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लखीमपुर खीरी कांड को कुरेदने और अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे विपक्षी दल

संजीव तिवारी । कृषि कानून विरोधी आंदोलन जैसे तेवरों के साथ लैस था, उसमें वैसी किसी घटना का अंदेशा बढ़ गया था, जैसी लखीमपुर खीरी में हुई और जिसमें आठ लोग मारे गए। यहां किसान संगठन केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र के उस बयान से कुपित थे, जिसमें उन्होंने आंदोलनरत किसानों को सुधार देने की चेतावनी दी थी। इस आक्रोश में विपक्षी दलों के नेता भी शामिल हो गए और फिर किसान संगठनों ने इलाके में भाजपा के कार्यक्रमों का विरोध करना शुरू कर दिया। इससे आग में घी डालने वाला माहौल बनना शुरू हो गया। इसी माहौल में वह घटना घटी, जिसमें भाजपा कार्यकर्ताओं के काफिले की कार किसानों से जा टकराई। इस टक्कर में चार किसान मारे गए। बाद में गुस्साए किसानों ने कार सवार तीन लोगों को पीट-पीटकर मार दिया। इस हिंसक घटना में एक पत्रकार भी मारा गया। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं कि उसकी मौत किन परिस्थितियों में हुई। इसके लिए जांच का इंतजार करना होगा। जांच से ही यह भी पता चलेगा कि कार ने जानबूझकर टक्कर मारी या फिर उस पर हमले के बाद वह अनियंत्रित होकर किसानों से जा टकराई और जो पीट-पीटकर मार दिए गए, उनके लिए कौन जिम्मेदार है?
हालांकि योगी सरकार ने सूझबूझ दिखाते हुए किसानों और प्रशासन के बीच समझौता करा दिया, लेकिन इसमें संदेह है कि विपक्षी दल संवेदना दिखाने के नाम पर राजनीति करने से पीछे हटेंगे। इसके आसार इसलिए नहीं, क्योंकि उत्तर प्रदेश और पंजाब में चुनाव होने हैं। विपक्षी दल चुनावों तक लखीमपुर खीरी कांड को कुरेदने और अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे। वे योगी सरकार के साथ मोदी सरकार को भी घेरेंगे, क्योंकि अजय मिश्र केंद्रीय गृह राज्य मंत्री हैं और उनके ही बेटे आशीष मिश्र पर यह आरोप है कि वह उस काफिले में था, जिसकी कार ने किसानों को टक्कर मारी। राजनीतिक दलों के रवैये से यह भी साफ है कि वे न तो जांच का इंतजार करने वाले हैं और न ही उसके नतीजे से संतुष्ट होने वाले हैं।
यह अच्छा है कि उच्चतम न्यायालय ने लखीमपुर कांड में हस्तक्षेप किया, लेकिन यह कहना कठिन है कि उसका दखल विपक्षी दलों को अपनी राजनीति करने से रोक पाएगा? किसान आंदोलन के बहाने राजनीति करने में सबसे ज्यादा कांग्रेस सक्रिय है, लेकिन यह वही कांग्रेस है, जिसने अपने घोषणा पत्र में वैसे ही कानून बनाने का वादा किया था, जैसे मोदी सरकार ने बनाए। राहुल और प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस किसानों को उकसाकर चुनावी लाभ लेने की कोशिश तो खूब कर रही है, लेकिन यह नहीं बता रही कि कैसे कृषि कानून बनाए जाने चाहिए? यदि वह यह चाह रही है कि किसी तरह के नए कानून बनाने की जरूरत ही नहीं तो इसका मतलब है कि वह किसानों का भला ही नहीं चाहती। कांग्रेस किसान संगठनों को कितना भी उकसाए, कृषि कानूनों पर उसके विरोधाभासी रुख के कारण उसे कोई राजनीतिक लाभ मिलने वाला नहीं है।
लखीमपुर कांड के बाद विपक्षी दलों के साथ किसान संगठन भी उग्र नजर आ रहे हैं। इस उग्रता के बीच किसान संगठनों की ओर से उठाए जा रहे मुद्दे पीछे जा रहे हैं। जो किसान संगठन अभी तक कृषि कानूनों की वापसी पर अड़े थे, वे अब केंद्रीय मंत्री के इस्तीफे और उनके बेटे की गिरफ्तारी की मांग पर जोर दे रहे हैं। हालांकि किसान संगठन और साथ ही उनका साथ दे रहे राजनीतिक दल इस कोशिश में हैं कि यह आंदोलन देश भर में फैले, लेकिन वह पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित है, क्योंकि इस आंदोलन को इन्हीं इलाकों के धनी किसान और आढ़ती एवं बिचौलिये चला रहे हैं। इस आंदोलन में आम किसानों और खासकर छोटे किसानों की भागीदारी न पहले थी और न अब है, क्योंकि उन्हें इस आंदोलन में अपना कोई हित नहीं दिख रहा है। समझना कठिन है कि बड़े किसान यह क्यों नहीं चाहते कि आम किसान बिना किसी बिचौलिये के अपनी फसल मनचाही जगह बेच सके?
किसान संगठनों की ओर से आंदोलन के नाम पर दिल्ली को घेरे हुए दस माह हो चुके हैं। इस घेरेबंदी से लाखों लोग परेशान हो रहे हैं, लेकिन उनकी कोई चिंता नहीं की जा रही है। किसान संगठन अपने आंदोलन से होने वाली राजस्व हानि की भी कोई चिंता नहीं कर रहे हैं। इस घेरेबंदी के कारण तमाम उद्योग-धंधे चौपट हैं, लेकिन किसान संगठन बेपरवाह हैं। इस घेरेबंदी का भी उच्चतम न्यायालय ने संज्ञान लिया है, लेकिन जब तक राहत न मिल जाए, तब तक कुछ कहना कठिन है। यह कहना भी कठिन है कि उच्चतम न्यायालय अपनी उस समिति की रपट पर कब गौर करेगा, जिसका गठन खुद उसने किया था और जिसे कृषि कानूनों की समीक्षा का काम दिया गया था। इस समिति ने मार्च में ही अपनी रपट उसे सौंप दी थी, लेकिन कोई नहीं जानता कि उसका संज्ञान क्यों नहीं लिया जा रहा है? किसान संगठनों के आंदोलन पर उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी की है कि जिन कानूनों का अमल रोक दिया गया हो और जो मामला अदालत में हो, उस पर धरना-प्रदर्शन कैसे किया जा सकता है, लेकिन इसका कोई असर किसान नेताओं पर पड़ता नहीं दिख रहा है। वे यही कहने में लगे हुए हैं कि उन्हें आंदोलन करने से कोई नहीं रोक सकता। वह ठीक कह रहे हैं, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं कि आंदोलन करने के नाम पर वे लोगों को तंग करें और रास्ते रोकें। लखीमपुर खीरी कांड के बाद यह कहना और कठिन हो गया है कि किसान संगठन कब तक दिल्ली को घेरे रहेंगे। ऐसे में आवश्यक यही है कि केंद्र सरकार इस आंदोलन को खत्म कराने की पहल करे, अन्यथा लखीमपुर खीरी जैसी घटनाएं आगे भी हो सकती हैं। केंद्र सरकार को यह काम तो करना ही चाहिए कि वह छोटे किसानों के बीच सक्रिय हो और उन्हें कृषि कानूनों के लाभों से परिचित कराए। यदि वह यह ऐसा करती तो शायद बड़े किसानों का आंदोलन पहले ही कमजोर पड़ जाता। लगता है कि केंद्र सरकार उच्चतम न्यायालय के फैसले का इंतजार भर कर रही है। यह ठीक नहीं। उसे उन आम किसानों के बीच जाना चाहिए, जिन्हें नए कृषि कानूनों से सबसे ज्यादा लाभ मिलना है।
