सम्पादकीय

इतिहास के पन्ने : भारतीय ज्ञान परंपरा में काणे का महत्व, शास्त्र चिंतन और संस्कृत को समर्पित रहे

Neha Dani
7 May 2022 1:42 AM GMT
इतिहास के पन्ने : भारतीय ज्ञान परंपरा में काणे का महत्व, शास्त्र चिंतन और संस्कृत को समर्पित रहे
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इनकार करेगा? भारत रत्न डॉ. पांडुरंग वामन काणे की 142वीं जयंती पर उन्हें याद करना तभी सार्थक है, जब हम भारत और उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझें।

भारतीय राजनीति में कुछ ही लोग डॉ. पीवी काणे का महत्व समझते हैं। भारतीय चिंतन, धर्म और अध्यात्म पर काम करने वालों में काणे का नाम अग्र पंक्ति में है। वह न केवल संस्कृत एवं प्राच्य विद्याओं के विशारद थे, बल्कि विधिज्ञ भी थे। डॉ. काणे संस्कृत के आचार्य, मुंबई विश्वविद्यालय के कुलपति तथा सन 1953 से 1959 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे। उन्होंने पेरिस, इस्तांबुल तथा कैंब्रिज के प्राच्यविज्ञ सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया।

1956 में उन्हें धर्मशास्त्र का इतिहास के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया गया। पं. जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने 1963 में काणे को भारत रत्न के सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत किया। महाराष्ट्र के रत्नागिरि में सात मई, 1880 को जन्मे काणे ने सोचा भी नहीं था कि वह भारतीय धर्मशास्त्र का इतिहास लिख डालेंगे। वह तो धर्मशास्त्र के एक ग्रंथ व्यवहार-मयूख की रचना में लगे थे और उनके मन में आया कि पुस्तक का परिचय लिखा जाए, ताकि पाठकों को धर्मशास्त्र के इतिहास की संक्षिप्त जानकारी हो सके।
इसी प्रयास में काणे एक ग्रंथ से दूसरे ग्रंथ, एक खोज से दूसरी खोज, एक सूचना से दूसरी सूचना तक बढ़ते चले गए और पृष्ठ दर पृष्ठ लिखते गए। नतीजतन भारतीय ज्ञान परंपरा के इतिहास में एक बड़ा काम हो गया। धर्मशास्त्र का इतिहास का पहला खंड 1930 में प्रकाशित हुआ, तो पूरी दुनिया में पुरातन ज्ञान की नई हलचल मच गई।
पुस्तक के प्राक्क्थन में काणे ने स्वयं लिखा है, व्यवहार-मयूख के संस्करण के लिए सामग्री संकलित करते समय मेरे ध्यान में आया कि जिस प्रकार मैंने साहित्य दर्पण में प्राक्कथन के रूप में अलंकार साहित्य का इतिहास नामक एक प्रकरण लिखा है, उसी पद्धति पर व्यवहार-मयूख में भी एक प्रकरण संलग्न कर दूं, जो निश्चय ही धर्मशास्त्र के छात्रों के लिए लाभप्रद होगा। जैसे-जैसे धर्मशास्त्र का अध्ययन करता गया, मुझे लगा कि सामग्री अत्यंत विस्तृत एवं विशिष्ट है, उसे एक संक्षिप्त परिचय में आबद्ध करने से उसका उचित निरूपण न हो सकेगा।
साथ ही उसकी प्रचुरता के समुचित परिज्ञान, सामाजिक मान्यताओं के अध्ययन, तुलनात्मक विधि शास्त्र तथा अन्य विविध शास्त्रों के लिए उसकी जो महत्ता है, उसका भी अपेक्षित प्रतिपादन न हो सकेगा। निदान, मैंने निश्चय किया कि स्वतंत्र रूप से धर्मशास्त्र का एक इतिहास ही लिपिबद्ध करूं। इसमें वैदिक काल से आधुनिक काल तक के न केवल धर्मग्रंथ, बल्कि तमाम विधि-विधान, सामाजिक रीति-रिवाज का भी पर्याप्त विवरण है। काणे के धर्मशास्त्र का इतिहास के पांच खंड प्रकाशित हुए।
पांचवां खंड 1962 में आया। यह काम इतना अद्भुत, उपयोगी और अतुलनीय है कि भारत सरकार इसकी अनदेखी नहीं कर सकी। कहना चाहिए कि काणे ऐसे 'भारत रत्न' हैं, जो शास्त्र चिंतन व संस्कृत को समर्पित रहे हैं। आज जब संस्कृत की लगातार उपेक्षा हो रही है, तो काणे को याद रखना बहुत जरूरी है। उन्होंने पूरा जीवन धर्मशास्त्र के अध्ययन में समर्पित कर दिया। इसके अलावा भी उनके अनेक ग्रंथ प्रकाशित हुए।
उत्तररामचरित से लेकर कादंबरी, हर्षचरित, हिंदुओं के रीति-रिवाज तथा आधुनिक विधि और संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास उनकी कृतियां हैं। उनके द्वारा रचा गया ज्ञान कोश अंग्रेजी, संस्कृत और मराठी भाषा में उपलब्ध है। काणे ने 18 अप्रैल, 1972 को शरीर त्याग दिया, लेकिन जो अनमोल ज्ञान वह छोड़ गए हैं, उसका महत्व अपरिमित है। जब भी भारतीय संस्कृति को लेकर कोई विवाद उठता है, तो काणे की रचनाओं से उद्धरण दिए जाते हैं।
उनकी कल्पना तार्किक थी। उन्होंने लिखा, 'भारतीय संविधान भारतीय संस्कृति के अनुरूप नहीं है, क्योंकि लोगों को अधिकार तो दिए गए हैं, लेकिन जिम्मेदारी नहीं दी गई।' आज कौन उनकी इस बात से इनकार करेगा? भारत रत्न डॉ. पांडुरंग वामन काणे की 142वीं जयंती पर उन्हें याद करना तभी सार्थक है, जब हम भारत और उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझें।

सोर्स: अमर उजाला

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