सम्पादकीय

विपक्षी एकता की चुनौतियां

Subhi
22 Aug 2021 12:45 AM GMT
विपक्षी एकता की चुनौतियां
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लोकतन्त्र की सफलता की शर्तों में विपक्ष की मजबूती एक महत्वपूर्ण शर्त होती है क्योंकि सशक्त विपक्ष ही सत्ता में आयी सरकार को लगातार चौकन्ना रखने और सावधान बनाये रखने का काम करता है।

लोकतन्त्र की सफलता की शर्तों में विपक्ष की मजबूती एक महत्वपूर्ण शर्त होती है क्योंकि सशक्त विपक्ष ही सत्ता में आयी सरकार को लगातार चौकन्ना रखने और सावधान बनाये रखने का काम करता है। दूसरी महत्वपूर्ण शर्त यह होती है कि लोकतन्त्र कभी सोता नहीं है वह हमेशा जागृत रहता है। यह जागृति संसद से लेकर सड़क तक तभी बनी रह सकती है जबकि लोकतन्त्र की मालिक जनता कभी सुस्त न हो और लगातार जागती रहे क्योंकि यही जनता उन लोगों को कभी सोते नहीं देख सकती जिन्हें चुन कर वह विधानसभाओं से लेकर संसद तक में भेजती है। जनता जब चुनाव में सत्ता और विपक्ष में प्रतिनिधियों को चुन कर भेजती है तो दोनों पक्षों पर बराबर की जिम्मेदारी डालती है। सरकार में काबिज लोगों को वह पांच साल के लिए केवल जनकल्याण के प्रति समर्पित देखना चाहती है और विपक्ष में बैठे लोगों से अपेक्षा करती है कि वे सर्वदा उसकी आंख व कान बन कर सरकार को कभी गफलत में नहीं पड़ने देंगे। एेसा इसलिए जरूरी होता है जिससे राष्ट्र के समक्ष कभी विकल्प की किल्लत खड़ी न हो। भारत की बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली इस बात की गारंटी करती है कि जनता के समक्ष कभी भी विकल्प का अकाल न पड़ पाये और उसके सामने खुली छूट हो। परन्तु वर्तमान राजनीतिक दौर में देश जिस परिस्थिति से गुजर रहा है उसमें समूचे विपक्षी दल बिखरे हुए हैं और उनमें से किसी एक में इतनी ताकत नहीं है कि वह अखिल भारतीय स्तर पर सत्तारूढ़ भाजपा का मुकाबला कर सके। इसे देखते हुए प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के साये में जिस तरह 19 दलों ने एकजुट होकर सामूहिक रूप से काम करने की रणनीति का विचार किया है वह लोकतन्त्र को मजबूत बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम कहा जायेगा। श्रीमती सोनिया गांधी ने जिस तरह इन दलों को एक मंच पर लाने का प्रयास किया है उससे यह तो साबित हो ही जाता है कि सभी क्षेत्रीय व राष्ट्रीय विपक्षी दल अपनी विरोधाभासी विचारधाराओं को किनारे रख कर एकमुश्त रूप से मुकाबला करने को वांछित मानते हैं। इसका दूसरा सन्देश यह भी जाता है कि जनता के सामने ठोस विकल्प खड़ा करने का गंभीर प्रयास लोकतन्त्र में तब जरूर किया जाना चाहिए जब राजनीतिक मोर्चे पर आम जनता मे इसे लेकर हताशा की स्थिति उत्पन्न हो रही हो। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में चुनाव से पूर्व राष्ट्रीय स्तर पर पहला विभिन्न दलों का सांझा मोर्चा 1999 के चुनावों में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा की छत्रछाया में बना था जिसे एनडीए का नाम पहले ही दे दिया गया था। इससे पूर्व जो भी साझा सरकारें बनी वे चुनाव बाद के शीर्ष गठबन्धन थे। एनडीए का प्रयोग सफल रहा था। एनडीए में परस्पर विरोधी विचारधारा वाले दलों का अच्छा-खासा जमघट था, इसके बावजूद इसे सफलता मिली थी। यदि आज के 19 विपक्षी दलों को देखें तो इनमें कम्युनिस्ट से लेकर तृणमूल कांग्रेस और शिवसेना से लेकर द्रमुक जैसी पार्टियां हैं। इनकी विचारधाराओं का कहीं कोई मेल नहीं है। इसके बावजूद भाजपा का मुकाबला करने के लिए एक मंच पर आने को तैयार हैं। यह स्वयं में खुलासा करता है कि राष्ट्रीय स्तर पर बिना सांझा मोर्चा बनाये भाजपा का मुकाबला नहीं किया जा सकता। विपक्षी एकता के इस मार्ग में सबसे बड़ी बाधा नेता का चयनित होना माना जाता है। अतः सत्तारूढ़ पक्ष सबसे पहले यही सवाल खड़ा करता है कि इस गठबन्धन का नेता कौन होगा? मगर इसका दूसरा पहलू यह भी गिनाया जाता है कि विपक्षी दलों में प्रधानमन्त्री बनने की योग्यता रखने वाले नेताओं की भरमार है। संपादकीय :राखी प्यार का त्यौहारखौफ के बीच बच्चों का टीकालव जिहाद कानून पर उठते सवालजातिगत जनगणना का विवादअशरफ गनी की ताजा अपीलएनडीए में महिलाएंतृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने कल हुई बैठक में इसी बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया और कहा कि सभी विपक्षी दलों को एक संचालन समिति गठित करके राष्ट्रव्यापी अभियान चलाना चाहिए और लोगों को समझाना चाहिए कि भारतीय लोकतन्त्र में विकल्प की कमी नहीं है। वैसे संसद के समाप्त वर्षाकालीन सत्र के दौरान विपक्षी दलों ने जिस एकता का मुजाहिरा किया है उससे यह जरूर कहा जा सकता है कि विपक्षी दल अपने आंतरिक मतभेद भुलाना चाहें तो भुला सकते हैं। लेकिन लोकतन्त्र में सबसे बड़ी जरूरत राजनीति की पवित्रता की भी होती है। अतः विपक्षी दलों की एकता का तभी कोई अर्थ हो सकता है जब उनका लक्ष्य गिरते राजनीतिक स्तर को ऊपर उठाना हो। जहां तक आम जनता की समस्याओं का सवाल है तो वे हर पार्टी के शासनकाल में विद्यमान रहती है, बेशक उनका स्वरूप अलग-अलग हो सकता है। मगर मूल प्रश्न भारत की उस संवैधानिक व्यवस्था का होता है जिसके तहत पूरा देश एक इकाई में बंध कर इस देश के विविधतापूर्ण सांस्कृतिक समाज के हर व्यक्ति को एक समान रूप से न्याय देने की गारंटी करता है। यह गारंटी लोकतन्त्र में इस प्रकार समाहित होती है कि किसी चपरासी का बेटा भी अपनी प्रतिभा व योग्यता के आधार पर आईएएस अफसर बन सके। अतः राष्ट्रीय सम्पत्ति का बंटवारा लोकतन्त्र बिना किसी भेदभाव और कटुता के मुक्त हस्त से समाज के गरीब से गरीब व्यक्ति के साथ भी करता है। विपक्षी पार्टियां बेशक 20 से 30 सितम्बर तक विभिन्न समस्याओं को लेकर राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन कर सकती हैं मगर इशके साथ उन्हें उनका समाधान भी सुझाना होगा तभी तो उनके विकल्प खड़ा करने की क्षमता का पता आम लोगों को लगेगा।


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