सम्पादकीय

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी : सरस्वती के अनूठे संपादक का स्मरण, भारत को अपनी परिधि में समेटती लेखनी

Neha Dani
29 May 2022 1:44 AM GMT
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी : सरस्वती के अनूठे संपादक का स्मरण, भारत को अपनी परिधि में समेटती लेखनी
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उसकी अध्यवसायिता को लेकर सवाल खड़े नहीं किए जाने चाहिए। यह अलग बात है कि जो कुछ उन्होंने लिखा उससे वैचारिक सहमति जरूरी नहीं है।

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के लेखन का भूगोल खैरागढ़ (छत्तीसगढ़) से उत्तर प्रदेश की साहित्यिक राजधानी इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के मार्फत सारे हिंदी जगत में फैला। डायरी विधा या ठर्र बुद्धिजीवी गद्य या कथा विधा या कथा-आलोचना या कथा-निबंध हो। मास्टरजी उस दुनिया के एक उद्धारक थे। पोस्टकार्ड पर आवेदन क्या कर दिया, सरस्वती के संस्थापक संपादक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी उन्हें संपादक नियुक्त करने इलाहाबाद स्टेशन पर स्वागत करने आ गए।

छत्तीसगढ़ के माधवराव सप्रे की कहानी टोकरी भर मिट्टी हिंदी की पहली कहानियों में कही जाती है। मुकुटधर पांडेय और बख्शी जी ने छायावादी काव्य और गद्य में पहली दस्तकों में शामिल होने का श्रेय प्राप्त किया। उनके निबंध पढ़ने से कहानी झांकने लगती है। कहानी की उंगली पकड़कर चलने से कविता की तरलता महसूस होती है। फिर विचार ही विचार झकझोरते लगते हैं। फिर पाठक निबंध के ठौर पहुंच जाता है। बख्शी जी की कलम साहित्य के नियामक मूल्यों, नए प्रयोगों और लेखन की ताकत का प्रामाणिक और स्वीकार्य ईंधन बनी। बख्शी जी की भाषा शास्त्रीय, अलंकारिक, टकसाली या पंडिताऊ किस्म की ठर्र नहीं है। वह आमफहम, चुस्त, तरल और तराशी हुई है।
बख्शी जी की सोच पूरे विश्व और भारत को अपनी परिधि में समेटती है। हिंदी के स्वनामधन्य आलोचक शायद अतिरिक्त उत्साह में बख्शी जी को हिंदी का ए. जी. गार्डिनर कह देते हैं। गार्डिनर लेकिन-अंग्रेजी के बख्शी नहीं हैं। बख्शी जी हिंदी गद्य के जोसेफ एडिसन हैं, हालांकि उसका रूपांतरण नहीं। बख्शी जी में कबीर के तेवर नहीं, लेकिन नस्ल का वैचारिक फक्कड़पन और गांधी की तरह की आर्द्र मानवीय गरिमा है।
बख्शी जी ठंडे रचनाकार नहीं थे। उनमें जीवंत मनुष्य बैठा हुआ है। जोखिम उठाने में बख्शी जी ने स्थापित आचार्यों का पूर्व अनुमोदन प्राप्त करने की जरूरत नहीं समझी। उन्हें मालूम था अंग्रेजी बौद्धिक अवधारणाओं की भाषा है। इसलिए उन्होंने अंग्रेजी में खूब पढ़ा। बौद्धिकता की जाति, धर्म, या लिंग नहीं होते। भाषा की जाति होती है और जाति की भी भाषा होती है-तत्सम या तद्भव शब्द हों, या भाषा की लाक्षणिकता हो, अभिधा या व्यंजना हो।
बख्शी जी ने अपने समकालीनों के मुकाबले पहाड़ी नदी-सी बहती हिंदी के बीसवीं सदी के दूसरे, तीसरे, चौथे दशक में भाषा का परिष्कार किया। वह आज भी समकालीन लगती है। इसलिए आलोचक बख्शी रामचंद्र शुक्ल जैसे शलाका पुरुष के बरक्स यह कहने का साहस संजो सका कि जो कविता का सैलाब आया है, वह रहस्यवाद नहीं, अपने रोमेन्टिसिज्म के कारण स्वच्छंदतावाद है। पोस्टकार्ड पर सरस्वती की संपादकी ऐसा ही जोखिम उठाने से मिलती है।
धनंजय वर्मा ठीक कहते हैं, कथा-आलोचना की जिस विधा को समुन्नत करने का ढोंग बहुत से आलोचक पाले हुए हैं, उस विधा की शुरुआत मास्टरजी के शिल्पी हाथों ने की है। कमलेश्वर तो बख्शी जी पर फिदा रहे हैं। ललित निबंधकार के रूप में बख्शी का अप्रतिम योगदान है। अग्रणी ललित निबंधकार रमेशचंद्र शाह इस विधा में बख्शी जी को गुरु मानते हैं। उनके निबंध एक साथ चन्द्रकान्ता-सन्तति, गोदान, छोटी बहू और अरे यायावर रहेगा याद के सम्मिश्रण का घोल हैं।
उनके विषाल जखीरे की कई कहानियां अपने भ्रूण में हेनरी जेम्स, वर्जीनिया वुल्फ और जेम्स जॉयस की कहानियों की याद दिलाती हैं। उन कहानियों की वय बढ़ते-बढ़ते न केवल शैली बदल जाती है, परंतु प्रयोजनीयता भी। बख्शी जी कई मायनों में प्रगतिशील विचार रखते थे, तो पुरातनपंथी हिंदू भी थे। सामाजिक वर्जनाओं, जड़ताओं और वहशी प्रथाओं के विरुद्ध मास्टरजी ने जगह-जगह और समय-समय पर कुछ न कुछ लिखा है। वहीं दूसरी ओर अनेक ऐसे संस्मरण-उद्धरण मौजूद हैं, जब उन्होंने सामाजिक व्यवहार के यथास्थितिवाद का पोषण भी किया है।
बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध भारत के लिए खलबली का समय रहा है। दो विश्वयुद्धों के अतिरिक्त भारतीय आजादी की लड़ाई का यही कालखंड है। बख्शी जी का शुरुआती लेखन प्रथम विश्वयुद्ध के साथ-साथ शुरू हुआ। उनका प्रौढ़ लेखन दूसरे विश्वयुद्ध के समय परवान चढ़ा। सत्रह वर्ष की उम्र में लिखी कहानी सोना निकालने वाली सीपियां और भाग्य से प्रभावित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें आमंत्रित किया। पंचपात्र, झलमला, कथाचक्र, मोटर स्टैण्ड, बंदर की शिक्षा, हिंदी साहित्य जैसी कुछ बड़ी सीपियों में मोती मिलते हैं। लगभग 1935 तक के अपने लेखन को वह मौलिकता और प्रौढ़ता के अभाव के कारण बहुत निर्ममतापूर्वक खारिज कर देते हैं।
अपने एक दर्जन निबंध छांटकर छपाना चाहते थे। बख्शी जी लेखन को पार्ट टाइम गतिविधि नहीं, पूर्णकालिक जीवन प्रयोजन मानते थे। यह प्रगतिशील फतवा है कि बख्शी जी बौद्धिक किस्म के लेखक नहीं थे। जिस व्यक्ति ने अपने स्कूली जीवन से लेकर आखिरी सांस तक देश के इने गिने पढ़ाकुओं के बीच सम्मानजनक स्थान सुनिश्चित किया, उसकी अध्यवसायिता को लेकर सवाल खड़े नहीं किए जाने चाहिए। यह अलग बात है कि जो कुछ उन्होंने लिखा उससे वैचारिक सहमति जरूरी नहीं है।

सोर्स: अमर उजाला

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