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कैंसर एक ऐसी बीमारी है, जिसका इलाज आसान नहीं है। इसके इलाज में समय लगता है
प्रदीप सिंह। कैंसर एक ऐसी बीमारी है, जिसका इलाज आसान नहीं है। इसके इलाज में समय लगता है। इसमें सर्जरी भी करनी पड़ती है और कीमोथेरेपी भी। इसमें बड़ा कष्ट होता है। भ्रष्टाचार हमारे समाज की ऐसी ही बीमारी है। पिछले सात साल से इसका इलाज शुरू हुआ है। समय तो लग रहा है। रोगियों का कष्ट भी बढ़ रहा है। यह इसलिए हो पा रहा है कि गंगोत्री पारदर्शी है। समस्या उसके नीचे की है। भ्रष्टाचार रूपी कैंसर की कोशिकाएं पूरी ताकत से लड़ रही हैं। केंद्र की मोदी सरकार इस बीमारी से लड़ने के लिए समय-समय पर नई-नई दवाओं का इस्तेमाल कर रही है। ऐसे वातावरण में कई प्रश्न हैं, जिनके उत्तर की तलाश है। देश के एक वर्ग को ईमानदारी से इतना परहेज क्यों हैं या इसे यों कहें कि भ्रष्टाचार से इतना प्रेम क्यों है? नोटबंदी, जीएसटी, बेनामी संपत्ति कानून जैसे भ्रष्टाचार रोकने के तमाम उपायों का विरोध हो रहा है। इस कड़ी में अब आधार कार्ड को मतदाता पहचान पत्र से जोड़ने का मुद्दा जुड़ गया है। भ्रष्टाचार के मामलों की जांच-पड़ताल की बात शुरू होते ही विपक्षी दलों को परेशानी क्यों होती है? खासतौर से कांग्रेस को।
चुनाव सुधार एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। बोगस वोटर और बोगस वोटिंग भारतीय चुनाव प्रक्रिया की बहुत पुरानी समस्या है। साल 2018 में चुनाव आयोग ने एक सर्वदलीय बैठक बुलाई थी। इसमें कांग्रेस समेत सभी राष्ट्रीय दल और करीब 34 क्षेत्रीय दलों के नेताओं की एक राय से मांग थी कि मतदाता सूची को आधार से जोड़ दिया जाए। इससे बोगस वोटर की समस्या का समाधान हो जाएगा। उसके बाद आधार को पैन कार्ड से जोड़ने के सरकार के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाली याचिका पर 2019 में अदालत का फैसला आया। सुप्रीम कोर्ट ने न केवल सरकार के इस फैसले को सही ठहराया, बल्कि कहा कि भविष्य में सरकार को मतदाता सूची को आधार से जोड़ने पर विचार करना चाहिए। अब ऐसा हो रहा है तो विपक्ष को एतराज है।
दरअसल विपक्ष को हर उस काम से एतराज है जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार करती है। उसे उस काम के गुण-दोष से कोई फर्क नहीं पड़ता। पिछले सात साल से विरोधी पक्ष का अर्थ हो गया है, जो आंख बंद करके सतत विरोध करे। संसद में विधेयक पेश हुआ तो उस पर चर्चा के लिए विपक्षी दल तैयार नहीं। बिना चर्चा के पास हो जाए तो यह सत्तारूढ़ दल की तानाशाही है। इस विधेयक पर संसद की विधि एवं न्याय मंत्रलय की स्थायी समिति विचार कर चुकी है। वहां समस्या नहीं थी। पास हो गया तो समस्या है।
पनामा पेपर्स में जब बालीवुड और उद्योगपतियों के नाम आए तो आरोप लगा कि सरकार जांच क्यों नहीं करवा रही? जरूर मिलीभगत है। जांच शुरू हुई तो कपड़े फाड़ रहे हैं कि यह तो राजनीतिक विद्वेष के कारण हो रहा है। बीते दिनों समाजवादी पार्टी की राज्यसभा सदस्य जया बच्चन सदन में रौद्र रूप में थीं। कारण यह था कि उसी दिन उनकी बहू ऐश्वर्या राय बच्चन को प्रवर्तन निदेशालय ने पनामा पेपर्स के बारे में पूछताछ के लिए बुलाया था। जया बच्चन ने सरकार के बुरे दिन आने का श्रप दे दिया। जैसे कि वह कोई संत-महात्मा हों। विपक्ष के रवैये से यह निष्कर्ष निकलता है कि सरकार को सीबीआइ, इनकम टैक्स, प्रवर्तन निदेशालय जैसी तमाम केंद्रीय जांच एजेंसियों को तब तक के लिए बंद कर देना चाहिए जब तक कि मोदी सत्ता में हैं, बल्कि संविधान में संशोधन कर देना चाहिए कि भाजपा जब भी सत्ता में आए इन एजेंसियों के दफ्तर पर ताला लगा दिया जाए।
सवाल है कि कष्ट क्या है? तो कष्ट तो बहुत हैं और बड़े गंभीर हैं। सारे भ्रष्टाचारियों को लग रहा है कि एक-एक करके भ्रष्टाचार के रास्ते बंद किए जा रहे हैं। सरकार बैंकों का पैसा डकार जाने वालों से साढ़े पांच लाख करोड़ रुपये की वसूली कर चुकी है। यह जानकारी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने दो दिन पहले ही संसद को दी। तमाम स्वनामधन्य लोगों के खिलाफ जैसे कि पी चिदंबरम, उनके बेटे कार्ती, फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, शरद पवार, अजीत पवार, डीके शिवकुमार, कमल नाथ के भांजे रतुल पुरी और कई उद्योगपतियों के खिलाफ जांच चल रही है। कई मामलों में तो चार्जशीट भी फाइल हो गई है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी नेशनल हेराल्ड केस में जमानत पर चल रहे हैं। ऐसे लोगों की सूची बहुत लंबी है और आने वाले दिनों में यह और लंबी होने वाली है।
मतदाता सूची से आधार के जुड़ते ही घुसपैठियों और फर्जी मतदाताओं के बूते चुनाव जीतने वालों के दिन गर्दिश में चले जाएंगे। यह तो सीधे आजीविका पर हमला है। फिर इस बात की प्रबल आशंका है कि मोदी सरकार का अगला कदम होगा, सारी अचल संपत्तियों को आधार से जोड़ने का। बेनामी संपत्ति कानून के कारण पहले से ही संकट है। यह हो गया तो बरसों से कमाए कालेधन की कमाई हाथ से निकल जाएगी। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई कोई ईमानदार ही लड़ सकता है। नरेन्द्र मोदी एकमात्र राष्ट्रीय नेता हैं, जो बीस साल से काजल की कोठरी में रहने के बावजूद बेदाग हैं। विपक्ष के लिए यही सबसे बड़ी मुश्किल है।
राहुल गांधी ने बड़ी कोशिश की और राफेल के मुद्दे पर चौकीदार चोर का नारा लगवाया। लोगों ने उसे एक कान से भी नहीं सुना। उन्हें सोचना चाहिए कि क्यों बोफोर्स के मुद्दे पर पूरे देश ने राजीव गांधी के बारे में वह नारा लगाया और क्यों मोदी के बारे में ऐसी बात सुनने को भी तैयार नहीं हैं? भ्रष्टाचार बुरी चीज है, नहीं होना चाहिए। ऐसी बातें अपने भाषणों में सभी नेता करते हैं, पर करते कुछ नहीं हैं, क्योंकि भ्रष्टाचार की नींव पर ही अपने वैभव का महल खड़ा किया है। कई लोग तो कार्रवाई के डर से देश छोड़कर बाहर ही बस गए हैं। विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे जो लोग कानून को धता बताकर भाग गए, उन्हें वापस लाने का सारा इंतजाम हो चुका है। अब सरकारी बैंक से कर्ज लेकर प्राइवेट जेट खरीदने का समय चला गया है, क्योंकि जो खाता नहीं है, वह खाने भी नहीं देता है। यही सबसे विकट समस्या है कि कैसे इस न खाने न खिलाने वाले से छुटकारा मिले और खाने-खिलाने के पुराने दिन बहुरें।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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