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हम हिमालय के प्रति अभी तक गंभीर नहीं हुए। इसके बिगड़ते हालात के लिए मात्र सरकारों को कोसना ठीक नहीं, बल्कि हमने भी इसके प्रति अपनी जिम्मेदारियों को नहीं समझा। हमने भी हिमालय में विकास की वही रट लगाई, जो देश के अन्य हिस्सों में लगी रहती है। उसके दुष्परिणाम तो झेलने ही पड़ेंगे। वैसे आदिकाल से आज तक अगर हिमालय के प्रति संवेदनाएं जुटी हैं, तो वेद पुराणों में साधु-संतों के अलौकिक वर्णन ने इसकी गरिमा को हमेशा उच्च स्थान पर रखा और इसके महत्व को समझा और समझाया।
आदिकाल से गंगा, यमुना और ब्रह्मपुत्र की कथाएं हिमालय की आध्यात्मिक, सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण तथा महत्व को दर्शाती रही हैं। कैलाश मानसरोवर के जन्म के बाद देश भर की प्रमुख नदियां और नदी तट पर विकसित सभ्यताएं हिमालय की ही देन हैं। असल में केंद्र सरकारों ने हिमालय में राज्यों के गठन के बाद अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली थी। और यह मान लिया कि अब राज्यों की ही जिम्मेदारी होगी कि प्रकृति के संरक्षण के साथ वे आर्थिक, सामाजिक सुरक्षा का भी दायित्व उठाएंगी। लेकिन ऐसा कभी नहीं हो पाया।
राज्य तो बनाए गए, लेकिन उनके विकास की शैली भिन्न नहीं थी। हमने उसी शैली को अपनाया, जो मैदानी क्षेत्रों के विकास की कल्पना पर आधारित थी। इसमें मुख्य रूप से आधारभूत ढांचा था, जो किसी भी क्षेत्र के लिए विकास का आधार होता है। हमने अपनी परिस्थितियों में कोई बड़ा परिवर्तन न कर उसी तर्ज पर हिमालय के विकास की नींव रखी। हमने कभी इसकी संवेदनशीलता को गंभीरता से नहीं लिया। अब आपदाओं ने हिमालय को घेर लिया है। यहां होने वाली तमाम घटनाओं के लिए दो तरह के कारण जिम्मेदार हैं।
पहला कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पृथ्वी के बढ़ते तापक्रम व जलवायु परिवर्तन से जुड़ा है और दूसरा है, स्थानीय स्तर पर प्रतिकूल ढांचागत विकास की पहल। इन दोनों ने करेले व नीम का काम किया। आज किसी भी छोटी-मोटी आपदा में जान-माल का नुकसान कई गुना बढ़ गया है। जिस तरह से लगातार हिमालय के हालात अनवरत बिगड़ते चले जा रहे हैं, हमें कल्पना करनी चाहिए कि यदि हिमालय नहीं होता तो क्या होता! इसके न होने से हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
देश का भूगोल ही कुछ और होता। सभ्यताएं जो नदियों से ही पनपी हैं, उनका अस्तित्व नहीं होता। जलवायु पूरी तरह भिन्न होती। संसाधन जो हमारे जीवन का आधार हैं, उनमें शून्यता आ जाती। टेथीज सागर में पांच करोड़ साल पहले हिमालय का जन्म फोल्ड माउंटेन के रूप में हुआ। समुद्र के गर्भ में यूरेशियन और इंडियन प्लेट के टकराने से इसका जन्म हुआ। अभी तक इसके बनने की प्रक्रिया निरंतर है। पांच मिलीमीटर प्रतिवर्ष की दर से अब भी हिमालय अपनी ऊंचाइयों की तरफ बढ़ रहा है।
यह सब उन तमाम ज्यादतियों के बाद है, जो हमने हिमालय के ऊपर की है। हिमालय नहीं होता, तो देश में सीमा प्रहरी भी न होता। पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण से भारतीय उपमहाद्वीप टुंड्रा प्रदेश जैसा होता। अत्यधिक गर्मी और अत्यधिक शीत लहर यहां पर जीवन को दूभर कर देती। हिमालय के न होने का मतलब मानसून का न होना होता। उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक जल से आच्छादित होने का वरदान भी न होता। देश के वनों की स्थिति पूरी तरह बदली होती।
इसकी नदियों से उत्पन्न देश की हरित और श्वेत क्रांति जैसे बड़े आर्थिक आंदोलन नहीं होते। संस्कृति, सभ्यता के स्रोत हिमालय से वंचित रहते। और सबसे बड़ी बात प्रभु भगवान बदरीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री, गंगोत्री और तमाम धर्मों के प्रमुख, जिन्होंने हिमालय को ही अपना वास बनाया, वे भी आज हमारे साथ नहीं होते। हिमालय एक जलवायु नियंत्रक के रूप में काम करता है। हम इस नियंत्रण प्रक्रिया से पूरी तरह वंचित होते, और हमारी परिस्थितियां पूरी तरह विपरीत होतीं। इसी तरह से हम जैव-विविधता से भी वंचित होते।
हिमालय के 11 राज्य भी नहीं होते और उनसे जुड़े लोग भी नहीं। हिमालय क्षेत्र के मात्र पांच करोड़ लोग ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के करीब दो अरब लोगों का इससे अस्तित्व जुड़ा है। कहने का आशय यह है कि समय पर अगर सही निर्णय नहीं लिए गए, तो हम वह सब कुछ खो देंगे, जो उपहार के रूप में हिमालय ने हमको दिया था। वैसे भी दुनिया में हर तरह की पर्यावरणीय विपदाएं हमें घेर रही हैं। अपने ही देश में अब पीने के पानी से लेकर प्राण वायु तक के संकट आने लगे हैं।
सोर्स: अमर उजाला
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