सम्पादकीय

स्वायत्तता के खिलाफ अध्यादेश

Gulabi
18 Nov 2021 4:23 AM GMT
स्वायत्तता के खिलाफ अध्यादेश
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बेशक भारत के संविधान का अनुच्छेद 123 राष्ट्रपति को शक्ति और अनुमति देता है कि
divyahimachal .
बेशक भारत के संविधान का अनुच्छेद 123 राष्ट्रपति को शक्ति और अनुमति देता है कि वह कैबिनेट द्वारा पारित अध्यादेश को स्वीकृति दे सकते हैं, लेकिन एक शर्त भी होती है कि संसद का सत्र न चल रहा हो। संसद और सरकार के रिकॉर्ड गवाह हैं कि अध्यादेश की आड़ में भारत सरकार ने शक्तियांे का दुरुपयोग भी किया है। ताज़ा संदर्भ सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के निदेशकों का कार्यकाल बढ़ाने का है। अध्यादेश के जरिए उनका कार्यकाल 2 वर्ष से बढ़ाकर 5 साल तक किया गया है। इस कानूनी अनिवार्यता के पीछे किसी भी प्रकार की त्वरित बाध्यता नहीं है। जब अध्यादेश पारित किया गया, तो संसद के शीतकालीन सत्र के आगाज़ में 15 दिन शेष थे। यदि उससे पहले ईडी के निदेशक सेवानिवृत्त हो रहे थे, तो कौन-सा पहाड़ टूट जाता। उनके विकल्प के तौर पर वरिष्ठ और अनुभवी आईएएस, आईपीएस, आईआरएस अधिकारी भारत सरकार में उपलब्ध हैं। महज एक अधिकारी के लिए अध्यादेश पारित करना सरकार की नीयत और नीति को संदेहास्पद बनाता है। भारत सरकार के वरिष्ठ सचिव और सेना के जनरल आदि भी सेवानिवृत्त होते रहे हैं। सरकारी विभाग, मंत्रालय और सेना विकलांग या अनाथ नहीं हो जाते। काम बदस्तूर जारी रहता है। उनके स्थान पर नए अधिकारी कार्यभार ग्रहण करते हैं। बेशक सीबीआई और ईडी दोनों ही देश की प्रमुख जांच एजेंसियां हैं। उनके अधीन ऐसेे कई नाजुक और विवादास्पद मामलों की जांच जारी रहती है, जिनमें निरंतरता अनिवार्य है, लेकिन किसी भी जांच से कई अधिकारी जुड़े होते हैं। नए निदेशक आएंगे, तो उन्हें भी संविधान और सेवा-शर्तों के मुताबिक ही काम करना होगा।
जांच एजेंसियों और कुछ अन्य संवेदनशील पदों के संदर्भ में 1997 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण फैसला सुनाया था कि इन विभागों की स्वायत्तता बेहद जरूरी है। कुछ वरिष्ठ पदों पर किसी भी अधिकारी का कार्यकाल कमोबेश 2 साल का होना चाहिए। आपात या आपत्तिजनक स्थितियों को छोड़ कर उनका तबादला नहीं किया जा सकता। केंद्रीय सतर्कता आयोग को भी संवैधानिक दर्जा दिया गया और सीबीआई सरीखी एजेंसियों को उसके अधीन रखा गया। सर्वोच्च अदालत ने किसी भी वरिष्ठ अधिकारी के सेवा-विस्तार पर भी निर्देश दिए हैं। फिर भी सुप्रीम अदालत और संवैधानिक स्वायत्तता का अतिक्रमण करते हुए सरकार ने सीबीआई और ईडी के निदेशकों के कार्यकाल पर ही अध्यादेश क्यों जारी किया? क्या घोषित तौर पर सरकार इन दोनों जांच एजेंसियांे को 'तोता' और विपक्ष के खिलाफ कारगर हथियार बनाना चाहती है? वैसे तो ये आज भी केंद्र सरकार की 'दरोगा' ही हैं। बहरहाल यह मामला अब फिर सर्वोच्च अदालत के सामने पहुंच गया है और अध्यादेश को खारिज करने की मांग के साथ याचिका दायर की गई है। अध्यादेश के जरिए संविधान के निर्माताआंे की स्थापना और विमर्श का भी उल्लंघन किया गया है। संविधान सभा की बैठकों में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने बार-बार कहा था कि ऐसे अध्यादेश पारित न किए जाएं, जो विधान की समानांतर शक्ति प्रदर्शित करते हों! यानी संसद ही तमाम बिलों पर बहस करे और कानून बनाए। अध्यादेश को आपात स्थितियों के लिए छोड़ दिया जाए। अब संसद का शीतकालीन सत्र 29 नवंबर से शुरू होना है।
अध्यादेश को बिल के तौर पर संसद में पेश करना ही होगा। चूंकि दोनों ही सदनों में भाजपा-एनडीए का बहुमत है, लिहाजा अध्यादेश भी पारित होकर नियमित कानून बनना लगभग तय है, लेकिन इस मुद्दे पर विपक्ष हंगामा जरूर करेगा। केंद्र सरकार ईडी निदेशक को सेवा-विस्तार दे चुकी होगी, लेकिन अब बहस दोनों प्रमुख जांच एजेंसियों की स्वायत्तता पर ही होगी। सुप्रीम अदालत के निर्देश पर ही अब सीबीआई निदेशक आदि की नियुक्ति में नेता प्रतिपक्ष की उपस्थिति और सहमति अनिवार्य है। हालांकि सरकार ने उसके रास्ते भी निकाल लिए हैं, लेकिन वे व्यर्थ में ही विवाद के विषय बनते हैं। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च का डाटा स्पष्ट करता है कि 2019 और '20 में क्रमशः 16 और 15 अध्यादेश पारित किए गए। 2010 के दशक में यूपीए सरकार के दौरान अध्यादेश का सालाना औसत 7.1 था। अध्यादेश से संसद की गरिमा और भूमिका भी कमज़ोर होती है, लिहाजा उन्हें आपात स्थितियों तक ही सीमित रखा जाए और संसद इस आशय का विधेयक पारित करे। हमें नहीं लगता कि ऐसा संभव होगा, क्योंकि 'आपात' की परिभाषा ही विवादास्पद हो जाएगी। अध्यादेशों के जरिए कानून निर्माण की प्रथा हालांकि पुरानी है, लेकिन एनडीए काल में भी इसका जारी रहना चिंता का विषय है। इस पर रोक लगनी चाहिए।
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