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मेहनतकशों को गर्मी में राहत देने के मामले में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है व इस ओर अधिक ध्यान देने में अब और देर नहीं करनी चाहिए।
हाल के वर्षों में ऐतिहासिक स्तर पर सबसे अधिक गर्म वर्ष देखे गए हैं। इसी साल गर्मी ने मार्च से अपना प्रकोप दिखाना शुरू कर दिया है। इस स्थिति में लंबे समय तक खुले में परिश्रम की जरूरत वाले कार्यों के बारे में चिंता बढ़ रही है कि इसका स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा। भारत जैसे कृषि-प्रधान देश के लिए इस विषय पर ध्यान देना और भी जरूरी है। सदियों से किसानों ने अपने क्षेत्र की स्थिति के अनुसार गर्मी का सामना करने के तौर-तरीके निकाले हुए हैं।
विशेषज्ञ कहते हैं कि ये अनुभव नई स्थिति में शायद पर्याप्त न हों, हालांकि इनकी उपयोगिता बनी रहेगी। किसान अपने कार्य की समय-अवधि में इस तरह का बदलाव कर सकते हैं कि वे गर्मी के चरम से बच सकें, पर कृषि-मजदूरों के लिए यह सदा संभव नहीं होता है। अतः उनके लिए यह निश्चित व्यवस्था करनी होगी कि वे भी गर्मी के दिनों में काम के वे घंटे चुन सकें, जब गर्मी का प्रकोप कम हो।
जलवायु बदलाव विशेषज्ञ यह बता रहे हैं कि चाहे अब ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के हम भरसक प्रयास कर रहे हैं, फिर भी काफी हद तक बढ़ती गर्मी के बढ़ते प्रकोप को हम रोक नहीं पाएंगे। इस स्थिति में जो लोग गर्मी के प्रकोप से अधिक प्रभावित हो सकते हैं, उनकी रक्षा के बारे में सोचना बेहद जरूरी है। राजस्थान के कुछ गांवों में इस लेखक ने देखा कि मनरेगा मजदूर बहुत सुबह से ही कार्यस्थल पर एकत्र हो गए व जैसे ही गर्मी बढ़ी, वे अपने घर लौट गए।
फिर शाम के समय वे काम पर आ गए। इस तरह का सामंजस्य कुछ स्थानों पर हो रहा है। प्रवासी मजदूर शहरों में सबसे अधिक रोजगार निर्माण कार्यों में प्राप्त कर रहे हैं। इसमें भी अधिकांश समय उन्हें खुले में धूप सहनी पड़ती है। अतः कार्यस्थल पर ऐसा एक स्थान बनाना जरूरी है, जहां बीच-बीच में मजदूर छाया व राहत प्राप्त कर सकें। बहुत से दिहाड़ी मजदूर प्रायः विशेष स्थानों पर रोज एकत्र होते हैं व वहां देर तक रोजगार मिलने का इंतजार करते हैं। ऐसे स्थानों पर छाया और साफ शीतल पेयजल की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।
शहरों में निर्धन वर्ग की महिलाओं ने घरेलू कर्मी का रोजगार बड़े पैमाने पर अपनाया है। यदि एक ही घरेलू कर्मी प्रायः चार-पांच घरों में काम करती है, तो गर्मी की स्थिति में निरंतर इधर-उधर जाने से उनके लिए गर्मी की मार असहनीय हो सकती है। यदि उनका अपना घर पास में हो, तो वे बीच में कुछ समय आराम के लिए जा सकती हैं, लेकिन प्रायः यह संभव नहीं होता है। ऐसे में कार्यस्थल पर उन्हें अधिक राहत मिलनी चाहिए।
पहले घरेलू कर्मी व अन्य मजदूर शहर के अधिक रोजगार वाले क्षेत्र के पास रहते थे। अतः उनके लिए कार्य के बीच में आराम करना सरल था, पर स्लम व झोपड़ी बस्तियों को तोड़े जाने व पुनर्वास के बाद बहुत से मजदूरों को शहरों के बाहरी इलाकों में भेज दिया गया है। इस कारण उनके लिए दोपहर में आराम के लिए घर जाना संभव नहीं रह गया है। दिल्ली की रघुवीर नगर बस्ती में हजारों महिलाओं ने पुराने कपड़े लेकर नए बर्तन देने की फेरी लगाने का काम पकड़ा हुआ था।
इन पुराने कपड़ों की बिक्री के लिए यहां एक विशेष विक्रय स्थल भी बनाया गया था। इसके बावजूद कुछ वर्ष पहले इनकी झोंपड़ियां तोड़ दी गईं और इन्हें कोई 15 किलोमीटर दूर भेज दिया गया। अब उन्हें आराम का कोई स्थान नहीं मिलता है। खुले में गर्मी सहने के अतिरिक्त फैक्टरी के अंदर भट्ठी और बॉयलर के पास भी बहुत से मजदूर काम करते हैं, जिन्हें काफी गर्मी सहनी पड़ती है। अधिकांश लघु व मध्यम इकाइयों में मजदूरों को उचित तापमान पर कार्य करने की सुविधा उपलब्ध नहीं है।
इस विषय के अनुसंधानकर्ता ड्यूक विश्वविद्यालय के ड्रीयू शिंडेल ने बताया है कि छाया, पेयजल, अनुकूल वस्त्र व कार्य के बीच कुछ आराम की व्यवस्था बेहतर करने से बहुत राहत मिलती है, पर अमेरिका जैसे धनी देश में भी अभी तक इस संदर्भ में समुचित व्यवस्था नहीं हो सकी है। स्पष्ट है कि मेहनतकशों को गर्मी में राहत देने के मामले में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है व इस ओर अधिक ध्यान देने में अब और देर नहीं करनी चाहिए।
सोर्स: अमर उजाला
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