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प्रधानमंत्री मोदी ने खराब भुगतान की पुरानी आदत और देश में ऊर्जा संकट की ओर ध्यान आकर्षित कराया है
By: divyahimachal
प्रधानमंत्री मोदी ने खराब भुगतान की पुरानी आदत और देश में ऊर्जा संकट की ओर ध्यान आकर्षित कराया है। यह संकट 2.5 लाख करोड़ रुपए से अधिक का है, लिहाजा हालात सामान्य नहीं हैं। प्रधानमंत्री का बयान भी गंभीर है, आगाह करने वाला है, क्योंकि बिजली भुगतान का बकाया बना रहेगा और बिजली उत्पादक कंपनियों का घाटा बढ़ता रहेगा, तो एक स्थिति यह भी आ सकती है कि बिजली पैदा करने का सवाल खड़ा हो जाए और देश का बड़ा हिस्सा अंधेरे में डूबता लगे! यदि मौजूदा बिजली संकट को आम नागरिक के नज़रिये से देखें, तो वह मासूम और बेकसूर है। औसतन नागरिक समयबद्ध तरीके से बिजली के बिल का भुगतान करता है। उसे बिजली कनेक्शन काट दिए जाने का भी भय रहता है। सवाल यह है कि ऐसे भुगतान के अरबों रुपए कहां ठहर जाते हैं या रोक लिए जाते हैं अथवा सबसिडी का भुगतान भी नियमित तौर पर नहीं किया जाता। सरकार के खातों में कई फ्रॉड दफन हैं। उनकी जांच होनी चाहिए। देश में लगभग सभी सरकारें सबसिडी मुहैया कराती हैं, लेकिन उसका यथासमय भुगतान न करने से बिजली वितरण के नुकसान भी बढ़ते रहते हैं।
नतीजतन बिजली उत्पादक कंपनियों पर भी व्यापक आर्थिक प्रभाव पड़ते हैं। बीते जुलाई माह तक 1.13 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा राज्यों पर अथवा बिजली वितरण कंपनियों पर बकाया थे, जो उन्हें उत्पादक कंपनियों को देने चाहिए थे। बिजली वितरण कंपनियों का अपना रोना है कि उनका कुल घाटा 5,22,869 करोड़ रुपए का है। यानी जिस संकट का खुलासा प्रधानमंत्री ने देश के सामने किया है, संकट उससे भी ज्यादा गहरा और व्यापक है। सरकारी डाटा के मुताबिक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, तेलंगाना, उप्र और जम्मू-कश्मीर आदि राज्यों और संघशासित क्षेत्र पर सबसे ज्यादा बकाया शेष है। तमिलनाडु पर 25,553 करोड़, महाराष्ट्र पर 19,745 करोड़, उप्र पर 10,755 करोड़ और जम्मू-कश्मीर के हिस्से 10,669 करोड़ रुपए के करीब बिजली भुगतान का बकाया खड़ा है। इनके अलावा मप्र, बिहार, कर्नाटक, हरियाणा, झारखंड, राजस्थान, बंगाल, केरल, पंजाब और आंध्रप्रदेश आदि राज्य भी इसी 'हम्माम में नंगे' हैं। सवाल है कि राज्यों के बिजली बोर्ड या बिजली वितरण कंपनियां, बिजली उत्पादक कंपनियों से, जो बिजली लेती रही हैं, उनका समयबद्ध भुगतान क्यों नहीं करतीं? इसका सीधा असर उत्पादक कंपनियों की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है, क्योंकि वे अपने आर्थिक दायित्व पूरे नहीं कर पातीं। प्रधानमंत्री ने घोषणा की है कि उत्पादक कंपनियां बेहद वित्तीय संकट में हैं और उनका घाटा 2020 में ही 5 लाख करोड़ रुपए पार कर चुका है। प्रधानमंत्री खुद दखल देकर इसका समाधान निकाल सकते हैं।
वे सर्वदलीय और मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाएं और ऊर्जा-संकट के प्रति सचेत करें। भारत सरकार ने 2016 में बिजली की दर और लागत संबंधी जो नीति तैयार की थी, वह वितरण के नुकसान के 20 फीसदी तक सबसिडी की अनुमति देती है। बिजली कानून के मुताबिक, वितरण कंपनियों को सबसिडी की राशि अग्रिम दी जानी चाहिए। यदि कानून का अक्षरश: पालन किया जाए, तो बिजली पर सबसिडी दी जा सकती है, बिजली सस्ती दी जा सकती है या बिजली की आपर्ति मुफ्त की जा सकती है। राजधानी दिल्ली में 200 यूनिट तक बिजली नि:शुल्क है, फिर भी बजटीय घाटा अपनी सीमा में है। दिल्ली पर बकाया मात्र 3 करोड़ रुपए है। यह इसलिए है, क्योंकि सरकार सबसिडी का भुगतान वितरण कंपनियों को नियमित करती रही है। बहरहाल प्रधानमंत्री ने जो चिंता और सरोकार व्यक्त किए हैं, वे वित्तीय समस्या से जुड़े हैं। वह दलीय राजनीति नहीं है। राज्य भारत सरकार से भी कजऱ् और अनुदान लेते रहे हैं, करों में उनकी जो हिस्सेदारी है, वह भी देर-सबेर उन्हें मिल जाती है, उनका बजट अपने संसाधनों पर आधारित है, फिर भी राज्यों पर कजऱ् और बकाए का बोझ बना रहता है। कमोबेश यह विरोधाभास स्पष्ट होना चाहिए। बीते दो दशकों में भारत सरकार भुगतान के बकाए की दुरावस्था का कोई हल नहीं ढूंढ सकी है, लिहाजा बकाया बढ़ता जा रहा है। केरल और हिमाचल प्रदेश में बिजली सबसिडी कंपनियों को देने के बजाय सीधा उपभोक्ता को ट्रांसफर कर दी जाती है, लिहाजा बकाया लटकता नहीं रहता और आम नागरिक तक सबसिडी पहुंच भी जाती है। दूसरे राज्य भी यह प्रयोग कर सकते हैं, लेकिन हमारा मानना है कि प्रधानमंत्री अविलंब मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाएं, ताकि किसी साझा निष्कर्ष तक पहुंचने की बात आगे बढ़ सके।

Rani Sahu
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