सम्पादकीय

चुनावी मुद्दों से दूर हमारे सरोकार

Rani Sahu
19 Jan 2022 6:19 PM GMT
चुनावी मुद्दों से दूर हमारे सरोकार
x
किसी भी समाज में जीवन के मोटे तौर पर चार पक्ष होते हैं

आनंद कुमारकिसी भी समाज में जीवन के मोटे तौर पर चार पक्ष होते हैं- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक। चुनाव के मौके पर स्वाभाविक है कि राजनीतिक पक्ष प्रधान हो जाता है, लेकिन यह आशा करना कि चुनाव के मौके पर हम समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति के सवालों को भी उतना ही महत्व देंगे, जितना राजनीतिक सवाल को, तो यह एक ऐसी गलती होगी, जैसे हम तीज-त्योहार के मौके पर उम्मीद करें कि लोग राजनीतिक दलों के कार्यक्रमों में आएंगे। या, जब बजट पेश किया जा रहा हो, तो हम आशा करें कि लोग किसी संगीत-सभा या साहित्य-गोष्ठी को उतना ही महत्व देंगे, जितना बजट से आ रही सूचनाओं को।

इस समय देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों को माहौल है। यह आशा की जा रही है कि लोग चुनाव के समय में अपने सबसे बड़े सरोकारों को ध्यान में रखकर वोट देंगे। यह स्वाभाविक है कि इस समय जब हम सरोकारों की गिनती करें, तो सबसे बड़ा सरोकार पिछले दो साल से कोरोना वायरस के कारण पैदा हुई महामारी और उसकी दवाई का संकट है। फिर, इसके समानांतर गरीब जमातों के लोगों की कमाई भी खतरे में पड़ गई। बच्चों और विद्यार्थियों का सवाल भी सामने है। और, आखिरी सवाल महंगाई का है। अगर हम दवाई, कमाई और पढ़ाई को उपेक्षित भी कर दें, तो पेट्रो उत्पादों और सब्जियों का दाम बढ़ना हमें परेशान करता है।
मगर ये सब चर्चा का विषय नहीं बन पा रहे हैं, क्योंकि वस्तुत: चुनाव का मौका अपना प्रतिनिधि चुनने का होता है। प्रतिनिधि के अर्थ में हम जाति, धर्म, भाषा और वर्ग, इन चार पहचानों से बंधे हुए हैं। इसमें जाति का सवाल अथवा जाति की पहचान वंचित वर्गों या उपेक्षित जमातों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। चुनाव आएंगे और चले जाएंगे, लेकिन हम अपने इलाके की पुलिस, अस्पताल, विद्यालय या रोजगार दफ्तर में जाएंगे, तो भारतीय होने के बावजदू हमारी पहचान जाति व धर्म से होगी और उसी से जुड़ा हुआ यह सवाल है कि सरकारी प्रबंधन में हमको महत्व मिलेगा अथवा नहीं? इसलिए चुनाव के मौके पर हम अपनी जाति का प्रतिनिधित्व खोजते हैं। महंगाई सबका सवाल है, बीमारी एक वैज्ञानिक संकट है और पढ़ाई संकट में नेताओं का भला क्या दोष! इस तरह से सब जोड़-घटाव करने के बाद साधारण मतदाताओं को प्रतिनिधि के रूप में अपनी जाति और अपने धर्म पर ही भरोसा करना पड़ रहा है।
यह सिर्फ भारतीय लोकतंत्र की विडंबना नहीं है। जहां भी प्रतिनिधिमूलक संसदीय लोकतंत्र है, वहां दलों का आधार समाज में है। और, समाज की रचना में दक्षिण एशिया में जाति का, यूरोप में धार्मिक संप्रदायों का और अमेरिका में काले-गोरे का बंटवारा है। हम अगर अपने चुनाव की शर्त को जान लेंगे, तो हमें मतदाताओं के आचरण की चिंता नहीं रहेगी। हमारा चुनाव तंत्र दलों के ईद-गिर्द गठित हुआ था, लेकिन चूंकि अब दल पिघल गए हैं और ज्यादातर दलों का आर्थिक चिंतन नई आर्थिक नीति, भूमंडलीकरण, कॉरपोरेट शक्तियों का संरक्षण जैसे सवालों पर एक-सा हो गया है, इसलिए हम दलों को समाज में अलग-अलग पहचानने में विफल होते हैं। दलों ने भी खुद को मूल सामाजिक आधार, यानी जाति और धर्म से जोड़ लिया है। आज इसका जवाब ढूंढ़ने की जरूरत नहीं है कि हिंदू जाति की वकालत करने वाली कौन सी पार्टी है या सवर्ण जातियों के बारे में किस पार्टी में सहानुभूति और किस दल में निंदा का भाव है? इन सवालों के जवाब जब हम सब खुलकर जानते हैं, तो चुनाव के मौके पर कहां से हम कोई नई समस्या या कोई नई प्रवृत्ति खोज सकेंगे।
यह सही है कि भारत इस समय दुनिया के समस्याग्रस्त अर्थतंत्र का एक प्रतीक देश बन गया है, लेकिन इसके लिए हम पार्टियों में कोई फेरबदल करके क्या कोई समाधान पा सकते हैं? कतई नहीं, क्योंकि दलों के बीच में आर्थिक सवालों पर कोई साफ अलगाव नहीं दिखता, इसलिए आर्थिक सवाल चुनावों में मुद्दा नहीं बनते। इसी तरह, सामाजिक सवाल पहले से मुद्दा बने हुए हैं। इसीलिए समाजशास्त्री चुनाव के मौके पर जाति के आधार पर उम्मीदवार खड़े करना और जाति के आधार पर मतदाताओं द्वारा मतदान करना कोई समस्या नहीं मानते, बल्कि यह एक सहज सच है। हमारा राजनीतिक नेतृत्व लोकतंत्र की पैदाइश है और लोकतंत्र संविधान के आधार पर बना है, और संविधान में जातिविहीन, वर्गविहीन, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी राष्ट्र की रचना का 1949 का वायदा है। चूंकि उस वायदे को छोड़ा नहीं जा सकता, लेकिन समाज तक उस वायदे को पहुंचाने की नैतिक शक्ति राजनीतिक दल खो चुके हैं, इसलिए हम दो दुनिया में जी रहे हैं। जब सार्वजनिक मंचों से बात करते हैं, तो हमारा ध्यान संविधान की तरफ होता है, लेकिन जैसे ही लोगों से उनकी मर्जी से अपने को चुनवाने की प्रक्रिया में दूसरों से होड़ करते हैं, तो उनके दिल के निकट का सबसे अच्छा राग गाने लगते हैं। जब हमारा जीवन जन्म से लेकर मरण तक जाति वालों और अपने धर्म वालों के सहारे है, तो चुनाव के समय हम उसको कैसे भूल सकते हैं।
हाल के वर्षों में चुनाव सुधार की चर्चा भी बंद हो चुकी है। आखिरी चुनाव सुधारक के रूप में हमने लोकनायक जयप्रकाश नारायण को पूरे देश में चुनाव सुधारों के लिए बेचैन घूमते 1974-75 में पाया था। अब हम जान चुके हैं कि हमें एक तरफ, सांविधानिक मर्यादाओं का नकाब पहनकर लोकसभा और विधानसभाओं में अपनी भूमिका अदा करनी है, और दूसरी तरफ, उस नकाब को पहनने का अधिकार पाने के लिए पूरी तरह से बेनकाब होकर चुनाव क्षेत्र की सामाजिक बनावट के हिसाब से अपनी पार्टी का उम्मीदवार पेश करना है। दरअसल, हम नागरिक नहीं बन पा रहे हैं। बगैर नागरिकता आधारित राष्ट्रीयता के हम हर चुनाव में जाति और धर्म के आधार पर अपने ही आचरण में एक पाखंड का शिकार होते दिखाई पड़ेंगे। और, कोई देश पाखंड से नहीं बनता, सच से बनता है।
Next Story