सम्पादकीय

प. बंगाल में भीषण चुनावी रण

Gulabi
20 Jan 2021 10:17 AM GMT
प. बंगाल में भीषण चुनावी रण
x
इसमें अब कोई दो राय नहीं है कि प. बंगाल राज्य में विधानसभा चुनावों के लिए इस बार भीषण लोकतान्त्रिक युद्ध होगा।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। इसमें अब कोई दो राय नहीं है कि प. बंगाल राज्य में विधानसभा चुनावों के लिए इस बार भीषण लोकतान्त्रिक युद्ध होगा। अगर हम इस राज्य के राजनीतिक इतिहास को खंगालें तो स्वतन्त्रता के बाद पहली बार राष्ट्रवादी विचारों का प्रत्यक्ष युद्ध धर्म निरपेक्ष और समाजवाद से अभिप्रेरित सैद्धांतिक विचारों से होगा। एक मायने में ये चुनाव भारत की राजनीति में सैद्धान्तिक लड़ाई को पुख्ता बनाने का काम भी कर सकते हैं जिनमें व्यक्ति की भूमिका संस्था से निचले पायदान पर होती है। जाहिर तौर पर राज्य की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी इस युद्ध के केन्द्र में रहेंगी क्योंकि वह स्वतन्त्रता के बाद से इस राज्य में चली आ रही उस वैचारिक धारा का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसके लिए यह राज्य अभी तक पहचाना जाता रहा है परन्तु इसके ठीक विपरीत इसी राज्य की वैचारिक गंगा से भाजपा (जनसंघ) के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का भी उदय हुआ था जो मूल रूप से एक शिक्षा शास्त्री थे। अतः यह देखना बहुत ही दिलचस्प होगा कि भारत की आजादी के 73 वर्ष बीत जाने के बाद इस राज्य का वैचारिक विवेक कौन सा रुख अख्तियार करता है?


मौजूदा विधानसभा में भाजपा के मात्र तीन विधायक होने के बावजूद इस पार्टी ने पिछले लोकसभा चुनावों में जिस तरह छलांग लगा कर राज्य की कुल 42 में से 18 सीटों पर विजय प्राप्त की थी, वह प. बंगाल के संसदीय चुनावी लोकतन्त्र में एक रिकार्ड है। इसी वजह से यह मान कर चला जा रहा है कि एक जमाने तक कांग्रेस व वामपंथियों का गढ़ रहे इस राज्य में इस बार असली मुकाबला ममता दी की तृणमूल कांग्रेस व भाजपा में होगा। इस सन्दर्भ में जिस तरह ममता दी की पार्टी से टूट-टूट कर प्रभावशाली नेता भाजपा में शामिल हो रहे हैं उससे इस पार्टी का मनोबल बढ़ रहा है परन्तु यह शिखर राजनीति का खेल है, जमीनी राजनीति में हमें यह परखना होगा कि भाजपा की मूल विचारधारा को मानने वाले इसी राज्य के शुरू से ही उसका झंडा उठा कर चलने वाले नेताओं का आम मतदाताओं में कितना असर है। अन्य पार्टियों से भाजपा में आने वाले नेता उस सैद्धांतिक धारा का प्रतिनिधित्व कदाचित नहीं कर सकते जिसके लिए भाजपा जानी जाती है और जिसके आधार पर उसने शेष भारत में अपना विस्तार किया है। दूसरे विधानसभा चुनावों की तुलना लोकसभा चुनावों से करना मूर्खता होगी क्योंकि उन चुनावों ने प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की सशक्त छवि के साये में लोगों ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर वोट दिया था।

भारत की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जब राष्ट्रीय सुरक्षा की बात आती है तो पूरे भारत के लोग सभी विवाद व मनमुटाव भूल कर 'एक' हो जाते हैं। इसके साथ यह भी हकीकत है कि जनसंघ काल से ही भाजपा के ​िलए राष्ट्रीय सुरक्षा एक महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा रहा है। इस मामले में पार्टी स्व. अटल बिहारी वाजपेयी जैसे उदार समझे जाने वाले नेता के समय में भी उग्र रुख अपनाने से नहीं चूकती थी। प. बंगाल से हालांकि बंगलादेश की सीमाएं लगी हुई हैं परन्तु इस देश की बांग्ला संस्कृति भारत के साथ अत्यन्त मधुर सम्बन्ध बनाये रखने के लिए हमेशा प्रेरणा का काम करती रहती है बल्कि असलियत यह है कि बांग्लादेश का उदय पाकिस्तान से टूट कर इसी वजह से हुआ। अतः इस राज्य में अलग-अलग धार्मिक पहचान वाले लोग अंत में अपनी बांग्ला पहचान से जुड़ जाते हैं। इस तथ्य को सभी राजनीतिक दलों को ध्यान में रखना होगा कि यहां के चुनावी जलसों में सभी हिन्दू- मुसलमान मतदाता 'वन्देमातरम्' उद्घोष के साथ अपनी-अपनी पार्टी की विजय के लिए काम करते हैं। इसके साथ ही यहां के निवासियों में खान-पान व पहनावे की अद्भुत समानता है। अतः जब आल इंडिया इत्तेहादे मुसलमीन पार्टी के नेता ओसुद्दीन ओवैसी ने यहां से चुनाव लड़ने की घोषणा की और अपने साथ एक मुस्लिम धार्मिक नेता के गठजोड़ की घोषणा की तो ममता दीदी ने इसे कोई खास तवज्जो नहीं दी परन्तु नन्दीग्राम से खुद चुनाव लड़ने की घोषणा करके उन्होंने साफ कर दिया है कि उनका मुकाबला इस बार बहुत सख्त होने जा रहा है क्योंकि भाजपा ने उनके संगठन में ही सेंध लगा कर उनकी मजबूत सीट छीनने की चुनावी चौसर सफलतापूर्वक बिछाने की शुरूआत कर दी है। इस इलाके में कल तक ममता दी का दायां हाथ समझे जाने वाले उन्हीं के मन्त्रिमंडल के साथी शुभेन्दु अधिकारी का खासा प्रभाव माना जाता है और उनके पिता व एक छोटे भाई ममता दी की पार्टी के अभी तक सांसद हैं। शुभेन्दु के भाजपा में जाने के असर को ही खत्म करने के लिए ममता दी ने यह दांव खेला है। यह दांव उनके पार्टी कार्यकर्ताओं में कहां तक विश्वास जमा सकेगा, यह तो समय ही बतायेगा मगर इतना निश्चित हो चुका है कि ममता दी के पास पाने को बहुत 'कम' और खोने को बहुत 'ज्यादा' है।

भाजपा के लिए यही स्थिति स्फूर्तिदायक है जिसका उपयोग वह जनसमर्थन जुटाने में करना चाहेगी परन्तु ममता दी के पक्ष में एक तथ्य बहुत कारगर तरीके से काम कर रहा है कि उनके मुकाबले में भाजपा मुख्यमन्त्री पद के दावेदार प्रत्याशी का चयन करने में हिचकिचाहट महसूस कर रही है। हालांकि अंत में चुनावों में इस तथ्य की महत्ता तब घटने की उम्मीद है जब चुनाव प्रचार की बागडोर प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी स्वयं संभालेंगे परन्तु यह वास्तविकता पूरे चुनावी अभियान में बनी ही रहेगी। दूसरे ममता दी चुंकि स्वयं जमीनी संघर्ष करके जन नेता बनी हैं तो वह हर मोर्चे पर भाजपा का मुकाबला स्वयं ही करने का प्रयास करेंगी और देश की एक मात्र महिला मुख्यमन्त्री होने का लाभ उठाने से भी नहीं चूकेंगी लेकिन एक गलती वह कर गई हैं जो उनकी राजनीति से मेल नहीं खाता कि उन्होंने राजनीतिक सलाहकार के तौर पर कथित चुनावी रणनीतिकार प्रशान्त किशोर को अपनी नौकरी में रख लिया है। तृणमूल कांग्रेस के भीतर किसी गैर राजनीतिक व्यक्ति को राजनीति करने के लिए प्रमुख भूमिका देने का भी भारी विरोध हो रहा है। जबकि भाजपा में चुनावी राजनीति के माहिर और चतुर खिलाड़ी गृहमन्त्री श्री अमित शाह हैं। बिहार में हारी हुई बाजी उन्होंने इन चुनावों से दूर रहते हुए भी किस प्रकार जीती, इसे देख कर बेशक दांतों तले अंगुली दबाई जा सकती है।


Next Story