सम्पादकीय

हमारा समाज अभी भी सच्चे नायकों का सम्मान करता है; हमारे बीच से ही निकले उदाहरण हैं​​​​​​​ प्रेरणाएं ​​​​​​​

Gulabi
21 Jan 2022 8:45 AM GMT
हमारा समाज अभी भी सच्चे नायकों का सम्मान करता है; हमारे बीच से ही निकले उदाहरण हैं​​​​​​​ प्रेरणाएं ​​​​​​​
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बिहार के सिवान में दुर्लभ शिक्षक हुए, घनश्याम शुक्ल
हरिवंश का कॉलम:
समाज का मूल स्वभाव क्या है? गांधीजी की कसौटी है। काम खुद बोलेगा, प्रचार नहीं। समाज का अंतःस्वर स्वतः बाहर आता है, इसका जीवंत नमूना हैं ये उदाहरण। राजस्थान के भीलवाड़ा में अरवड़ गांव के शिक्षक भंवरलाल शर्मा को गांव ने अनोखी विदाई दी। हाथी-घोड़े, गाजे-बाजे-डीजे से जुलूस भी निकला। यह दुर्लभ जनसम्मान गांव वालों ने आगे बढ़ कर किया। कारण, उनका जीवन ही स्कूल-छात्रों के लिए अर्पित था। राजस्थान के ही लादड़िया में एक शिक्षक गोरधनलाल सैनी ने रिटायरमेंट के 22 लाख रु. दान कर दिए।
बिहार के सिवान में दुर्लभ शिक्षक हुए, घनश्याम शुक्ल। कई स्कूल बनाए। लड़कियों के लिए हाई स्कूल, बिस्मिल्लाह खान संस्कृत महाविद्यालय, लाइब्रेरी की स्थापना। सेवानिवृत्ति का पूरा पैसा कॉलेज खोलने में लगाया। वहीं एक झोपड़ी में रहते थे। चपरासी से लेकर शिक्षक की भूमिका में। हाल में नहीं रहे। अंतिम इच्छा बताई, अपनी मौत पर। कहीं शोक नहीं होगा। उस दिन आधे घंटे अधिक पढ़ाई होगी। श्राद्ध आयोजन पर सफाई अभियान-वृक्षारोपण। ऐसा ही हुआ।
लगभग एक दशक हुए, झारखंड के जंगलों में एक प्रभारी प्रधानाध्यापक मिले, धनुषधारी राम दांगी। अत्यंत गरीब इलाका। दांगी जी ने कंधों पर लकड़ी ढोना शुरू किया। मिट्टी का स्कूल खड़ा किया। इस तरह बना साफ-सुथरा राष्ट्रीयकृत मध्य विद्यालय, पत्थलगड्डा। 2007 में उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार मिला। गुजरात में हुए, गिरजाशंकर भगवान जी बधेका (1885-1939) उन्हें 'मूंछों वाली मां' कहा गया। इसी परंपरा में थे, पांडुरंग सदाशिव साने। शिक्षा व समाज जागरण के अपने कामों के लिए जीवन में ही वह इतिहास बन गए।
आज भी वह आदर्श-प्रेरणा के रूप में लोकमानस में जीवित हैं। आदर्श शिक्षकों में ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले को कौन भूल सकता है? डॉ. राधाकृष्णन व डॉ. अब्दुल कलाम तो जीते जी आदर्श का प्रतिमान बने। दरअसल शिक्षक ही समाज के सूत्रधार हैं। नैतिक आभा की पूंजी। लिंकन ने उस अध्यापक को पत्र लिखा, जहां उनका बेटा पढ़ता था। वह पत्र आज भी प्रेरक दस्तावेज है। भारतीय समाज में भी आदि काल से हाल तक शिक्षकों को यही गरिमा-प्रतिष्ठा व आदर्श था। शिक्षक विद्या दान देते हैं। विनय, नैतिक प्रतिमान गढ़ते हैं।
सभ्य-सांस्कृतिक समाज के गठन की नींव का मूल सूत्रधार, शिक्षक ही हैं। पहले गांव में शिक्षक का जो महत्व था, वह किसी प्रशासनिक अधिकारी, राजनेता, वकील, समृद्ध इंसान का नहीं। पर उपभोक्तावादी दौर में चीजें बदली। समाज की मुख्यधारा के नए आदर्श हो गए। किसी तरह सफल होना है। इसमें शिक्षक भी शामिल हो गए। इस कारण देश के अधिसंख्य ग्रामीण इलाकों में आज भी समाज ऐसे शिक्षकों को ढूंढ-ढूंढ कर पूजता है। साथ ही संदेश देता है कि समाज का असल मिजाज या रुझान क्या है?
जीवन में सद्‌गुणों की प्रतिष्ठा। गुजरे दो-तीन दशकों का असर है कि समाज में शिक्षकों की जगह, राजनीतिज्ञ पूजे जाते हैं। गलत स्रोत से धनवान बने लोगों की पूछ बढ़ी है। मिथिला के एक जानकार से सुना। एक परिवार हुआ, जिसके तीन लोग कुलपति बने। गंगानाथ झा, फिर उनके सुपुत्र अमरनाथ झा भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति बने। अमरनाथ झा के भाई आदित्यनाथ आईसीएस थे। रिटायर हुए, तो पूछा गया, क्या नया दायित्व दिया जाए? अनुरोध था, कुलपति का काम। उनकी मां ने पूछा- क्या बने बच्चा?
जवाब था, वाइसचांसलर। मां ने कहा, वो ठीक है पर मास्टर कब होगे? यह थी लोकमानस में अध्यापकों की प्रतिष्ठा। समाज का मन, आज भी अपने ऐसे ही नायकों को पूजता है। इस भाव के पीछे गूढ़ सीख है। समझने, अपनाने, जीवन में उतारने के लिए। शायद शिक्षक समुदाय भी वह सात्विक आभापूंजी अर्जित करने के लिए समाज के साथ-साथ आत्म अवलोकन करेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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