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Written by जनसत्ता: भ्रष्टाचार की जड़ें' (संपादकीय, 9 मई) में वर्णित तथ्य यथार्थ का सजीव चित्रण है। कभी इंदिरा गांधी ने कहा था कि यह बीमारी वैश्विक प्रवृत्ति है। आजादी के बाद से ही यह असाध्य रोग देश के लोक जीवन और व्यवस्था में व्याप्त रहा है। कभी इक्का-दुक्का घटनाओं की जानकारी सार्वजनिक होती थीं। लेकिन वर्तमान में मीडिया की सक्रियता और व्यापकता ने भ्रष्टाचार के हर भंवर को राष्ट्रीय क्षितिज पर ला खड़ा किया है।
संपादकीय में यह विश्लेषण सही है कि इसके खात्मे के लिए प्रबल इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। बुनियादी सवाल यह है कि जब राज्यों के इंद्रप्रस्थ को भ्रष्टाचार से आच्छादित लोक सेवकों का एक वर्ग नेपथ्यीय भूमिका में सक्रिय है तो किस लोकलाज और इच्छाशक्ति से इस कोढ़ को समाप्त किया जा सकता है। झारखंड के खनन सचिव जैसे नौकरशाहों के पास से बरामद नगदी और कागजात कोई एक दिन की अवैध कमाई का अंश नहीं होते, बल्कि सालों-साल से वे भ्रष्टाचार की भूमि में अपनी योग्यता, कल, बल और छल के फसल बोते और काटते हैं। बिना ऊपरी सरंक्षण और सान्निध्य के अवैध कमाई का विराट संजाल स्थापित नहीं हो सकता। खनन पट्टे में जब किसी राज्य के मुख्यमंत्री का नाम आरोपित हो सकता है तो सवाल लाजिमी है कि उनके अधीनस्थ अधिकारियों की कारिस्तानियों की भूमिका संदेह के घेरे में आएगी ही।
आंकड़े आश्चर्यजनक हैं कि पूरे देश में भ्रष्टाचारियों के गिरोह ने जितनी संपदा पर अपना आधिपत्य स्थापित किया है, वह एक समांतर अर्थव्यवस्था का हिस्सा माना जा सकता है। भ्रष्टाचार के सरोवर में अक्सर छोटी मछलियां पकड़ में आ जाती हैं, जिन्हें ससमय समुचित सजा मिल भी जाती हैं। लेकिन कानूनी करिश्मे के दांवपेच के सहारे बड़ी मछलियों को उनके कृत्यों के मामले दशकों तक न्यायालय में झूलते रहते हैं। प्रश्न है कि इसके सफाए के लिए इच्छाशक्ति कौन और कहां से कब लाएगा।
जीवन के सभी क्षेत्रों में जब भ्रष्टाचार जीने की संजीवनी बनी हुई है तो उपाय यही दिखता है कि समाज के जिस वर्ग ने सेवाकाल में इस जटिल रोग से अपने को बचाए रखा, भले ही उन्हें इसके एवज में प्रताड़ित भी किया गया हो, उन्हें राष्ट्र रक्षा में अपने मजबूत कदम बढ़ाने के लिए चिंतन करना होगा। सरकार और अदालत ऐसे लोगों के परामर्श से लागू कानूनों की जटिलताओं को अध्ययन कर उसमें सुधार का सुझाव दे, ताकि त्वरित फैसलों से देश के आंतरिक दुश्मनों को ऐसी सजा देने का प्रावधान हो, जो मील का पत्थर सिद्ध हो। प्रशासनिक सुधारों के चिर प्रतीक्षित सुझावों की पोटली खोलकर उसमें से काम आने लायक प्रभावी सूत्रों को भी लागू करने की जरूरत है। तभी भ्रष्टाचार की जड़ें खत्म की जा सकेंगी।
मोबाइल टावर से निकलने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तंरगें बहुत-सी बीमारियों का कारण बन सकती हैं। इन टावरों से कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी होने का भी खतरा है। हम जानते हैं कि कैंसर कैसी खतरनाक बीमारी है, जिसका अभी तक भी कोई इलाज नहीं मिल पाया है। वहीं मोबाइल टावर के विकिरण से जानवरों पर भी असर पड़ता है। यही वजह है कि जिस इलाके में मोबाइल टावर की संख्या अधिक होती है, वहां पक्षियों की संख्या कम होती है।
मोबाइल टावर से निकलने वाले रेडिएशन से उन पक्षियों को सांस लेने में परेशानी होती है, जिस कारण से उनकी मौत हो जाती है। पहले के समय में अनेक प्रकार के पक्षी पाए जाते थे जो हमारे आसपास उड़ते-मंडराते रहते थे। लेकिन अब इन पक्षियों की संख्या बहुत तेजी से कम होती जा रही है। कई खबरों में यह बताया जा चुका है कि टावर के कारण से त्वचा रोग भी हो रहा है। इसलिए टावरों और उनसे सुरक्षा का ध्यान रखना आम लोगों की जिम्मेदारी होना चाहिए।