सम्पादकीय

पहाड़ी गांधी का स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान

Gulabi
14 Oct 2021 6:01 AM GMT
पहाड़ी गांधी का स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान
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इसी दौरान ऊना जिले के दौलतपुर में आयोजित एक सभा में सरोजिनी नायडू ने उनकी कविताएं और गीत सुने।

वे मंत्रमुग्ध हो गईं। तब भारत कोकिला ने बाबा कांशीराम को 'बुलबुल-ए-पहाड़' की उपाधि दी। जेल यात्राएं और लेखन के साथ-साथ स्वतंत्रता का बिगुल बजता रहा। फिर वर्ष 1931 में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सज़ा सुनाई गई। तब बाबा बहुत दुखी हुए और उन्होंने प्रण लिया कि जब तक भारत आज़ाद नहीं हो जाता, वे काले वस्त्र ही धारण करेंगे। यह प्रण उन्होंने मरते दम तक नहीं तोड़ा। वर्ष 1943 में 15 अक्तूबर को उन्होंने अंतिम सांस ली। तब भी उनके बदन पर काले कपड़े ही थे। कहते हैं कि उनके प्रण को ध्यान में रखते हुए उन्हें कफन भी काला ही दिया गया था…


'मैं कुण, कुण घराना मेरा, सारा हिन्दुस्तान ए मेरा, भारत मां है मेरी माता, ओ जंजीरां जकड़ी ए…', पहाड़ी गांधी के ये गीत आज भी हिमाचल की वादियों में गूंजते हैं। महात्मा गांधी जैसे व्यक्तित्व से भला कौन अछूता रह सकता है। अहिंसा और शांति के प्रतीक गांधी जी ने ग्रासरूट स्तर पर बड़ी सादगी से काम किया। इसी कारण उनके जीवन का अनुकरण करने वाले या उनके अनुयायियों की आज भी कोई कमी नहीं है। गांधी जी कभी नहीं मर सकते क्योंकि यह एक ऐसी विचारधारा है जिसने भारत ही नहीं, बल्कि विश्व में कुछ लोगों को कुछ-कुछ गांधी सा ही बना दिया। जबकि गांधी जी ने कभी अपने जैसे बनने का कोई संदेश नहीं दिया था। उनकी शिक्षा केवल सत्य को पहचानने के प्रयास की ही थी। अमेरिका के मार्टिन लूथर किंग जूनियर, दक्षिण अफ्रीका के नेल्सन मंडेला, चीन की वू पेई, बलूचिस्तान के सीमांत गांधी और हिमाचल की वादियों में अंग्रेज़ों के खिलाफ़ संघर्षरत रहने वाले बाबा कांशीराम थे। उन्हें 'पहाड़ी गांधी', 'बुलबुल-ए-पहाड़' और 'काले कपड़ों वाला जरनैल' भी कहा जाता है। वर्ष 1937 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें होशियारपुर की एक सभा के दौरान पहाड़ी गांधी के नाम से संबोधित किया था। तभी से वे पहाड़ी गांधी के नाम से पहचाने जाने लगे। बाबा कांशी राम ने साहित्य और संगीत द्वारा लोगों में जन चेतना का काम किया। इनके साहित्य की सबसे खास बात यह रही कि उन्होंने अपनी सारी रचनाएं लोक जनभाषा पहाड़ी में ही लिखी ताकि जनजन तक उनकी बात पहुंचे और वे अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ आवाज़ बुलंद करें। यहां तक कि गांधी जी के संदेश भी वे पहाड़ी भाषा में अपने गीतों और कविताओं के माध्यम से पहुंचाते थे। इसके अलावा उन्होंने समाज में व्याप्त छुआछूत जैसी बुराइयों के खिलाफ भी अपने साहित्य के माध्यम से आवाज़ उठाई। इसी कारण उनके साहित्य में विश्वबंधुत्व और मानव धर्म के दर्शन होते हैं। कांशीराम का जन्म हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के डाडासीबा गांव में हुआ था। छोटी उम्र में ही विवाह हो गया। किंतु उन्होंने अपनी गांव की शिक्षा अधूरी नहीं छोड़ी।
माता-पिता की मृत्यु के बाद वे नौकरी की तलाश में लाहौर चले गए। यहां बाबा कांशीराम की मुलाकात लालचंद ़फलक और सू़फी अंबा प्रसाद से हुई, जो देशभक्ति के गीत लिखते थे। उनके प्रभाव के कारण वे पूरी तरह स्वतंत्रता आंदोलन में कूद गए थे। इस दौरान उनकी नज़दीकियां लाला लाजपत राय से भी बढ़ने लगी थीं। वर्ष 1905 में हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी में 7.8 तीव्रता का भूकंप आया। हज़ारों-हज़ार लोग और मवेशी मारे गए। चारों तरफ़ तबाही का मंज़र था, तब अन्य नेताओं के साथ राहत कार्य के लिए बाबा कांशी राम भी लाहौर से कांगड़ा पहुंचे। गांव-गांव, घर-घर जाकर भूकंप पीडि़तों की मदद की। इस समय भी उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी सक्रियता नहीं छोड़ी। वर्ष 1911 में दिल्ली में किंग जार्ज पंचम को भारत का राजा घोषित किया गया था। बाबा कांशीराम भी इस सरकारी आयोजन को देखने दिल्ली आ पहुंचे। इसके बाद उनके मन में अंगेज़ों से लोहा लेने की इच्छा और भी प्रबल हो गई। उन्होंने अपने साहित्यिक हथियार लेखनी को और धारदार बना अंग्रेज़ों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम के हवन में आहुति डाली। अपनी लेखनी और जनजागरण में चेतना फूंकते हुए वर्ष 1919 में वे अमृतसर पहुंचे। उसी दौरान ऐतिहासिक अमानवीय घृणित कांड जलियांवाला बाग हत्याकांड को अंग्रेज़ों ने अंजाम दिया। अब तो बाबा कांशीराम और भी उग्र हो गए, जिसके कारण 5 मई 1920 को उन्हें धर्मशाला की जेल में डाल दिया गया। जेल में भी उन्होंने अपने तेज़धार साहित्यिक हथियार को कुंद नहीं होने दिया। वे लगातार गीत, कविताएं व कहानियां लिखते रहे।

मोटे तौर पर उन्होंने आठ कहानियां, एक उपन्यास और 508 कविताएं लिखीं। बाबा कांशीराम ने अपने जीवन के नौ साल विभिन्न जेलों में काटे और ग्यारह बार उन्हें लोगों को शासन के खिलाफ भड़काने के जुर्म में जेल की सजा सुनाई गई। इसी दौरान ऊना जिले के दौलतपुर में आयोजित एक सभा में सरोजिनी नायडू ने उनकी कविताएं और गीत सुने। वे मंत्रमुग्ध हो गईं। तब भारत कोकिला ने बाबा कांशीराम को 'बुलबुल-ए-पहाड़' की उपाधि दी। जेल यात्राएं और लेखन के साथ-साथ स्वतंत्रता का बिगुल बजता रहा। फिर वर्ष 1931 में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सज़ा सुनाई गई। तब बाबा बहुत दुखी हुए और उन्होंने प्रण लिया कि जब तक भारत आज़ाद नहीं हो जाता, वे काले वस्त्र ही धारण करेंगे। यह प्रण उन्होंने मरते दम तक नहीं तोड़ा। वर्ष 1943 में 15 अक्तूबर को उन्होंने अंतिम सांस ली। तब भी उनके बदन पर काले कपड़े ही थे। कहते हैं कि उनके प्रण को ध्यान में रखते हुए उन्हें कफन भी काला ही दिया गया था। इस सारे घटनाक्रम के चलते लोग उन्हें काले कपड़ों वाला जरनैल भी कहते थे। सादा जीवन, उच्च विचारों को जीने वाले पहाड़ी गांधी ने अपना पूरा जीवन देश को समर्पित कर दिया। वर्ष 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बाबा कांशीराम के सम्मान में डाक टिकट का विमोचन किया था। इसके अलावा अभी तक उनके घर को स्मारक बनाने का प्रयास भी किया जा रहा है, ताकि हिमाचल प्रदेश के लोग भी सिर ऊंचा करके कह सकें कि एक गांधी ये भी थे। वे सदा अमर रहेंगे।

अरुणा घवाना
लेखिका दिल्ली से हैं
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