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कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति के अभिभाषण के बहिष्कार की घोषणा कर यह साफ कर दिया
कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति के अभिभाषण के बहिष्कार की घोषणा कर यह साफ कर दिया कि वे रचनात्मक राजनीति का परिचय देने को तैयार नहीं। कांग्रेसी नेता गुलाम नबी आजाद की ओर से संसद के बजट सत्र के पहले दिन राष्ट्रपति की ओर से दिए जाने वाले अभिभाषण के बहिष्कार की घोषणा से यह भी स्पष्ट हो गया कि इस सत्र के दौरान विपक्ष सरकार को घेरने के नाम पर हंगामा करने की तैयारी कर रहा है।
गुलाम नबी आजाद ने राष्ट्रपति के अभिभाषण के बहिष्कार की वजह कृषि कानूनों को बताया, लेकिन क्या ये वैसे ही कानून नहीं, जैसे कांग्रेस ने खुद बनाने का वादा अपने चुनावी घोषणा पत्र में किया था? कम से कम कांग्रेस को तो इन कानूनों के विरोध का कोई नैतिक अधिकार नहीं। यही बात उन अन्य विपक्षी दलों पर भी लागू होती है, जो समय-समय पर यह मांग करते रहे कि किसानों को अपनी उपज कहीं पर भी बेचने की सुविधा मिलनी चाहिए।
नए कृषि कानूनों के जरिये यही किया गया है। क्या विपक्ष को इस पर आपत्ति है कि जो काम उन्हें करना चाहिए था, वह मोदी सरकार ने किया या फिर वह यह चाहता है कि देश का किसान पहले की तरह बिचौलियों और आढ़तियों के शिकंजे में फंसा रहे?
ध्यान रहे कि कथित किसान आंदोलन इन्हीं बिचौलियों और आढ़तियों के हितों की ही पैरवी कर रहा है, न कि आम किसानों की। यही कारण है कि आम किसान इस आंदोलन से दूर रहे। चूंकि यह आम किसानों का आंदोलन नहीं इसी कारण उसमें अराजक तत्व घुस गए और उन्होंने दिल्ली में भीषण उत्पात किया।
इससे भी विपक्ष के नकारात्मक रवैये का परिचय मिलता है कि उसे दिल्ली की हिंसा में सरकार की साजिश दिख रही है। ऐसा तब दिख रहा है जब उपद्रवियों के हमले में करीब चार सौ पुलिस कर्मी घायल हो गए। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि कांग्रेसी नेताओं की ओर से किस तरह किसान संगठनों को उकसाने और गुमराह करने का काम हर संभव तरीके से किया गया? कुछ ने तो हद ही पार कर दी।
चूंकि विपक्ष ने अपने इरादे साफ कर दिए हैं इसलिए संसद सत्र के पहले आयोजित होने वाली सर्वदलीय बैठकों का कोई मतलब नहीं रह जाता। वैसे भी अब इस तरह की बैठकें दिखावा ही अधिक होती हैं। इनके जरिये जो संदेश दिया जाता है, वह संसद सत्र शुरू होते ही निरर्थक साबित हो जाता है। ऐसा ही विधानसभाओं के सत्रों के दौरान होता है। इस सबसे यदि कुछ स्पष्ट होता है तो यही कि संसदीय कार्यवाही के संचालन के तरीकों में व्यापक बदलाव की जरूरत है।
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