सम्पादकीय

पेड हंगामा, अनपेड हंगामा

Rani Sahu
23 Nov 2021 6:57 PM GMT
पेड हंगामा, अनपेड हंगामा
x
जवानी में बिगड़े और सावन में हुए सांड कभी नहीं सुधरते। वे भी जवानी के दिनों के बिगड़े हुए हैं

जवानी में बिगड़े और सावन में हुए सांड कभी नहीं सुधरते। वे भी जवानी के दिनों के बिगड़े हुए हैं। अभी तक तो उनमें सुधरने के कोई आसार दिख नहीं रहे, मरने के बाद सुधर जाएं तो कुछ कहा नहीं जा सकता। अपनी जवानी के दिनों में वे खूब हंगामे किया करते थे। स्कूल, कॉलेज से लेकर सड़क तक। सोचा था, इनके थू्र राजनीति में एंट्री मार लेंगे। राजनीति का रास्ता हंगामों, कूट पीट कर करवा के बीच से होकर ही जाता है। राजनीति में जाने के लिए पढ़ाई लिखाई जरूरी नहीं, बात बात पर हंगामा खड़ा करना अनिवार्य योग्यता है। पर बात न बनी। उनसे जो हंगामें करवाया करते थे, वे उनके हंगामों के बूते उनके किए हंगामों की सीढ़ी से चढ़ राजनीति में फिट हो गए और वे रह गए वहीं के वहीं, मुहल्ला छाप हंगामानवीस! इन्हीं बंधु ने कल फिर मुहल्ले में हंगामा खड़ा कर दिया। वैसे मुहल्ले में हंगामा करना उनके लिए आम है। वे जितनी कुशलता से बेबात का हंगामा खड़ा कर देते हैं वैसा बात होने पर नहीं कर पाते। शायद हंगामा करने को मुद्दे की उतनी जरूरत नहीं होती जितनी माद्दे की होती है। किसी के नल में जल प्रेशर से आ गया और उनके नल में जल उससे कम प्रेशर में आया तो हंगामा! पड़ोसी के घर के आगे मुहल्ले के कुत्ते फारिग न होकर उनके घर के आगे पेट खाली कर गए तो हंगामा!

वे किसी बात को लेकर भी हंगामा कर सकते हैं। हंगामा करना उनका नेचर हो गया है। इसलिए हम उनके हंगामों में आनंद लेते मान उसे निजी मामला मान आगे हो लेते हैं। अबके भी इनके हंगामा करने पर हमने सोचा कि पहले की तरह हंगामा कर अपने आप चुप हो जाएंगे। पर वे हंगामे पर डटे रहे। आखिर तंग आकर हममें से एक तथाकथित शांतिप्रिय ने तब उनसे पूछा, 'बंधु! बड़ी देर हो गई आज तो आपको हंगामा करते करते। अब थक नहीं गए क्या? चाय पकौड़े लाएं जो आपकी इच्छा हो तो?' 'तो क्या हो गया! हंगामा करना मेरा मौलिक अधिकार है', वे नेता की तरह अकड़ते बोले तो मैंने मुहल्ला शांति समिति का प्रधान होने के नाते उनसे आंखें तरेरते, हाथ जोड़ निवेदन किया, 'तो हम कहां इस बात से इनकार कर रहे हैं कि हंगामा करना हमारा तुम्हारा मौलिक अधिकार नहीं है?
शाबाश! अब घर जाओ! कल फिर हंगामा कर लेना।' 'नहीं। आज तो हंगामे के पैसे लूंगा।' 'हद है यार! यहां काम के पैसे नहीं मिल रहे और बंधु हैं कि हंगामे के पैसे मांग रहे हैं?' 'मतलब?' मैं डरा भी बंदे में किसी एमएलए, सांसद की आत्मा तो प्रवेश नहीं कर गई? हंगामों की पेमेंट तो हम उन्हीं को करते आए हैं आज तक। अपना पेट काटकर। 'जब संसद में हंगामा करने के पैसे मिलते हैं तो मुहल्ले में क्यों नहीं? क्या मुहल्ला संसद से कम है? क्या मुहल्ले का हंगामा संसद के हंगामे का आधार नहीं?' 'देखो दोस्त! बात बात पर हंगामा करने के पैसे विधानसभा, संसद में ही मिलते हैं, मुहल्ले में नहीं। मुहल्ले, सड़क के हंगामे अनपेड ही होते हैं। वहां सफलतापूर्वक शांति भंग करने पर पार्टी के पेड वर्करों को छोड़ औरों को केवल गालियां ही मिलती हैं। तुम सुन पाओ या न!' मैंने उन्हें कड़वे सच से वाकिफ करवाना चाहा, पर वे नहीं माने। बस, हंगामे पर ही डटे रहे। किसी पार्टी में उनके लिए कोई जगह हो तो उन्हें उठा ले जाइए प्लीज! अब उनका हंगामा हमसे और सहन नहीं होता। और तो हम इनकी किसी बात की गारंटी नहीं देते, पर इस बात की गारंटी आंखें मूंद कर जरूर देते हैं कि उनका किया हंगामा आपको विधानसभा, राज्यसभा, संसद कहीं भी, कभी भी हताश, निराश नहीं करेगा।
अशोक गौतम

Next Story