सम्पादकीय

जंग में तब्दील होते हमारे चुनाव

Gulabi
8 Feb 2022 6:07 AM GMT
जंग में तब्दील होते हमारे चुनाव
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एक पुरानी कहावत है कि युद्ध पहले दिमाग में लड़ा जाता है और भाषा उसकी सबसे बड़ी हथियार होती है
भूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी.
एक पुरानी कहावत है कि युद्ध पहले दिमाग में लड़ा जाता है और भाषा उसकी सबसे बड़ी हथियार होती है। भाषा के चतुर इस्तेमाल से ही अपने सैनिकों को समझाया जा सकता है कि सामने खड़ा व्यक्ति उसका दुश्मन है और उसे मार डालना एक पवित्र कर्तव्य है। बरसों पहले एक सीमावर्ती चौकी पर खड़े हुए जवान का जवाब हमेशा मेरे कानों में गूंजता है। पूछे जाने पर कि उसकी जिम्मेदारी क्या है, उसे जो एक पैराग्राफ मश्क कराया गया था, उसका अंत हुआ इन दो वाक्यों के साथ कि 'अंतिम सांस और अंतिम गोली तक लड़ता रहूंगा। बगैर कमांडर के हुक्म के मोर्चा नहीं छोड़ूंगा श्रीमान।' भाषा उसके अंदर इस कदर रची-बसी थी कि युद्ध में निर्णायक क्षण आने पर निस्संदेह वह उसको जिएगा भी। युद्ध पहले भाषा के स्तर पर ही लड़ा जाता है। नागरिक समाज के कुछ आंदोलन भी युद्ध जैसे ही क्षैतिज बंटवारे करते हैं, इसलिए उनमें भी भाषा का युद्ध जैसा ही प्रयोग होता है। मैंने राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान भाषा में आए इन परिवर्तनों को करीब से देखा है।
उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी भाषा जिस तरह से हिंसक होती जा रही है, उससे लगता है कि लोकतंत्र भी युद्ध में तब्दील हो रहा है। हर दल और उसके नेता भाषा का संयम खोते जा रहे हैं। सत्ता के शीर्ष से कहा गया कि विपक्षियों को मार्च में ठंड का एहसास होने लगेगा, तो जवाब मिला कि खेती-किसानी करने वाली जाति जब अपने पर आती है, तो ठंड में पसीने छूट जाते हैं। बिना मौसम गरमी या सर्दी का एहसास मनुष्य के अंदर छिपे भय, घृणा और क्रोध जैसी अनुभूतियों का प्रस्फुटन होता है। हर चुनाव में उत्तरोत्तर भाषिक हिंसा बढ़ती जा रही है। कुछ ही दिनों पहले दिल्ली की एक चुनावी रैली में मंच से एक समूह विशेष को गोली मारने का आह्वान किया गया था। देख लेंगे या हाथ-पैर काट देंगे जैसी टेक पर अगर वाक्य खत्म हो, तो समझ लेना चाहिए कि वक्ता के पास न तो वैध तर्क हैं और न ही लोकतांत्रिक मूल्यों में उसकी आस्था है।
यह जांचने की जरूरत है कि चुनावी भाषा में बढ़ती हिंसा कहीं हमारे समाज में बढ़ रही हिंसा का प्रतिफलन तो नहीं है? जिस माहौल में देश को लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का फैसला किया गया, वह कतई उसके अनुकूल नहीं था। लाखों मनुष्यों के खून और विस्थापन में लिथड़ी आजादी अंतत: शांतिपूर्ण लोकतंत्र में तब्दील होगी, यह फैसला ही किसी चमत्कार से कम नहीं था। पर यह चमत्कार भी हमने कर ही दिखाया। 1952, 57 और 62 के आम चुनाव अपेक्षाकृत शांति के माहौल में हुए। उन दिनों के राजनेताओं के भाषणों मे हिंसा अनुपस्थित होती थी। आज तो कल्पना करना भी मुश्किल लगता है। जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, राम मनोहर लोहिया या अटल बिहारी वाजपेयी जैसों के भाषण उनके श्रोताओं की समाजशास्त्र या अर्थशास्त्र की समझ बेहतर बनाते थे। कुछ धाराप्रवाह भाषण तो साहित्यिक धरोहर बन गए हैं। नेहरू ने तो पहले आम चुनाव में प्रचार के दौरान लगभग 300 सभाओं के भाषणों से एक आकंठ धार्मिक समाज को हिंदू राज की जगह धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनाने के लिए तैयार कर दिया था। यह दुनिया के इतिहास की अनूठी घटना है कि एक बहुभाषी समाज में, ढीली-ढाली सी संपर्क भाषा के जरिये, एक बहुत पढ़ा-लिखा व्यक्ति लगभग निरक्षर जनता को कट्टर धर्माधारित राज्य के खतरों और उदार सेक्युलर राज्य बनाने के फायदे समझा सका। यह चुनावी सभाओं के भाषणों का ही कमाल था कि 26 जनवरी, 1950 को लागू संविधान पर 1952 के पहले आम चुनाव के नतीजों ने पुष्टि की मोहर लगा दी। आज तो यह भी सुनकर अविश्वसनीय लगेगा कि कभी लखनऊ में मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत का भाषण विपक्षी नेता आचार्य नरेंद्र देव ने लिखा था।
चुनावी भाषणों की भाषा में आए बदलाव के कारण शायद भारतीय समाज की आंतरिक संरचना में ढूंढ़े जा सकते हैं। वर्ण-व्यवस्था में अंतर्निहित असमानता को सिर झुकाकर स्वीकार करने वाला समाज एक ऐसे तालाब की तरह था, जिसमें ऊपर तो एक स्थिर गंदले पानी की चादर दिखती थी, पर उसके नीचे मचल पड़ने को बेकरार झंझावात छिपा बैठा था। जैसे ही इस समाज में यथास्थिति को चुनौतियां मिलनी शुरू हुईं, इस स्थिर पानी में लहरें उठने लगीं। यदि लोकतंत्र की जड़ें गहरी और मजबूत होतीं, तो संभवत: बदलाव का विमर्श ज्यादा सद्भावपूर्ण माहौल में होता। लोकतंत्र के अभाव के चलते इस समाज का हर कदम हिंसा की अंधी गुफा से होकर गुजरता है। कोई आश्चर्य नहीं कि हिंसा की यही उपस्थिति चुनावी भाषा में दिखने लगती है।
संविधान ने चुनावी सभाओं में भाषा पर संयम की जिम्मेदारी चुनाव आयोग को दे रखी है। टीएन शेषन ने अपने कार्यकाल में काफी हद तक इसे लागू करके दिखा भी दिया था, पर दुर्भाग्य से, बाद के चुनाव आयुक्त इस कसौटी पर खरे नहीं उतरे। खासतौर से सत्ताधारी पार्टी के नेताओं पर नियंत्रण रखने में वे अक्सर असफल ही साबित हुए हैं। कुछ मामलों में दोषी अल्पावधि के लिए चुनाव प्रक्रिया से दूर किए गए, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ कि दूसरों के लिए सबक बन सके। जब तक हिंसक भाषा के लिए वक्ता और उसके दल को चुनावों से दूर नहीं किया जाएगा, वे अपने ऊपर खुद रोक नहीं लगाएंगे। एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि कानून-कायदों की धज्जियां उड़ाने वाले भीतर से बेहद डरपोक होते हैं। शेषन की एक डपट से बड़े-बड़े तीसमार खां की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी और वे सीधे रास्ते पर आ जाते थे।
स्वस्थ लोकतंत्र में ज्यादा अच्छा तो यही है कि उसके भागीदार स्वयं पर खुद ही नियंत्रण करें, पर इस आत्म-नियंत्रण के लिए एक लंबी परंपरा की जरूरत होगी। दुर्भाग्य से भारतीय समाज अभी तक इसके लिए तैयार नहीं हुआ है। भाषा में संयम के लिए पश्चिम को भी बड़ा समय लगा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव में उस द्वैध को बखूबी समझा जा सकता है, जिससे कई बार पश्चिमी समाज को आज भी गुजरना पड़ता है। आत्म-नियंत्रण की प्रक्रिया को दंडात्मक कार्रवाई तेज कर सकती है। चुनाव आयोग की भूमिका यहीं महत्वपूर्ण हो जाती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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