने भारत-पाक महासंघ बनाने की सलाह दी थी जिसका समर्थन उस समय के जनसंघ के नेता पं. दीन दयाल उपाध्याय ने भी किया था। मगर इसके बाद पाकिस्तान में फौज द्वारा सत्ता पलट कर दिया गया और मार्शल ला लागू होने पर जनरल अयूब इसके हुक्मरान बन गये। अयूब ने 1965 में अकारण ही भारत के जम्मू-कश्मीर इलाके में हमला करके युद्ध को आमन्त्रित किया जिसकी परिणिती ताशकन्द समझौते के रूप में हुई।दरअसल फौजी के शासन के दौरान ही पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ खुली दुश्मनी के तेवर अपनाने शुरू किये और 1947 में जिस हिन्दू विरोध के नाम पर पाकिस्तान का निर्माण किया गया था उसे पाकिस्तानी फौज ने पाकिस्तान के वजूद का सवाल बना दिया। मगर संघ प्रमुख का कहना है कि पाकिस्तान का यह वजूद ही पूरी तरह काल्पनिक है क्योंकि जिस धरती पर पाकिस्तान बना हुआ है उसे अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए संयुक्त रूप से हिन्दू-मुसलमानों ने संघर्ष किया था और यह धरती हिन्दू-मुस्लिम सभी रहने वालों की सांझी 'मां' थी। इसी प्रकार भारत की धरती भी है। प्रश्न किसी धर्म विशेष के मानने वाले लोगों के प्रति दुर्भावना का नहीं बल्कि सांझी 'मां' का है । परन्तु यह कार्य पाकिस्तान को युद्ध में हरा कर नहीं बल्कि उसमें इंसानियत का माद्दा पैदा करके ही किया जा सकता है क्योंकि दोनों देशों के लोग सांझा नदियों का पानी पीते हैं और सांझी तहजीब पर अमल करते हैं। यहां तक कि जिस उर्दू भाषा को पाकिस्तान की राजभाषा का दर्जा प्राप्त है वह भी मूल रूप से भारत में ही जन्मी है। हकीकत तो यह है कि 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने मुस्लिम जमीदारों से लेकर रिसालदारों तक पर जुल्म ढहाने की इंतेहा पार कर दी थी इसके बावजूद हिन्दू-मुस्लिम भाइचारे पर आंच नहीं आयी थी। 1914 में अफगानिस्तान के काबुल शहर में भारत के क्रान्तिकारी नेता राजा महेन्द्र प्रताप ने पहली भारत की आर्जी सरकार बनाई और अपने साथ मुस्लिम नेताओं को इस सरकार में ऊंचे औहदों पर रखा। उस समय राजा महेन्द्र प्रताप को तुर्की के खलीफा का समर्थन भी प्राप्त था। अतः आज मुद्दा यह है कि भारत औऱ पाकिस्तान किस वजह से लड़ रहे हैं और पाकिस्तान ने भारत विरोध को अपने अस्तित्व का प्रश्न क्यों बना रखा है जबकि इसकी धरती में हिन्दोस्तानी सूरमाओं का खून मिला हुआ है। इस हकीकत के बावजूद जिन्ना ने अंग्रेजों की साजिश में शामिल होकर हिन्दू व मुसलमानों को दो नस्ते साबित करने की हिमाकत की और पाकिस्तान का निर्माण करा लिया जबकि 1935 का अंग्रेजों का बनाया गया 'भारत सरकार कानून' ही यह कहता था कि भारत विभिन्न धर्म व पंथ मानने वाले समुदायों का एक 'संघ राज्य' है। दरअसल यह कथन उस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पुष्टि करता है जिसे हम भारतीय संस्कृति के दायरे में रख कर देखते हैं। इसके तहत हिन्दू व मुसलमान अपनी सामाजिक से लेकर आर्थिक गतिविधियों तक एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं। परन्तु 1947 में हमने इस देश के लोगों को मजहब के आधार पर बांट कर 'पानी पर लकीर' खींचने की कोशिश की। मगर पाकिस्तान है कि अब भी भारत की दुश्मनी में ही अपनी असलियत को भुलाने के चक्कर में रहता है। संपादकीय :कोरोना का खतरनाक वेरिएंटकांग्रेस से तृणमूल कांग्रेस में !जनसंख्या के मोर्चे पर अच्छी खबरसैंट्रल विस्टा : देश कीकच्चे तेल के वैश्विकदलित युवक प्रिंस को न्याय !•