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दिव्याहिमाचल। कोई शेरशाह हमारे करीब एक बड़ी कहानी लिख गया, फिर जब चर्चा चली तो हम खुद को देखने लगे। शहीद विक्रम बतरा पर आधारित फिल्म हमें राष्ट्र भाव से भर देती है, लेकिन देश के हालात पर जन प्रतिनिधियों का चरित्र हमें खाली कर देता है। स्वाधीनता दिवस की ओर हमारी दिशाएं फिर अग्रसर और आजादी के नजारों के बीच हम ही बनेंगे गोरे-काले। राष्ट्रीय स्तर पर संसदीय परंपराओं का हमाम हमारे सामने और सदन की कार्यवाही में देश को काला करते अपने ही जनप्रतिनिधि। आश्चर्य यह कि मानसून सत्र के सामने भारतीय जनमानस के प्रश्न औंधे मुंह गिरे और अब बहस यह कि राजनेता खुद में 'गोरा-काला' का खेल खेल रहे हैं। जनता को शायद पेगासस जासूसी कांड समझ न आए या कृषि कानूनों की कलई न खुल पाए, लेकिन जब राशन डिपो की दाल महंगी होती है, महंगाई निचोड़ती है या बेरोजगारी अपने सामने बच्चों को भिखारी बना रही होती है, तो देश का नमक नकली लगता है। आज मार्शल बनाम सांसद हो रहा है या जनप्रतिनिधि जमूरे की तरह सत्ता या विपक्ष का तमाशा दिखा रहे हैं, तो क्या फर्क पड़ता है कि आजादी का गौरव हमारा संविधान है। हमें क्या फर्क पड़ा है कि कृषि कानून क्या कहते हैं, अगर हमारे खेत की पैदावार का सौदा वार्षिक छह हजार की किसान सम्मान निधि से हो जाए। हम नया कानून, नए दायरे बना रहे हैं।