सम्पादकीय

हमारे गोरे, हमारे काले

Rani Sahu
13 Aug 2021 7:00 PM GMT
हमारे गोरे, हमारे काले
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कोई शेरशाह हमारे करीब एक बड़ी कहानी लिख गया, फिर जब चर्चा चली तो हम खुद को देखने लगे

दिव्याहिमाचल। कोई शेरशाह हमारे करीब एक बड़ी कहानी लिख गया, फिर जब चर्चा चली तो हम खुद को देखने लगे। शहीद विक्रम बतरा पर आधारित फिल्म हमें राष्ट्र भाव से भर देती है, लेकिन देश के हालात पर जन प्रतिनिधियों का चरित्र हमें खाली कर देता है। स्वाधीनता दिवस की ओर हमारी दिशाएं फिर अग्रसर और आजादी के नजारों के बीच हम ही बनेंगे गोरे-काले। राष्ट्रीय स्तर पर संसदीय परंपराओं का हमाम हमारे सामने और सदन की कार्यवाही में देश को काला करते अपने ही जनप्रतिनिधि। आश्चर्य यह कि मानसून सत्र के सामने भारतीय जनमानस के प्रश्न औंधे मुंह गिरे और अब बहस यह कि राजनेता खुद में 'गोरा-काला' का खेल खेल रहे हैं। जनता को शायद पेगासस जासूसी कांड समझ न आए या कृषि कानूनों की कलई न खुल पाए, लेकिन जब राशन डिपो की दाल महंगी होती है, महंगाई निचोड़ती है या बेरोजगारी अपने सामने बच्चों को भिखारी बना रही होती है, तो देश का नमक नकली लगता है। आज मार्शल बनाम सांसद हो रहा है या जनप्रतिनिधि जमूरे की तरह सत्ता या विपक्ष का तमाशा दिखा रहे हैं, तो क्या फर्क पड़ता है कि आजादी का गौरव हमारा संविधान है। हमें क्या फर्क पड़ा है कि कृषि कानून क्या कहते हैं, अगर हमारे खेत की पैदावार का सौदा वार्षिक छह हजार की किसान सम्मान निधि से हो जाए। हम नया कानून, नए दायरे बना रहे हैं।

फैसलों की फेहरिस्त में कौन सरकार की नीतियों या अदालत की तारीखों में हार रहा है, किसी को फर्क पड़ता है। क्या सत्ता हमेशा गोरी हो जाएगी और विपक्ष काला साबित कर दिया जाएगा। सदन में जो पिटे या जिन्होंने पीटा, इसका अनुभव आजाद भारत कैसे व्यक्त करेगा। मानसून सत्र में हो-हल्ला कोई असामान्य बात नहीं, लेकिन विपक्ष की गैर हाजिरी या सदन में विरोध के बीच अगर 38 विधेयक पेश होकर बीस पास भी हो जाते हैं, तो आजाद देश की नाक है कहां। क्या आजाद भारत को बेरोजगारों में खोजा जाए या निरंकुश जनप्रतिनिधियों को ही आजाद भारत मान लिया जाए। कभी संविधान से संसद चलती थी, लेकिन अब तो संसदीय प्रक्रिया और कार्यवाही ही असुरक्षित होने लगी है। बेशक अपने वेतन-भत्ते बढ़ाने का भाईचारा संसद में नहीं टूटता, लेकिन परंपरावादी देश अब सबसे अधिक सदन में टूट रहा है। आजादी के बाद राजनीति का आपराधिकरण होने लगा था, लेकिन आज तो अपराध का राजनीतिकरण हो रहा है। देश के 43 फीसदी सांसद अगर आपराधिक पृष्ठभूमि से हैं, तो पूर्व केंद्रीय मंत्री शांता कुमार का अपनी ही पार्टी पर शर्म आना स्वाभाविक है। सर्वोच्च न्यायालय तक को कहना पड़ रहा है कि सियासी दल आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को चुनाव लड़ने के लिए पार्टी टिकट न दें। उत्तर प्रदेश विधानसभा का हवाला लें तो वहां 403 विधायकों में से 143 आपराधिक पृष्ठभूमि से हैं और इनमें से 107 तो हत्या व अपहरण जैसे घृणित अपराधों के आरोपी हैं।
क्या कोई आम आदमी ऐसे आरोपों से बाहर निकल सकता है, लेकिन देश की संसद और राज्यों की विधानसभाएं अपने भीतर जनप्रतिनिधियों की आपराधिक पृष्ठभूमि से बाहर नहीं निकल पा रही हैं, तो देश की खंडित मर्यादा और तार-तार होते लोकतंत्र की वजह हमारे सामने है। सुप्रीम कोर्ट भले ही बिहार विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों द्वारा अपने उम्मीदवारों के काले चिट्ठे न खोलने पर सख्त हो या इसी आधार पर नौ दलों पर जुर्माना ठोंक दे, लेकिन आजाद भारत के कर्णधारों को अब शर्म नहीं आती। शर्म नहीं आती क्योंकि संसद सत्र के हर मिनट पर लगभग ढाई लाख रुपए व्यय होते हैं। आजादी के मायनों में 73 साल बाद भी हम समाज के हिस्सों में आरक्षण के नए बीज बो कर सामाजिक न्याय का पौधारोपण करना चाहते हैं, तो कहीं फिर आजाद भूखंडों पर कोई नक्सली आंदोलन, देश की धरती पर बारूद बिछा कर स्वंतत्रता की आत्मा पर प्रहार कर रहा है। इस सबके बीच हिमाचली शहादत इस बार फिल्म 'शेरशाह' की पेशकश में, अमर शहीद विक्रम बतरा के योगदान पर राष्ट्रीय फख्र में शरीक है। फिर हमारे चौक-चौराहों पर कोई न कोई शहादत यह बता रही है कि हम जिंदा हैं, क्योंकि हमारे बीच से कोई कुर्बान हो गया।


Rani Sahu

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